मणिकर्णिका—-एवं नमन उस मिट्टी को जहां मणिकर्णिका ने जन्म लिया
और कोटि कोटि नमन मणिकर्णिका को जिसने भारत को धन्य किया।
फिल्म मणिकर्णिका अमिताभ बच्चन की ओजमयी वाणी के साथ शुरू होती है जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की कुटिल नीतियों द्वारा भारत के राज्यों को हड़पने का वर्णन है और कुछ ही पलों में दर्शकों को काशी के घाट पर मोरोपंत तांबे की नवजात कन्या मणिकर्णिका के दर्शन होते हैं। शीघ्र ही अतुल्य और विलक्षण मणिकर्णिका के रूप में कंगना राणावत शेर का शिकार करती हुई सभी को सम्मोहित कर लेती हैं। कंगना स्वयं भी क्रांतिकारी स्वभाव की हैं और उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई को सजीव चरितार्थ किया है। कंगना के आगे फिल्म उद्योग के डैनी (गौस खां), कुलभूषण खरबंदा (दीक्षित जी), सुरेश ओबराय (पेशवा जी) और अतुल कुलकर्णी (तात्या टोपे) आदि नेपथ्य में छुपे लगते हैं।
पटकथा प्रभावशाली है सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का ज़िक्र किया गया है। प्रसून जोशी के संवाद और गीत देश भक्ति जागृत करते हैं। फिल्म हिन्दू मुस्लिम एकता को दर्शाती है।
फिल्म का सुन्दरतम गीत
‘देश से है प्यार तो हरपल ये कहना चाहिए
मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए’
यह सभी देशवासियों को जीवन का परम लक्ष्य देता है कि भारत वर्ष सर्वोपरि है।
है मुझे सौगंध भारत भूलूं न इक क्षण तुझे
रक्त की हर बूंद तेरी है तेरा अर्पण तुझे।…
प्रसून जोशी ने अद्भुत सृजन किया है। कुल मिलाकर यह फिल्म महारानी जी और उनकी प्रजा की उत्कृष्ट देश भक्ति को नमन करती है।
किंतु…. डॉ वृंदावन लाल वर्मा की पुस्तक : महारानी लक्ष्मीबाई से फिल्म के निर्माता और निर्देशक अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक महारानी के ऊपर लिखी गई सर्वोत्तम रचना है। वृंदावन लाल वर्मा झांसी में जन्मे और पले बढ़े थे। उनकी दादी ने महारानी झांसी को देखा था और 1857 की क्रांति की साक्षी थीं। वर्मा जी 1857 में जीवित कुछ अन्य लोगों से भी मिले थे जिनमें से एक थीं झलकारी कोरिन उनका चेहरा महारानी से मिलता था। अंग्रेज़ों ने रानी समझकर उन्हें पकड़ा था। उनके इस कृत्य से महारानी अपने पुत्र को लेकर सुरक्षित कालपी निकल सकीं थीं।
वर्मा जी के अनुसार महारानी बहुत ही अनुशासित जीवन जीतीं थीं। प्रातः 4 बजे उठकर गीता पाठ फिर व्यायाम एवं घुड़सवारी करतीं थीं।
ग्वालियर विजय के पश्चात् अंतिम युद्ध लड़ते हुए महारानी सोनरेखा नाले की तरफ गयी थीं जहां पर लड़ते हुए वो वीरगति को प्राप्त हुईं थीं जहां पर उनके विश्वास पात्र योद्धा ने उनकी चिता को अग्नि दी थी और समाधि भी बनाई थी। दामोदर राव को उनके विश्वासपात्र सुरक्षित ले गए थे जिनके वंशज इंदौर में हैं। गौस खां जो रानी के अभिन्न विश्वासपात्र थे। उनकी समाधि झांसी के किले में है और उनके पठान सहयोगी जो रानी के अंतिम क्षणों तक उनके साथ थे।
भानुजा श्रुति।