आयरलैण्ड की युवती मार्गरेट नोबेल ने अपना जीवन भारत माता की सेवा में लगा दिया

भारत की महान पुत्री भगिनी निवेदिता (28 अक्तूबर/जन्म-दिवस)

स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित होकर आयरलैण्ड की युवती मार्गरेट नोबेल ने अपना जीवन भारत माता की सेवा में लगा दिया। प्लेग, बाढ़, अकाल आदि में उन्होंने समर्पण भाव से जनता की सेवा की। 28 अक्तूबर, 1867 को जन्मी मार्गरेट के पिता सैम्युअल नोबल आयरिश चर्च में पादरी थे। बचपन से ही मार्गरेट नोबेल की रुचि सेवा कार्यों में थी। वह निर्धनों की झुग्गियों में जाकर बच्चों को पढ़ाती थी। एक बार उनके घर भारत में कार्यरत एक पादरी आये। उन्होंने मार्गरेट को कहा कि शायद तुम्हें भी एक दिन भारत जाना पड़े। तब से मार्गरेट के सपनों में भारत बसने लगा।

मार्गरेट के पिता का 34 वर्ष की अल्पायु में ही देहान्त हो गया। मरते समय उन्होंने अपनी पत्नी मेरी से कहा कि यदि मार्गरेट कभी भारत जाना चाहे, तो उसे रोकना नहीं। पति की मृत्यु के बाद मेरी अपने मायके आ गयी। वहीं मार्गरेट की शिक्षा पूर्ण हुई। 17 साल की अवस्था में मार्गरेट एक विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने लगी। कुछ समय बाद उसकी सगाई हो गयी; पर विवाह से पूर्व ही उसके मंगेतर की बीमारी से मृत्यु हो गयी। इससे मार्गरेट का मन संसार से उचट गया; पर उसने स्वयं को विद्यालय में व्यस्त कर लिया।

भगिनी निवेदिता

भगिनी निवेदिता

1895 में एक दिन मार्गरेट की सहेली लेडी इजाबेल मारगेसन ने उसे अपने घर बुलाया। वहाँ स्वामी विवेकानन्द आये हुए थे। स्वामी जी 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण देकर प्रसिद्ध हो चुके थे। उनसे बात कर मार्गरेट के हृदय के तार झंकृत हो उठे। फिर उसकी कई बार स्वामी जी भेंट हुई। जब स्वामी जी ने भारत की दुर्दशा का वर्णन किया, तो वह समझ गयी कि वह जिस बुलावे की प्रतीक्षा में थी, वह आ गया है। वह तैयार हो गयी और 28 जनवरी, 1898 को कोलकाता आ गयी।

यहाँ आकर उन्होंने सबसे पहले बंगला भाषा सीखी; क्योंकि इसके बिना निर्धन और निर्बलों के बीच काम करना सम्भव नहीं था। 25 मार्च, 1898 को विवेकानन्द ने मार्गरेट को भगवान शिव की पूजा विधि सिखायी और उसे ‘निवेदिता’ नाम दिया। इसके बाद उसने स्वामी जी के साथ अनेक स्थानों का प्रवास किया। लौटकर उसने एक कन्या पाठशाला प्रारम्भ की। इसमें बहुत कठिनाई आयी। लोग लड़कियों को पढ़ने भेजना ही नहीं चाहते थे। धन का भी अभाव था; पर वह अपने काम में लगी रही।

1899 में कोलकाता में प्लेग फैल गया। निवेदिता सेवा में जुट गयीं। उन्होंने गलियों से लेकर घरों के शौचालय तक साफ किये। धीरे-धीरे उनके साथ अनेक लोग जुट गये। इससे निबट कर वह विद्यालय के लिए धन जुटाने विदेश गयीं। दो साल के प्रवास में उन्होंने धन तो जुटाया ही, वहाँ पादरियों द्वारा हिन्दू धर्म के विरुद्ध किये जा रहे झूठे प्रचार का भी मुँहतोड़ उत्तर दिया।

वापस आकर वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी सक्रिय हुईं। उनका मत था कि भारत की दुर्दशा का एक कारण विदेशी गुलामी भी है। बंग भंग का उन्होंने प्रबल विरोध किया और क्रान्तिगीत ‘वन्दे मातरम्’ को अपने विद्यालय में प्रार्थना गीत बनाया। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। अथक परिश्रम के कारण वह बीमार हो गयीं। 13 अक्तूबर, 1911 को दार्जिलिंग में उनका देहान्त हुआ।

मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति बेलूर मठ को दान कर दी। उनकी समाधि पर लिखा है – यहाँ भगिनी निवेदिता चिरनिद्रा में सो रही हैं, जिन्होंने भारत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five + nineteen =