व्यवस्था के विशेषज्ञ जयप्रकाश जी _ 1 फरवरी पुण्य-तिथि

व्यवस्था के विशेषज्ञ जयप्रकाश जी _ 1 फरवरी पुण्य-तिथि

व्यवस्था के विशेषज्ञ जयप्रकाश जी _ 1 फरवरी पुण्य-तिथि

व्यवस्था के विशेषज्ञ जयप्रकाश जी 

श्री जयप्रकाश जी का जन्म 1924 में मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) में श्रीमती चंद्राकली की गोद में हुआ था। उनके पिता श्री भगवत प्रसाद रस्तोगी सरकारी सेवा में थे। जयप्रकाश जी से तीन बड़े भाई और भी थे। घर में पुश्तैनी रूप से कपड़े का व्यापार होता था। जयप्रकाश जी भी बचपन से दुकान पर बैठते थे। वहीं से उन्हें हिसाब-किताब को ठीक रखने की प्रवृत्ति प्राप्त हुई, जो आगे चलकर उनके प्रचारक जीवन में भी बनी रही।

जयप्रकाश जी की लौकिक पढ़ाई में कोई विशेष रुचि नहीं थी। इस कारण वे कक्षा पांच के बाद अपने घरेलू काम में लग गये। उन दिनों देश का वातावरण गरम था। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन विफल हो जाने के कारण युवाओं का विश्वास गांधी जी और कांग्रेस से उठ गया था। उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं का विस्तार हो रहा था। 1943 में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे मवाना में लगने वाली शाखा में जाने लगे।

धीरे-धीरे वे संघ की विचारधारा से इतने एकरूप हो गये कि उन्हें दुकान, मकान, नौकरी, घर, गृहस्थी आदि सब व्यर्थ लगने लगा। 1945 में उन्होंने घर छोड़ दिया और संघ की योजना से विस्तारक होकर परीक्षितगढ़ आ गये। संघ के वरिष्ठ अधिकारियों ने उनसे संघ कार्य के साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी करने को कहा। यद्यपि उनकी इच्छा नहीं थी, फिर भी आदेश का पालन करते हुए जयप्रकाश जी ने कक्षा बारह तक की शिक्षा पूर्ण की।

इसके साथ ही प्रचारक के नाते संघ का काम भी चलता रहा। जानसठ, खतौली, बुढ़ाना आदि में तहसील प्रचारक रहने के बाद वे फतेहाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद और फिर बुलंदशहर में जिला प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे मुजफ्फरनगर की जेल में रहे। 1971 के आपातकाल में बुलंदशहर में बस द्वारा प्रवास करते हुए वे पुलिस की पकड़ में आ गये और फिर ‘मीसा’ के अन्तर्गत उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। प्रतिबंध के बाद वे सहारनपुर में जिला प्रचारक बने। उन्हीं दिनों आगरा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नये प्रान्तीय कार्यालय का निर्माण होना था। व्यवस्था और हिसाब-किताब में जयप्रकाश जी की रुचि थी। अतः उन्हें आगरा कार्यालय का प्रमुख बनाया गया। इस दौरान उन्होंने नवीन कार्यालय ‘माधव भवन’ का निर्माण अपनी देखरेख में कराया। संघ द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सामाजिक कार्यों के लिए बनाये गये न्यासों के प्रबंधन को भी उन्होंने व्यवस्थित किया।

इस समय तक वे मधुमेह और हृदय रोग के शिकार हो गये। फिर भी पूरे प्रान्त में घूम कर वे व्यवस्था सम्बन्धी काम करते थे। शरीर ठीक रहने तक वे संघ शिक्षा वर्ग में प्रायः भोजनालय का काम देखते थे। बाद में वृद्धावस्था के कारण वे वर्ग के कार्यालय में बैठकर हिसाब संभालने लगे। 1989 में मेरठ प्रांत अलग होने पर उन्हें वहां बुला लिया गया। उन्होेंने यहां प्रान्तीय कार्यालय ‘शंकर आश्रम’ का पुनर्निमाण तथा प्राचीन शिव मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। वे केवल हिसाब ही नहीं रखते थे, तो धन संग्रह भी कराते थे। इस प्रकार वे व्यवस्था के हर पहलू के विशेषज्ञ थे।

एक फरवरी, 1999 को वे आगरा से मेरठ आने वाले थे। आगरा का एक कार्यकर्ता उन्हंे छोड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पर आया था। अचानक वहीं उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ। जब तक कोई सहायता मिलती, तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार संघ कार्य में अंतिम समय तक सक्रिय रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनयात्रा पूर्ण की।

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