गुरु पूर्णिमा 16 जुलाई पर विशेष – (भाग-1)

संघ, राष्ट्र और भगवा ध्वज

समस्त संसार में भारतवर्ष ही एकमात्र ऐसा सनातन राष्ट्र है जिसमें गुरु शिष्य की महान एवं अतुलनीय परम्परा को जन्म दिया है। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक, प्राध्यापक, शिक्षक, व्यापार जगत में ट्रेनिंग देने वाले उस्ताद, मास्टर और राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने वाले तथाकथित महान नेता विश्व के प्रत्येक कोने में पाए जाते हैं परन्तु मनुष्य को सम्पूर्ण ज्ञान देकर उसे किसी विशेष ध्येय के लिए समर्पित हो जाने की प्रेरणा देने वाले श्रीगुरु केवल भारत की धरती पर ही अवतरित होते हैं। इन्हीं श्रीगुरुओं के तपोबल को शिरोधार्य करके हमारे देश के असंख्य, संतों, महात्माओं, योद्धाओं, स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत के भूगोल, संस्कृति, धर्म और राष्ट्र जीवन के मूल्यों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व झोंक दिया। ऐसी मान्यता है कि इस गुरु परम्परा में आद्य श्रीगुरु महर्षि व्यास थे। इसीलिए भारत में व्यास पूजा के उत्सव का श्रीगणेश हुआ। इस दिन विशाल हिन्दू समाज (जैन, सिख, सनातनी, आर्यसमाजी, शैव, वैष्णव, लिंगायत, बौद्ध इत्यादि) के अधिकांश हिन्दू लोग गुरु-पूजन की परम्परा को अस्था और श्रद्धा के साथ निभाते हैं। श्रीगुरु एवं गुरुकुल भारतवर्ष के समग्र राष्ट्र जीवन के उद्गम स्थल और रक्षक रहे हैं।

डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में नागपुर में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उपरोक्त श्रीगुरु परम्परा को आगे बढ़ाते हुए भारतवर्ष के राष्ट्रजीवन के प्रत्यक्षदर्शी, प्रतीक एवं पहचान परम पवित्र भगवा ध्वज को अपना श्रीगुरु स्वीकार किया है। यह भगवा ध्वज मामूली कपड़े का एक साधारण झंडा न होकर भारतवर्ष की सनातन राष्ट्रीय पहचान है।  भारत के वैभव, पतन, संघर्ष और उत्थान का साक्षी है। इसीलिए कहा गया है कि -‘‘भगवा ध्वज निश्चिय ही भारतवर्ष के आदर्शों और आकांक्षाओं का, उसके इतिहास और परम्पराओं का, उसके वीरों और संतों के शौर्य और तप का सर्वाधिक वंदनीय और जगमगाता प्रतीक है’’। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि संघ ने किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी ग्रंथ को अपना श्रीगुरु स्वीकार क्यों नहीं किया? उत्तर बहुत सीधा और सरल है। संघ का उद्देश्य भारतवर्ष का सर्वांगीण विकास अथवा सर्वांग स्वतंत्रता है। कोई अकेला व्यक्ति या ग्रंथ कितना भी महान एवं विशाल क्यों न हो वह समस्त राष्ट्र जीवन एवं अतीत से आज तक के इतिहास का प्रतिबिंब, जानकार और प्रतीक नहीं हो सकता। कोई एक महापुरुष (व्यक्ति) अथवा महाग्रंथ (पुस्तक) भारत की अनेक जातियों,रीति-रिवाजों, भाषाओं और पूजा पद्धतियों का प्रतिनिधित्व भी नहीं कर सकता। समय की आवश्यकता अनुसार अपने भारतवर्ष में अनेक संप्रदायों,विचारधाराओं एवं मजहबी गुटों की स्थापना हुई। इन सबके अपने-अपने श्रीगुरु एवं ग्रंथ भी अस्तित्व में आए। भारत के धर्म और संस्कृति में इस तरह की स्वतंत्रता है। ये भिन्नता नहीं अपितु विविधता है। यही विविधता हमारे राष्ट्र जीवन का सशक्त आधार है। पवित्र भगवा ध्वज इसी विविधता को जोड़े रखने, संवर्धित करने और सुरक्षित रखने की क्षमता रखता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य और उद्देश्य व्यक्ति, परिवार, आश्रम और संस्था केन्द्रित न होकर समाज और राष्ट्र केन्द्रित है और वैसे भी व्यक्ति कभी भी पथभ्रष्ट, उद्देश्यभ्रमित और विकट परिस्थितियों में डांवाडोल हो सकता है। इसी तरह से कोई भी बड़े से बड़ा महाग्रंथ भी समय की आवश्यकता अनुसार अपने को ढाल लेने में असमर्थ होता है। ग्रंथ अपने सम्प्रदाय का संचालन और दिशा निर्देश करने में तो सक्षम हो सकता है परन्तु किसी विशाल राष्ट्र जीवन को अपने में नहीं समेट सकता। अतः भारतवर्ष में उत्पन्न हुए सभी महापुरुषों, संतों, योद्धाओं, ग्रंथों नेताओं की प्रेरणा और एकता का आधार सनातन काल से चला आ रहा भगवा ध्वज ही है। संघ का कार्य और उद्देश्य राष्ट्र केन्द्रित है। राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई होती है। देश एक भौगोलिक इकाई का नाम होता है। राज्य एक राजनीतिक इकाई होती है और सरकार प्रशासन चलाने वाली एक एजेंसी कहलाती है। भगवा ध्वज भारत की राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान है इसीलिए वह भारतवर्ष का सांस्कृतिक ध्वज है। इस ध्वज का सम्बन्ध जाति, मजहब और, क्षेत्र विशेष से कदाचित नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जब अपने इस श्रीगुरु भगवा ध्वज की पूजा करते हैं तो उस पूजा का अर्थ भी जातिगत अथवा व्यक्तिगत नहीं होता। भगवा ध्वज की वंदना का अर्थ है भारत के सभी धर्मग्रंथों, महापुरुषों, अवतारों, धर्मरक्षकों, धर्मगुरुओं, देवी-देवताओं, महान योद्धाओं और चैतन्यमयी देवी भारतमाता की पूजा। आधुनिक भाषा के अनुसार 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा। यहां यह भी ध्यान देना चाहिए कि भगवा रंग और भगवा ध्वज को किसी कालखंड में बांधा अथवा समेटा नहीं जा सकता। जब मानवता का विभाजन हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई इत्यादि जातियों में नहीं हुआ था उससे भी लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व भगवा रंग और भगवा ध्वज का अस्तित्व था। वेदों में इसी ध्वज को‘अरुण केतवाः’ सूर्य का रथ कहा गया है। अतः भारत में रहने वाली सभी जातियों मजहबों का आदि रंग एवं ध्वज यह भगवा ही है। इसी ध्वज की छत्रछाया में और प्रेरणा से भारतीयों ने निरंतर 1200 वर्षों तक विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष किया है। इसी तरह संघ के स्वंयसेवक इसी ध्वज को अपना श्रीगुरु मानकर इससे बलिदान, त्याग, तपस्या और सेवा की प्रेरणा लेते हैं।

उपरोक्त संदर्भ में यह स्पष्टीकरण देना भी आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में तिरंगा हमारे देश का राष्ट्र ध्वज है। संघ इसे स्वीकार करता है। इसको सम्मान देता है। संघ के स्वयंसेवक जिन्होंने तिरंगे के सम्मान की रक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, गोवा, नगर हवेली, हुगली इत्यादि स्थानों में सैकड़ों की संख्या में बलिदान दिए हैं, आगे भी इसके सम्मान के लिए अपनी जीवनाहुति देने से कभी पीछे नहीं हटेंगे। परन्तु इस सच्चाई को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि यदि तिरंगा देश का शरीर है तो भगवा राष्ट्र की आत्मा है। अतः भगवा भारत का सनातन काल से चला आ रहा सांस्कृतिक ध्वज है और तिरंगा वर्तमान भारत का राष्ट्र ध्वज है। राष्ट्र ध्वज तिरंगे के आगे समस्त भारतवासियों के साथ संघ के स्वयंसेवक सदैव नतमस्तक हैं। इसी तरह अपने भारतवर्ष के सांस्कृतिक ध्वज के आगे संघ के स्वयंसेवकों के साथ समस्त भारतवासियों को भी नतमस्तक होना चाहिए।…………(जारी)

– नरेन्द्र सहगल –

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