कैलाश पीठाधीश्वर स्वामी विद्यानन्द गिरि – 13 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

स्वामी विद्यानन्द गिरि

स्वामी विद्यानन्द गिरि

उत्तराखण्ड में चार धाम की यात्रा हरिद्वार और ऋषिकेश से प्रारम्भ होती है। प्रायः गंगा जी में स्नान कर ही लोग इस यात्रा पर निकलते हैं। गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और फिर बदरीनाथ भगवान के दर्शन कर यह यात्रा पूर्ण होती है। इसके बाद फिर से गंगा माँ का पूजन-अर्चन कर श्रद्धालु अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर अनेक आश्रम बने हैं, जहाँ तेजस्वी सन्त रहकर साधना करते हैं और देश-विदेश से आने वाले तीर्थयात्रियों को उचित सहयोग प्रदान करते हैं।

ऐसे ही प्रसिद्ध आश्रमों में ऋषिकेश का कैलास आश्रम भी है, जहाँ के अधिष्ठाता पूज्य स्वामी विद्यानन्द जी महाराज 13 दिसम्बर, 2007 को ब्रह्म मुहूर्त में अनन्त की यात्रा पर चले गये। स्वामी जी ने अपने सान्निध्य में कई विद्वान् एवं अद्वैत वेदान्त के मर्मज्ञ निर्माण किये। देश और विदेश में प्रवास करते हुए उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से प्रस्थान त्रयी (गीता, ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषद) को जन-जन तक पहुँचाया।

स्वामी जी का जन्म ग्राम गाजीपुर (जिला पटना, बिहार) में सन 1921 ई. में हुआ था। इनके बचपन का नाम चन्दन शर्मा था। स्वामी जी के समृद्ध एवं पावन परिवार की दूर-दूर तक बहुत ख्याति थी। ये अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन से ही सन्तों के प्रवचन और सेवा में उन्हें बहुत आनन्द आता था।

संस्कृत के प्रति रुचि होने के कारण इन्होंने स्वामी विज्ञानानन्द और स्वामी नित्यानन्द गिरि जी के सान्निध्य में गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों का गहन अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने अवधूत श्री ब्रह्मानन्द जी के पास रहकर पाणिनि की अष्टाध्यायी और इसके महाभाष्यों का अध्ययन किया।

इसके बाद और उच्च अध्ययन करने के लिए स्वामी जी काशी आ गये। यहाँ दक्षिणामूर्ति मठ में रहकर इन्होंने आचार्य, वेदान्त और सर्वदर्शनाचार्य तक की सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इसके बाद इन्होंने बिना किसी वेतन के वहीं अध्यापन किया। इनकी योग्यता और प्रबन्ध कौशल देखकर मठ के महामण्डलेश्वर स्वामी नृसिंह गिरि जी ने इन्हें अपने दिल्ली स्थित विश्वनाथ संस्कृत महाविद्यालय का प्राचार्य बनाकर भेज दिया।

इससे इनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। 1968 में इन्होंने आचार्य महेशानन्द गिरि जी से संन्यास की दीक्षा ली। अब इनका नाम विद्यानन्द गिरि हो गया। नृसिंह गिरि जी इन्हें दक्षिणामूर्ति मठ का महामण्डलेश्वर बनाना चाहते थे; पर किसी कारण से वह सम्भव नहीं हो पाया।

इधर सुयोग्य व्यक्ति के अभाव में कैलास आश्रम की गतिविधियाँ ठप्प थीं। ऐसे में उसके पीठाचार्य स्वामी चैतन्य गिरि जी की दृष्टि विद्यानन्द जी पर गयी। उनका आदेश पाकर स्वामी जी कैलास आश्रम आ गये और 20 जुलाई, 1969 को वैदिक रीति से उनका विधिवत अभिषेक कर दिया गया।

इसके बाद स्वामी जी ने लगातार 39 वर्ष तक आश्रम की गतिविधियों का कुशलता से स॰चालन किया। उन्होंने अनेक प्राचीन आश्रमों का जीर्णोद्धार और लगभग 125 दुर्लभ ग्रन्थों का प्रकाशन कराया। धर्म एवं राष्ट्र जागरण के लिए किये जाने वाले किसी भी प्रयास को सदा उनका आशीर्वाद एवं सहयोग रहता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के प्रति उनके मन में अतिशय प्रेम था। स्वामी जी की स्मृति को शत-शत प्रणाम।

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

two × five =