प्रताप की निर्णायक विजय हुई हल्दीघाटी युद्ध में

जयपुर (विसंकें)। haldighatiहल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध आज ही के दिन 18 जून 1576 को हुआ जिसमें प्रताप से घबराकर स्वयं अकबर युद्ध में नहीं आया, आसफ खाँ व जयपुर के राजा मानसिंह को भेजा। मुगल राजा अकबर और उसकी अपराजेय विशाल सेना को मेवाड़ी सेना ने नाकों चने चबा दिये मुगल सेना बुरी तरह हार कर भाग गयी। वर्तमान के भारतीय इतिहासकारों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया कि हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप की निर्णायक विजय हुई। इन इतिहासकारों में डा० कृष्णस्वरूप गुप्ता,डा०देव कोठार,डा०महावीरजैन ,मोहन सिंह कुराबड़ व डा० शिवकुमार मिश्रा व इतिहासविद् ओमप्रकाश व छ्गनलाल बोहरा हैं।। उपरोक्त इतिहासकार एवं इतिहासविद बताते हैं कि अकबर इस युद्ध के परिणाम से इतना क्रोधित हुआ कि उसने मानसिह के मुगल दरबार में आने पर रोक लगा दी एंव मुगल सेना का मेवाड़ में आगे नहीं बढ़ना व वापस लौट के जाना यह मानसिंह की असफलता का प्रमाण है। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना केवल 20हजार और मुगल सेना 80 हजार से सवा लाख अनुमानित थी, महाराणा प्रताप के साथ ग्वालियर के ठाकुर राम सिंह तंवर एंव उनके पुत्र , सादड़ी के झाला मानसिंह ,राणा पूंजा एवम हाकिम खां सूरी साथ में थे, महाराणा प्रताप अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति एवं कुशल सैन्य प्रबंध को अपनाते हुए मुगलो को मैदानी भाग से अरावली की संकरी घाटियों में ले आए,जहां लाकर मुगल सैनिको को संकट में डाल दिया । उनके प्रिय घोड़े का नाम चेटक था, युद्ध में चेटक ने मानसिंह के हाथी पर अपने पैर टिका दिए, महाराणा प्रताप मानसिंह पर भाला मारने वाले थे कि मानसिंह औदे में नीचे छिप गया एवं हाथी के सूंड से बंधी तलवार चेटक के पैर पर लग गई इसलिए चेटक बहुत देर तक तीन टाँग से युद्ध लड़ता रहा, हल्दी घाटी युद्ध मे चेटक ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। युद्ध में घायल अपने स्वामी महाराणा प्रताप की रक्षार्थ,सादड़ी के “झालामानसिंह” जिन्हे झाला बीदा भी कहा जाता था,उन्होने अपने प्राणों की आहुति दी। कद काठी,शक्ल सूरत महारणा प्रताप से मिलती थी,सो युद्ध में हजारों मुगलो को काट मार करने के बाद कुछ घायल से दिखे महाराणा प्रताप को युद्ध से सुरक्षित बाहर भेज कर उनका टोप अपने सिर रखकर भयंकर युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। युद्ध से लौटते समय घायल चेटक ने प्रताप को लेकर 20 फिट से अधिक चौड़ा बरसाती नाला – जो उस समय अपने तेज प्रवाह और जल से चरम उफान पर था- तीन टाँग से पार कर डाला, इसी समय महाराणा प्रताप के बिछड़े भाई शक्तिसिंह आकर मिले प्रताप का पीछा कर रहे दो मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, नाला पार करते ही घायल चेटक मूर्छित होकर वहीं इमली के पेड़ के नीचे गिर पड़ा, उस स्थान को आज भी आस पास के लोग खोड़ली इमली के नाम से जानते हैं और वहीं चेटक का प्राणांत हो गया। दुःखी महाराणा प्रताप ने नीचे शिव मंदिर के समीप चेटक को समाधि देकर उसका स्मारक बनवाया आज भी स्वामी भक्त चेतक के उस बलिदान को बड़ी श्रद्धा से स्मरण किया जाता है।, उसकी स्मृति में एक अश्व मेले का आयोजन भी होता है ।। सांयकाल तक दोनों ओर के कई सैनिक मारे जाने व घायल होने के कारण से बहुत रक्त बहा इसीलिए युद्ध स्थान बाद में रक्त तलाई कहलाया, यह युद्ध मात्र एक दिन ही चला, मुगल सेना में दूसरे दिन युद्ध करने की हिम्मत नहीं रही। करण मुगल सेना मैदान युद्ध की तो अभ्यस्त थी लेकिन पहाड़ी स्थानों पर और गोरिल्ला पद्धति से युद्ध की अभयस्त नहीं थी हल्दीघाटी एक ऐसी सकड़ी घाटी है जिस पर एक समय में एक व्यक्ति या एकघुड़सवार ही निकल सकता है।
इस विश्व प्रसिद्ध युद्ध स्थान को इतिहासकारों ने थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़ कहा। स्वतंत्रता के पश्चात शासन की भी उपेक्षा के कारण से मूल हल्दीघाटी का स्वरुप बदल दिया गया था जब एक बार प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद वहां आए तब उन्होंने देखा कि हल्दीघाटी पर चौड़ा रास्ता बन गया है तो उन्हें बहुत दुख हुआ उनकी प्रेरणा से हल्दीघाटी के उस दर्रे का पुनर्निर्माण किया गया है।उस समय इतिहास लिखने वाले अकबर के लोग थे और बाद में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति भी भारत के वीरों के प्रति स्वाभिमान का भाव नहीं जगाना चाहती थी इसीलिए प्रारंभ में तो इसको ऐसा कहा जाता था कि महाराणा प्रताप हार गए बाद में यह कहा जाने लगा के हल्दीघाटी युद्धन अनिर्णित रहा लेकिन अब इतिहासकार मान चुके हैं कि इस युद्ध में महाराणा प्रताप की निर्णायक विजय हुई थी।।

विश्व संवाद केन्द्र

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