गोविंदराव कुलकर्णी (अन्ना) 1945 में नागपुर से ही प्रचारक बने थे. प्रारम्भ में उन्हें महाराष्ट्र में ही भंडारा और फिर गोंदिया में जिला प्रचारक का काम दिया गया. 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध के समय वे उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में प्रचारक थे. प्रतिबंध समाप्ति के बाद उन्हें फिर महाराष्ट्र बुला लिया गया. वे विदर्भ में खामगांव, गोंदिया, भंडारा और नागपुर में नगर, जिला और विभाग प्रचारक जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों पर रहे.
गोविंदराव जी की कद-काठी बहुत प्रभावी थी. सोने में सुहागे की तरह वे खूब बड़ी-बड़ी मूंछें भी रखते थे. जब वे खाकी निकर पहन लेते थे, तो लोग उन्हें प्रायः पुलिस वाला समझते थे. इस विशेषता के कारण उनकी पुलिस वालों से दोस्ती भी बहुत जल्दी हो जाती थी. इसका उन्हें कई बार लाभ भी मिला. यात्रा करते समय कई बार बस और ट्रक वाले उनसे पैसे नहीं लेते थे. मार्ग में होटल वाले भी उन्हें बिना पैसे लिये ही खिला-पिला देते थे.
गोविंदराव जी चाय नहीं पीते थे. गोंदिया का एक युवा पुलिस कर्मी उनका मित्र बन गया था. एक बार वह रास्ते में मिल गया और बहुत आग्रह कर उन्हें एक होटल में ले गया. वस्तुतः उस दिन उसकी सगाई हुई थी. इससे वह बहुत प्रसन्न था और उन्हें चाय-नाश्ता करवाना चाहता था. गोविंदराव जी भी उसकी प्रसन्नता में सहभागी हुए और चाय के लिए मना नहीं किया.
संघ के काम में परिचय और मित्रता का बहुत महत्व है. गोविंदराव किसी से भी बहुत जल्दी मित्रता करने में माहिर थे. यात्रा में चलते-चलते वे लोगों से मित्रता कर लेते थे. कार्यालय पर उनसे मिलने सैकड़ों लोग आते थे. ऐसे लोग प्रायः संघ को बिल्कुल नहीं जानते थे. वे कार्यालय को उनका घर समझते थे, पर धीरे-धीरे गोविंदराव जी उन्हें भी स्वयंसेवक और कार्यकर्ता बनाकर उनका उपयोग संघ कार्य की वृद्धि में कर लेते थे. वे परिवारों की बजाय कमरा लेकर रहने वाले छात्रों के साथ भोजन करना पसंद करते थे. ऐसे अनेक छात्र आगे चलकर संघ के अच्छे कार्यकर्ता बने.
जब वे कार्यालय पर रहते थे, तो बालक मस्ती में वहां खेलते-कूदते और शोर करते रहते थे. गोविंदराव जी भी उनके बीच बच्चा बन जाते थे. एक बार उन्हें निर्धन छात्रों के एक छात्रावास के संचालन का काम दिया गया. उसके लिए उन्होंने घर-घर जाकर अनाज, धन तथा अन्य सामग्री एकत्र की, पर व्यवस्था पूरी होते ही वे फिर संघ शाखा के काम में ही वापस आ गये.
गोविंदराव पत्र-व्यवहार बहुत करते थे. उसमें पत्रांक, दिनांक आदि लाल स्याही से बहुत साफ-साफ अंकित रहता था. अतः कई लोग उनके पत्रों को संभाल कर रखते थे. इस माध्यम से भी उन्होंने अनेक लोगों को संघ कार्य की प्रेरणा दी. वे अपने पास आये हर पत्र का बहुत शीघ्र उत्तर देते थे.
उनका संपर्क का दायरा बहुत बड़ा था. सिन्धी समाज के लोग उन्हें ‘भैयाजी’ कहकर आदर देते थे. वे कहते थे कि हर कार्यकर्ता को प्रतिदिन एक नये व्यक्ति से परिचय करना चाहिए. वे स्वयं भी इसका प्रयास करते थे. अपने बड़े भाई और भाभी को वे माता-पिता के समान आदर देते थे. जीवन के संध्याकाल में उनके रहने की व्यवस्था लाखनी में की गयी, पर बीमार होते हुए भी वे आसपास सम्पर्क करने निकल जाते थे. ऐसे में लोगों को उन्हें ढूंढना पड़ता था. अत्यधिक बीमार होने पर उन्हें नागपुर लाया गया, जहां 17 अप्रैल, 2000 को उनका शरीरांत हुआ.