लिपस्टिक अण्डर माय बुर्खा -एक प्रेम कथा

फिल्म समीक्षा - लिपस्टिक अण्डर माय बुर्खा

फिल्म समीक्षा – लिपस्टिक अण्डर माय बुर्खा

जैसी सार्थक और मनोरंजक फिल्में बनने का दौर अब भारत में इसलिये रफ्तार पकड़ रहा है कि दर्शकों का जीवनके प्रति दृष्टिकोण थोड़ा और विस्तृत हुआ है। दर्शक समाज को संदेश देने वाली फिल्मों को भी स्वीकार करने लगे हैं। ऐसे में -जब भारत बदलाव की बहार से गुजर रहा है -के साथ साथ से फिल्म निर्माण और कला के क्षेत्र में भी सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखने को मिल रही है।

इस्लामिक मान्यताओं और जीवन पद्धति से जकड़ी करोड़ों-करोड़ों महिलाओं की स्थित व मुक्ति की आस इस फिल्म में दिखाई देती है । काले बुर्खे के भीतर रंगीन, चमक-दमक भरे कपड़े पहनना दर्शाता है कि महिलाओं के स्त्रेण स्वभाव का दमन जो 1400 सालों से चला आ रहा है वह थोपा हुआ है। सारी ही महिलाओं को एक जैसा वेष पहनाकर शरीयत के उसूलों की पूर्ति का साधन बना दिया गया है।

कट्टर व पिछड़ी मानसिक्ता के फौलादी शिंकजे से यह महिलायें, मानवता को आजाद करवा सकती है। लिपस्टिक अण्डर माय बुर्खा फिल्म प्रकाश झा प्रोडेक्शनस् की फिल्म है जिसमें इस्लाम में पुरूषों को दी गयी असीमित स्वतंत्रता और स्त्रियों को हर कदम पर दी गयी बन्दिशों का सटीक चित्रण है। इस प्रकार के असन्तुलित सामाजिक और पारिवारिक ढांचे के कारण मुस्लिम माहिलाओं ने बहुत त्रासदी झेली है।

भोपाल शहर में जर्जर सी हवेली में रहने वाली चार स्त्रियाँ अपनी परिस्थितियों के कारण सम्बन्धों में निकट आती है। निर्देशिका ने उस हवेली का नाम ‘‘हवाई मंजिल’’ रखा है। उसमें रहने वाली चारों महिलाएँ हवाई सपने ही देखती है। हालांकि बुर्खा पहनकर महिलायें दुकानों मेें से सामान चुरा सकती है, किन्तु यह बुर्खा उनसे उनका सारा जीवन ही चुरा लेता है।

नाटकीयता हास परिहास से भरपूर फिल्म की रूचिकर कहानी दर्शकों को बांधे रखने में सफल है। पांथिक रूढ़ियों के बीच अलग-अलग आयु की चार महिलाओं के सपनों, कामनाओं और इच्छाओं की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। कहानी और अभिनय में फूहडपन या भौंडापन है एसा नहीं कहा जा सकता। रत्ना पाठक शाह और कोंकना सेन का अनुभवी सधा हुआ अभिनय और नयी अभिनेत्री प्रबिता बोर्थाकर और अहाना कुमरा की नवीनता फिल्म को आगे ले जाती है।

दो घण्टे लम्बी फिल्म दमित महिलाओं के दयनीय चित्रण की खुली अभिव्यक्ति, मन की कोमलता का हास्य के साथ चित्रण है। एक अनकही मित्रता की डोर से बधीं चारो स्त्रियाँ, अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिये संघर्ष करती है, हालांकि इसे वे आस-पास के सभी लोगों से छिपाये रखने में भी सफल होती है तो क्या दोहरा जीवन जीना भी सन्तुष्टि की कुंजी है?

महिलाओं के सिगरेट पीने, शराब पीने, अश्लील साहित्य पढ़ने या दुकानों में से चोरी करने को महिला स्वतंत्रता (विमेन लिब) माने या स्वच्छंदता अथवा बन्द सामाजिक ढांचे के प्रति विद्रोह? दमन से महिलायें छुटकारा चाहती है। उनकी अपनी इच्छायें है, सपने है, कामनायें है, जिनका पाना चाहती है। जीवन के साथ अपने तरह से प्रयोग करना चाहती है। मजहबी रूढ़ियों की थोपी हुई गुलामी और दबावों से मुक्त होकर सांस लेना चाहती है।

सदियों से दमित अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना चाहती है। क्या यह नये समाज के उदय की तैयारी तो नहीं? फिल्म की निर्देशिका अलंकिृता श्रीवास्तव ने ऐसे विषय को उठाकर साहस का परिचय दिया है, जिसे हमारी सामाजिक अभिव्यक्तियों में लगभग भुला दिया गया है। इनमें एक महिला रेहाना है, तीन बच्चो की माँ, जिसका पति साऊदी अरब से लौटकर आया है, अब बेरोजगार है। मध्ययुगीन मजहबी मान्यता वाला है।

उसकी नजरों में घर की महिला से बुरा बर्ताव, मार-पीट जीवन भरा रोज का हिस्सा है इस कारण गहरे अवसाद में जीना उनकी नियति है ऐसी विकट परिस्थिति में रेहाना अपने आपको संभालते हुये, पति से छिपकर, बिना बताये, घर-घर जाकर सेल्सवूमन का काम करने लगती है। हवाई मंजिल में रहने वाली अपनी अन्य सहेलियों की तरह ही, अपने भीतर अपना जीवन खोजने की तलाश करती है। लिपिस्टिक अण्डर माय बुर्खा जैसी फिल्म साधरण होते हुए भी रोचक है।

एक अच्छी कहानी को लेकर बनाई यह फिल्म हर सिने-प्रेमी को रूढ़ियों से बाहर आते भारत की यह फिल्म देखनी चाहिए।

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