मानव मन की श्रेष्ठता अभिमान से नहीं स्वाभिमान से आंकी जाती है

महत्व मिलने पर दूसरों को लघु समझना अभिमानी होने का प्रमाण है जबकि लघुत्व से महत्व की और बढ़ना स्वाभिमान होने की निशानी है। अभिमान में व्यक्ति अपना प्रदर्शन कर दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करता है इसलिए लोग उससे दूर रहना चाहते हैं। सिर्फ चाटुकार लोग ही अपने स्वार्थ के कारण उसकी वाहवाही करते हैं। इसके विपरीत स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के विचारों को महत्व देता है इसलिए लोग उसके प्रशंसक होते हैं।

स्वाभिमान व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाता है, जबकि अभिमानी हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना चाहता है। स्वाभिमान एवं अभिमान के बीच बहुत पतला भेद है। इन दोनों का मिश्रण व्यक्तित्व को बहुत जटिल बना देता है। दूसरों को कमतर आंकना एवं स्वयं को बड़ा समझना अभिमान है। एवं अपने मूलभूत आदर्शों पर बगैर किसी को चोट पहुंचाए बिना अटल रहना स्वाभिमान है।

अभिमानी व्यक्ति अपने आपको स्वाभिमानी कहता है किन्तु उसके आचरण, व्यवहार एवं शब्दों से दूसरे लोग आहत होते हैं। अभिमानी अन्याय करता है और स्वाभिमानी उसका विरोध। स्वाभिमानी दूसरों का आधिपत्य खत्म करता है जबकि अभिमानी अपना आधिपत्य स्थापित करता है।

अध्यात्म विज्ञान के साधकों को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना पड़ता है। सोचना होता है कि जीवन की बहुमूल्य धरोहर ऐसे उपभोग करनी है, जिससे शरीर निर्वाह-लोक व्यवहार चलता रहे।
आत्मिक अपूर्णता को पूरा करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके। ईश्वर के दरबार में पहुंचकर सीना तानकर कहा जा सके कि जो अमानत जिस प्रयोजन के लिए सौंपी गई थी, उसे उसी हेतु सही रूप में प्रयुक्त किया गया है।

इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट तीन हैं-लोभ, मोह और अहंकार। इन्हीं के कारण मनुष्य पतन के गर्त में गिरता है, पशु, प्रेत और पिशाच की जिंदगी जीता है। लोक विजय के लिए ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का सिद्धांत अपनाना पड़ता है। औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतोष करना पड़ता है। परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना पड़ता है।

जो व्यक्ति विलास में अधिक खर्चता है, वह प्रकारांतर से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहने के लिए मजबूर करता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने परिग्रह को पाप बताया है। अधिक कमाया जा सकता है, पर उसमें से निजी निर्वाह में सीमित व्यय करके शेष बचत को गिरे हुए को उठाने, उठे हुए को उछालने और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगाना जाना चाहिए। राजा जनक जैसे उदाहरणों की कमी नहीं है। मितव्ययी अनेक दुर्व्यसनों और अनाचारों से बचता है।

साधु-ब्राह्मणों की यही परंपरा रही है। सज्जनों की शालीनता भी उसी आधार पर फलती-फूलती है। जीवन साधना के उस प्रथम अवरोध लोभ को नियंत्रित कराने वाला दृष्टिकोण हर जीवन साधना के साधक को अपनाना चाहिए। मोह वस्तुओं से भी होता है, और व्यक्तियों से भी। छोटे दायरे में आत्मीयता सीमाबद्ध करना ही मोह है। उसके रहते हृदय की विशालता चरितार्थ ही नहीं होती। अपना शरीर और परिवार ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। उन्हीं के लिए मरने-खपने के कुचक्र में फंसे रहना पड़ता है। अहंकार मोटे अर्थ में घमंड को माना जाता है।

अशिष्ट व्यवहार, क्रोधग्रस्त रहना इसकी निशानी है। लोभ, मोह और अहंकार जिनके पास हैं, उनके लिए जीवन साधना की लंबी व ऊंची मंजिल पर चल सकना असंभव हो जाता है।

साभार

ऋतम्

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