अखण्ड सेवाव्रती बाबा आम्टे _ 9 फरवरी/पुण्य-तिथि

अखण्ड सेवाव्रती बाबा आम्टे  _ 9 फरवरी पुण्य-तिथि

अखण्ड सेवाव्रती बाबा आम्टे _ 9 फरवरी/पुण्य-तिथि

अखण्ड सेवाव्रती बाबा आम्टे 

सेवा का मार्ग बहुत कठिन है, उसमें भी कुष्ठ रोगियों की सेवा तो अत्यधिक कठिन है। ऐसे लोगों को स्वयं भी रोगी हो जाने का भय रहता है; पर मुरलीधर देवीदास (बाबा) आम्टे ने इस कठिन क्षेत्र को ही अपनाया। इससे उनके परिजन इतने प्रभावित हुए कि उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू और पौत्र भी इसी कार्य में लगे हैं। ऐसे समाजसेवी परिवार दुर्लभ ही होते हैं। बाबा का जन्म 26 दिसम्बर, 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के एक जमींदार परिवार में हुआ था। कानून की शिक्षा पाकर उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में बन्दी सत्याग्रहियों के मुकदमे लड़े; लेकिन झूठ पर आधारित इस काम में उनका मन नहीं लगा। कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत कष्ट होता था। अतः उन्होंने इनकी सेवा करने का निर्णय लिया।

इस विचार का उनकी पत्नी साधना ताई ने केवल स्वागत ही नहीं किया, अपितु पूरा सहयोग भी दिया। दोनों ने कोलकाता जाकर कुष्ठ रोग के उपचार का प्रशिक्षण लिया और फिर दो पुत्रों प्रकाश व विकास तथा छह कुष्ठ रोगियों के साथ महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में ‘आनन्दवन’ नामक आश्रम स्थापित किया। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि बाबा को इस कार्य में आनंद का अनुभव होता था। यद्यपि उनका विरोध भी बहुत हुआ। उस समय धारणा यह थी कि कुष्ठ रोग पूर्वजन्म के पापों का फल है; पर बाबा ने इसकी चिन्ता नहीं की। धीरे-धीरे इस आश्रम की प्रसिद्धि होने लगी। बाबा के मधुर व्यवहार और समर्पण के कारण दूर-दूर से कुष्ठ रोगी इस आश्रम में आकर रहने लगे।

बाबा ने उन्हें भिक्षावृत्ति से हटाकर छोटे कुटीर उद्योगों में लगाया, जिससे उन्हें आय होने लगी। इससे उन्हें स्वाभिमान एवं सम्मानपूर्वक जीने का नया मार्ग मिला। इस समय वहाँ 3,000 से अधिक कुष्ठ रोगी हैं, जिनकी सेवा में बाबा के दोनों चिकित्सक पुत्र, पुत्रवधुएँ तथा पौत्र भी पूर्ण निष्ठा से लगे हैं। इसके साथ बाबा सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े रहते थे। सरदार सरोवर बाँध के निर्माण के समय विस्थापितों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन को उन्होंने आन्दोलनकारियों के बीच जाकर सक्रिय समर्थन दिया। जिन दिनों पंजाब में उग्रवाद चरम पर था, बाबा ने वहाँ का प्रवास किया। इसी प्रकार जब महाराष्ट्र में क्षेत्रवादी आन्दोलन ने जोर पकड़ा, तो बाबा ने साइकिल से पूरे भारत का भ्रमण किया। इसे उन्होंने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा नाम दिया।

बाबा सदा अपनी मौलिकता में जीते थे। गांधी जी से प्रभावित होने के कारण वे अपने आश्रम में बनी खादी के वस्त्र पहनते थे। राष्ट्रपति से सम्मान लेते समय भी वे खादी की साधारण बनियान पहन कर ही गये।
रक्त कैंसर (ल्यूकेमिया) और रीढ़ की बीमारी से ग्रसित होने के कारण जब उन्हें बैठना सम्भव नहीं रहा, तो वे लेटकर ही प्रवास, बातचीत और भाषण देने लगेे। वे कुष्ठ के किसी खतरे से घबराये नहीं। उन्होंने कुछ दवाओं का परीक्षण रोगियों से पहले स्वयं पर करवाया। यह बड़े साहस की बात है।

उन्हें देश-विदेश की सैकड़ों संस्थाओं ने सम्मानित किया। इनमें पद्मश्री, पद्म विभूषण, डा. अम्बेडकर अन्तरराष्ट्रीय सम्मान, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मान, रेमन मैगसेसे सम्मान, टेम्पलटन सम्मान आदि प्रमुख हैं। कुष्ठ रोगियों की सेवा को अपना जीवन सर्वस्व मानने वाले इस अखंड सेवाव्रती का नौ फरवरी, 2008 का अपनी कर्मस्थली आनन्दवन में ही देहान्त हुआ।

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

four × two =