किसी कविता संग्रह का शीर्षक था- लिखना कि जैसे आग. सच है, संभवत: अधिकांश लेखन को किसी न किसी गुण, किसी न किसी तत्व-गुण, रस या स्वभाव के साथ चिन्हित किया जा सकता है. लेकिन हमारे रज्जू भैया को नहीं. न पुस्तक आग है, न रज्जू भैया का जीवन वृतांत आग है. बल्कि उसमें आग, पानी, गगन, वायु और क्षिति सभी कुछ है. शायद इसका कारण इस पुस्तक की विषयवस्तु- पूर्व सरसंघचालक रज्जू भैया ही हैं. रज्जू भैया का जैसा व्यक्तित्व इस पुस्तक में सामने आता है, वह कभी बेहद भावप्रवण हो जाता है, कभी बेहद उद्देश्यपरक, कभी नितांत सहज. कभी वह शेर से भी नहीं डरने वाले व्यक्ति के रूप में नजर आते हैं, तो कभी एक बालक की नींद खुलने से भी संकोच करने वाले. कभी वह शीर्ष वैज्ञानिकों की कतार में या उसकी संभावनाओं में नजर आते हैं, तो कभी गौरव सिंह बन कर पेश होते हैं. कभी उनके तीखे तार्किक सवाल सामने होते हैं, तो कभी उनका हास्य बोध. यह पुस्तक पढ़ी जायेगी और इसका प्रत्येक पाठक संभवत: एक से सवा दिन में ही इसे पढ़ डालेगा. कारण बहुत स्पष्ट और बहुत गंभीर है. बात सिर्फ लेखन शैली की नहीं है, लेकिन पहले एक बात लेखन शैली की करनी होगी. बहुत सहज भाषा, बहुत सहज प्रस्तुति और किसी भी मोड़ की, किसी भी विषय की जटिलता में उलझ कर जरा भी न रुकने वाला लेखन. अब आते हैं, इसकी पठनीयता के मूल कारणों पर.
सर्वप्रथम अगर आप संघ से, संघ के विचारों से और संघ से जुड़े लोगों से कोई विशेष सरोकार नहीं रखते, तो यह पुस्तक एक ऐसी कौतूहल यात्रा है, जो एक ग्रामीण परिवेश के साधारण बालक से शुरू होती है और सरसंघचालक के सम्मान तक जाती है. बाकी बातें छोडि़ये, पुस्तक कई बार सिखाती गुजर जाती है कि संतान के प्रति एक माता के दायित्वों का निर्वहन कैसे होना चाहिये, पिता के दायित्वों का निर्वहन कैसे होना चाहिये, कोई छात्र, कोई शिक्षक, कोई सहपाठी, कोई मित्र कैसा होना चाहिये, अभावों में आगे कैसे बढ़ा जा सकता है, जीवन में संस्कारों और संकल्प-शक्ति का कितना महत्व होता है, आपके मित्र कौन हैं, कैसे हैं- यह आपके लिये कितना महत्वपूर्ण होता है. आपकी सोचने-समझने की मौलिक क्षमता जीवन में कितनी कारगर होती है. देश से प्रेम कैसे किया जाता है, अनुशासन और सहजता कैसे अपनाई जा सकती है- और ये सारे वे पक्ष हैं, जिनका महत्व हर व्यक्ति के लिये होता है. आप संघ से बेशक दूर बने रहें, लेकिन रज्जू भैया पर इस पुस्तक से जीवन जीना जरूर सीख सकते हैं, अपनी अगली पीढ़ी को सिखा सकते हैं. कौतूहल का दूसरा आयाम उन लोगों के लिये है, जो रज्जू भैया के जीवन को कुछ अधिक निकटता से देखना चाहते हैं, उससे कुछ ग्रहण करना चाहते हैं. संभवत: एक स्वयंसेवक के नाते या संघ के प्रति अनुराग के नाते. पुस्तक उनके लिये भी कारगर है. यहां इस पुस्तक से कुछ ग्रहण करने के लिये पीढि़यों और परिस्थितियों का बदलाव उसमें स्वयं जोड़ना होगा, लेकिन चारित्रिक, वैचारिक और सांगठनिक शैली की जो रेखायें रज्जू भैया ने खींची थीं, उन्हें दोहराना इस पुस्तक के माध्यम से बहुत सहज हो जाता है.
कौतूहल का तीसरा आयाम वह है, जो संभवत: शोधार्थियों के लिये महत्वपूर्ण है.
