27 जून / पुण्यतिथि – कर्तव्य व अनुशासनप्रिय दादाराव परमार्थ

dadarav parmarthबात एक अगस्त, 1920 की है. लोकमान्य तिलक के देहान्त के कारण पूरा देश शोक में डूबा था. संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी किसी कार्य से घर से निकले. उन्होंने देखा कुछ लड़के सड़क पर गेंद खेल रहे हैं. डॉ. जी क्रोध में उबल पड़े – तिलक जी जैसे महान् नेता का देहान्त हो गया और तुम्हें खेल सूझ रहा है. सब बच्चे सहम गये. इन्हीं में एक थे गोविन्द सीताराम परमार्थ, जो आगे चलकर दादाराव परमार्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए.

दादाराव का जन्म नागपुर के इतवारी मौहल्ले में 1904 में हुआ था. इनके पिता डाक विभाग में काम करते थे. केवल चार वर्ष की अवस्था में दादाराव जी की मां का देहान्त हो गया. पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया. इस कारण से दादाराव को मां के प्यार के बदले सौतेली मां की उपेक्षा ही अधिक मिली. मैट्रिक में पढ़ते समय इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हो गया. साइमन कमीशन के विरुद्ध आन्दोलन के समय पुलिस इन्हें पकड़ने आयी, पर ये फरार हो गये. पिताजी ने इन्हें परीक्षा देने के लिए पंजाब भेजा, पर परीक्षा में उत्तर पुस्तिका अंग्रेजों की आलोचना से भर दी. ऐसे में परिणाम क्या होना था, यह स्पष्ट है.

दादाराव का सम्बन्ध भगतसिंह तथा राजगुरू से भी था. भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी के बाद हुई तोड़फोड़ में पुलिस इन्हें पकड़कर ले गयी थी. जब इनका सम्बन्ध डॉ. हेडगेवार जी से अधिक हुआ, तो दादाराव संघ के लिए पूरी तरह समर्पित हो गये. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारम्भ में डॉ. हेडगेवार जी के साथ काम करने वालों में बाबासाहब आप्टे तथा दादाराव परमार्थ प्रमुख थे. वर्ष 1930 में जब डॉ. साहब ने जंगल सत्याग्रह में भाग लिया, तो दादाराव भी उनके साथ गये तथा अकोला जेल में रहे.

दादाराव बहुत उग्र स्वभाव के थे. पर उनके भाषण बहुत प्रभावी होते थे. उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी. भाषण देते समय वे थोड़ी देर में ही उत्तेजित हो जाते थे और अंग्रेजी बोलने लगते थे. दादाराव को संघ की शाखाएं प्रारम्भ करने हेतु मद्रास, केरल, पंजाब आदि कई स्थानों पर भेजा गया. डॉ. हेडगेवार जी के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी. कानपुर में एक बार शाखा पर डॉ. जी के जीवन के बारे में उनका भाषण था, इसके बाद उन्हें अगले स्थान पर जाने के लिए रेल पकड़नी थी. पर, वे बोलते हुए इतने तल्लीन हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा, परिणामस्वरूप रेल छूट गयी.

वर्ष 1963 में बरेली के संघ शिक्षा वर्ग में रात्रि कार्यक्रम में डॉ. जी के बारे में दादाराव को बोलना था. कार्यक्रम का समय सीमित था. अतः वे एक घण्टे बाद बैठ गये, पर उन्हें रात भर नींद नहीं आयी. रज्जू भैया उस समय प्रान्त प्रचारक थे. दो बजे उनकी नींद खुली, तो देखा दादाराव टहल रहे हैं. पूछने पर वे बोले – तुमने डॉ. जी की याद दिला दी. ऐसा लगता है मानो बांध टूट गया है और अब वह थमने का नाम नहीं ले रहा. फिर कभी मुझे रात में इस बारे में बोलने को मत कहना.

दादाराव अनुशासन के बारे में बहुत कठोर थे. स्वयं को कितना भी कष्ट हो, पर निर्धारित काम होना ही चाहिए. वे प्रचारकों को भी कभी-कभी दण्ड दे देते थे, पर अन्तर्मन से वे बहुत कोमल थे. वर्ष 1963 में सोनीपत संघ शिक्षा वर्ग से लौटकर वे दिल्ली कार्यालय पर आये. वहीं उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया. इलाज के बावजूद 27 जून, 1963 को उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया.

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

5 × five =