उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान आदि प्रांतों में बसने वाली बिश्नोई जाति ने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जो महत्वपूर्ण कार्य किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में जब भारत पर दिल्ली सल्तनत के तुर्की शासकों का शासन था और चारों ओर हिंसा का वातावरण था, तब थार रेगिस्तान में जन्म लेने वाले जाम्भोजी नामक प्रसिद्ध संत ने बिश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्होंने अपने शिष्यों को 29 शिक्षाएं दीं जिनमें धर्म अैर नैतिकता के साथ-साथ पर्यावरण सुरक्षा एवं मानवीय मूल्यों के निर्वहन पर जोर दिया गया। उनके द्वारा दिए गए 29 नियमों में से 8 नियम पशु-पक्षियों-वृक्षों एवं पर्यावरण रक्षा से सम्बन्धित हैं।
भगवान जांभोजी के जीवन काल में ई.1485 में मारवाड़ में भयानक अकाल पड़ा। इस कारण बहुत से लोग अपने परिवारों एवं पशुओं को लेकर मालवा के लिए प्रस्थान करने लगे। मनुष्यों के इस कष्ट को देखकर जांभोजी ने उन लोगों की सहायता की तथा उन्हें पर्यावरण की सुरक्षा करने के लिए प्रेरित किया। उस काल में जब भारतीयों के पास आधुनिक विज्ञान नहीं था, और उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि खेजड़ी की जड़ में वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरिकरण करने वाले बैक्टीरिया निवास करते हैं, जांभोजी ने खेजड़ी के महत्व को पहचाना और उसकी रक्षा का कार्य धार्मिक अनुष्ठान की तरह पवित्र बना दिया। इसी प्रकार घास खाकर जीवित रहने वाले हिरण की महत्ता भी उनकी आंखों से छिपी नहीं रही। हिरणों के मल-मूत्र से धरती स्वतः उर्वरा बनने की प्रक्रिया के अधीन रहती है क्योंकि हिरण दूर-दूर तक छलांगें लगाता रहता है। इसलिए जांभोजी जंगलों में बसने वाले हिरणों को खेतों और गांवों तक ले आए।
गुरु जांभोजी की शिक्षाओं का सच्चे अर्थों में अनुसरण करते हुए बिश्नाई समाज ने पर्यावरण संरक्षण को अपने जीवन का प्रमुख हिस्सा बना लिया। जिस-जिस क्षेत्र में बिश्नोई समुदाय निवास करता है, उस सम्पूर्ण क्षेत्र में किसी व्यक्ति को हिरण, खरगोश, नीलगाय आदि वन्य-जीवों का शिकार नहीं करने दिया जाता तथा खेजड़ी के हरे वृक्ष को नहीं काटने दिया जाता। वन्यजीवों के शिकार एवं खेजड़ी की कटाई को रोकने के लिए बिश्नोई समाज का प्रत्येक व्यक्ति सजग रहता है तथा इस कार्य को करते हुए अपने प्राण तक न्यौछावर करने की भावना रखता है। सरकार ने इस समुदाय की भावनाओं का आदर करते हुए बिश्नोई बहुल गांवों के आसपास के क्षेत्रों को आखेट निषिद्ध क्षेत्र घोषित किया है।
बिश्नोई लोग हिरणों की रक्षा ही नहीं करते, वे हिरणों का उपचार तथा पालन-पोषण भी करते हैं। बिश्नोई माताएं, माताविहीन हिरण शावकों को पुत्रवत् स्तनपान करवाती हैं। इस प्रकार का उदाहरण इस धरती पर निवास करने वाले किसी भी मानव समाज में शायद ही अन्यत्र मिले।
पश्चिमी राजस्थान में अनेक बार ऐसे प्रसंग हुए जब बिश्नोई समाज के स्त्री-पुरुषों ने वन्यजीवों एवं वृक्षों की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए। ई.1730 में खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समाज के 363 स्त्री-पुरुषों द्वारा दिया गया बलिदान पूरे विश्व में श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। आज भी इस घटना की स्मृति को ताजा करने एवं उन अमर शहीदों को स्मरण करने के लिए देश के बहुत से हिस्सों से लोग खेजड़ली गांव आते हैं।