समकालीन भारत को समझने के उत्सुक किसी भी व्यक्ति के लिये रज्जू भैया संभवत: असंख्य प्रश्नों के उत्तर थे, जो स्वयं उन प्रश्नों पर, कम से कम सार्वजनिक तौर पर, बिल्कुल मौन रहते थे. उदाहरण के लिये अयोध्या आंदोलन में संघ की भूमिका और विशेष तौर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पी़वी़ नरसिंहराव के चिंतन को लेकर कांग्रेस मानस के कई लोगों के मन में असंख्य कौतूहल हैं. जैसे कि यह कि 3 दिसम्बर की तारीख, छह दिसम्बर होने के बजाय सीधे 11 दिसम्बर कैसे हो गई? रज्जू भैया के शरीर त्यागने पर समकालीन इतिहास के वे कई अध्याय शायद हमेशा के लिये बंद हो गये थे, जिनमें रज्जू भैया न केवल अहम गवाह थे, बल्कि कई बार मुख्य भूमिका में भी थे. लेकिन इस पुस्तक ने भी उन तमाम राजनीतिक, ऐतिहासिक प्रश्नों को ऐसे ही अनछुआ छोड़ दिया है. हां, आपातकाल की चर्चा अवश्य थोड़े विस्तार में हुई है, लेकिन वह भी इतिहास के किसी छात्र को बहुत संतुष्ट करती होगी, इसमें संदेह है.
जिस पुस्तक के दोनों लेखक श्री देवेन्द्र स्वरूप और श्री ब्रजकिशोर शर्मा- स्वयं इतिहास के विद्वान हों, वह पुस्तक इतिहास के छात्रों को पूरी तरह निराश भी नहीं करती. कुछ बातें, बहुत बारीकी से, पुस्तक की काया में ऐसी निहित हैं कि अगर बाल की खाल निकाली जाये, तो इतिहास के कई अध्याय उनमें निहित मिलेंगे. जवाहरलाल नेहरू के जनसभा में झुंझलाने और मंच से उतरने तक के उद्धृरण, स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन से निकले होने के बजाय संघ पर दमनचक्र चलाने का प्रसंग किसी शोधार्थी को प्रेरित कर सकता है. एक बहुत बारीक प्रसंग है- आजादी के (तुरंत) बाद संघ को कांग्रेस से कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन कांग्रेस को संघ से थी. एक और ऐसा ही संकेत है- लालबहादुर शास्त्री को ताशकंद न जाने की सलाह देने के असफल प्रयास को लेकर. गौर से सुनिये, पुस्तक में संकेत है कि राष्ट्रीय सिख संगत के गठन को पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का आशीर्वाद प्राप्त था. हालांकि गृहमंत्री के तौर पर, जैसे केरल में मस्जिदों के नाम पर आ रहे विदेशी चंदे के आगे ज्ञानी जैलसिंह की असमर्थता को लेकर उनकी प्रत्यक्ष आलोचना भी इसमें है. लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी से लेकर आगे के कई नेताओं तक, पुस्तक ने उनका जिक्र करते हुए स्वयं को अपने मूल विषय से भटकने नहीं दिया है.
फिर भी, यह पुस्तक रज्जू भैया के जीवन की एक भूमिका मात्र है. विदेश यात्रा करने वाले प्रथम सरसंघचालक रज्जू भैया, फ्रैंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल का गठन करवाने वाले रज्जू भैया, हिन्दू फंडामेंटलिस्ट कहे जाने पर बीबीसी को झाड़ पिलाने वाले रज्जू भैया, साधारण स्वयंसेवकों के लिये सहज उपलब्ध रज्जू भैया, नित नया कुछ करने वाले, करने की प्रेरणा देने वाले रज्जू भैया, अपने हाथों में एक नोटबुक रखने वाले और चिंतनशील अवस्था में भी प्रत्यक्ष तौर पर मुस्कुराते-बात करते रज्जू भैया सरीखे असंख्य आयामों का इसमें उल्लेख या तो नहीं है, या बहुत क्षीण रूप में है. आत्मकथा शैली में, आत्मकथात्मक पक्षों के साथ, संस्मरणों और टिप्पणियों को समाहित करती यह पुस्तक पूर्व सरसंघचालक रज्जू भैया के व्यक्तित्व से गहराई से परिचय तो कराती है, लेकिन यह निश्चित रूप से उनकी जीवनी की श्रेणी में नहीं रखी जानी चाहिये. फिर भी रज्जू भैया के जीवन परिचय के रूप में यह संभवत: पहली पुस्तक है, और इस नाते, इसमें कमियां होना पूरी तरह स्वाभाविक है. पुस्तक कहीं भी बहुत भावुक होने या पाठक को भावुक करने के पक्ष में नजर नहीं आती है. लेकिन अगर आप स्वयं में भावुक हैं, तो इसे पढ़ते समय नोटबुक के अलावा रूमाल भी साथ रखें. अच्छा रहेगा. चित्र संग्रहणीय हैं. जो एक-दो प्रकरण स्वयं को दोहराते नजर आते हैं, वे संभवत: इसके भावी संस्करणों में स्वयं को सीमित कर लेंगे, लेकिन उतना इंतजार करने में कोई लाभ नहीं है. -ज्ञानेंद्र बरतरिया
पुस्तक का नाम – हमारे रज्जू भैया
लेखक – देवेंद्र स्वरूप एवं ब्रजकिशोर शर्मा
प्रकाशक – प्रभात प्रकाशन, 4/11, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110002
ISBN: 9789350489918
मुद्रक – भानु प्रिंटर्स, दिल्ली
मूल्य – पांच सौ रुपए