बिश्नोई समाज को खेजड़ी के प्रति श्रद्धा, भगवान जांभोजी के जीवन काल से ही होने लगी थी। जांभोजी ने नागौर जिले की जायल तहसील में स्थित रोटू गांव में तीन हजार सात सौ वृक्ष लगाकर पूरे गांव की सीमा में अलग तरह का बगीचा लगा दिया था। मान्यता है कि उन्होंने खेजड़ी के एक सूखे वृक्ष को अपनी दिव्य शक्ति से पुनः हरा-भरा कर दिया था।
आज से लगभग 21 वर्ष पहले मैंने रोटू गांव की यात्रा की थी। तब मैंने अपनी आंखों से इस गांव में मोर एवं चिड़ियों को स्थान-स्थान पर इस प्रकार बैठे हुए देखा था मानो वे गांव के पालतू पक्षी हों। इसी प्रकार मैंने हिरणों को निर्भय होकर रोटू गांव में विचरण करते हुए देखा था। मूलतः हिरण वन्यजीव है किंतु यह देखना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था कि मानव द्वारा दिए जा रहे प्रेम के वशीभूत होकर हिरण जंगल में बसने का अपना स्वभाव भूलकर गांव के बीच घूमते थे।
जाम्भोजी ने एक नियम बताया था- ‘‘अमर रखावै थाट बैल बंध्यो न करावै’’ मैंने अपनी आंखों से इस गांव में बकरों का एक थाट देखा था। थाट बकरों के उस समूह को कहते हैं जिसमें गांव के समस्त बकरों को रखा जाता है तथा उनका वध नहीं किया जाता, न उन्हें बधिया किया जाता है। उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी समस्त गांव द्वारा उठाई जाती है।
जोधपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर के धोरों में स्थित कांटेदार शुष्क वनों में बिश्नोई समाज ने हिरणों के लिए स्थान-स्थान पर पेयजल की व्यवस्था की है तथा कुत्तों के काटने से घायल एवं बीमार हिरणों के उपचार के लिए रेसक्यू सेंटर बनाए हैं। इन सेंटरों पर हिरणों के साथ-साथ अन्य घायल पशु-पक्षियों का भी उपचार किया जाता है। बरसात के दिनों में जब हिरणों के पांव मिट्टी में धंसने लगते हैं, तब भी बिश्नोई समुदाय के लोग इनकी रक्षा करते हैं। गुढ़ा बिश्नाईयां तथा खेजड़ली क्षेत्र में बिश्नोई स्त्री-पुरुषों को सहज भाव से पशु-पक्षियों की सेवा-सुश्रुषा करते हुए देखा जा सकता है।
जोधपुर जिले में बिश्नोई धोरां नामक स्थान पर मैंने आज से लगभग 10 वर्ष पहले प्रातः काल की बेला में बिश्नोई स्त्री-पुरुषों को वैदिक मंत्रों के साथ हवन करते हुए तथा शुद्ध घी की आहुतियां देते हुए देखा था। यह हवन एक ऊंचे से टीले पर बने एक छोटे मंदिर के खुले प्रांगण में बने एक झौंपड़ी नुमा शेड के नीचे हो रहा था और यज्ञ-स्थल के चारों ओर मोर तथा हिरण सहज भाव से विचरण कर रहे थे।
बिश्नोई समाज द्वारा जीवों की रक्षा के लिए बहुत सजगता बरती जाती है, उसके उपरांत भी शिकारियों द्वारा हिरणों के चोरी-छिपे शिकार की घटनाएं हो जाती हैं। कई बार शिकारियों का प्रतिरोध करते हुए बिश्नोई समाज के लोग अपने प्राण तक न्यौछावर कर चुके हैं। इस समाज ने पर्यावरण की सुरक्षा के भाव को धर्म की तरह धारण किया है जिसकी मिसाल अन्यत्र मिलनी अत्यंत कठिन है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता