पांचाल क्षेत्र में क्रान्ति के संचालक नवाब खान

पांचाल क्षेत्र में क्रान्ति के संचालक नवाब खान – 24 मार्च बलिदान-दिवस

पांचाल क्षेत्र में क्रान्ति के संचालक नवाब खान - 24 मार्च बलिदान-दिवसउत्तर प्रदेश में बरेली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र पांचाल क्षेत्र कहलाता है। जन मान्यता यह है कि महाभारत काल में द्रौपदी (पांचाली) का स्वयंवर इसी क्षेत्र में हुआ था। आगे चलकर विदेशी मुस्लिम रुहेलों ने इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया, इससे यह क्षेत्र रुहेलखण्ड भी कहलाया। जब 1857 की क्रान्ति का बिगुल बजा, तो यहाँ के नवाब खान बहादुर ने नाना साहब पेशवा की योजना से निर्धारित दिन 31 मई को ही इस क्षेत्र को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा लिया। रुहेले सरदार हाफिज रहमत खान के वंशज होने के कारण इनका पूरे क्षेत्र में बहुत दबदबा था। इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें मानद न्यायाधीश (नेटिव जज) बना दिया। रुहेले सरदार के वंशज और जज होने के कारण उन्हें दुगनी पेंशन मिलती थी।

खान बहादुर पर एक ओर अंग्रेजों को पूरा विश्वास था, तो दूसरी ओर वे गुप्त रूप से क्रान्ति की सभी योजनाओं में सहभागी थे।  उस समय बरेली में आठवीं घुड़सवार, 18वीं तथा 68वीं पैदल रेजिमेण्ट के साथ तोपखाने की एक इकाई भी तैनात थी। जब 10 मई को मेरठ से विद्रोह प्रारम्भ हुआ, तो खान बहादुर ने सैनिकों को 31 मई तक शान्त रहने को कहा। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को यह विश्वास दिला दिया कि ये सैनिक कुछ नहीं करेंगे। 31 मई को रविवार होने के कारण अधिकांश अंगे्रज चर्च गये थे। जैसे ही 11 बजे तोप से गोला छोड़ा गया, सैनिकों ने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। चुन-चुनकर उन्हें मारा जाने लगा। अनेक अंग्रेज जान बचाने के लिए नैनीताल भाग गये। शाम तक पूरा बरेली शहर मुक्त हो गया। इसी दिन शाहजहाँपुर और मुरादाबाद में तैनात 29वीं रेजिमेण्ट ने भी क्रान्ति कर पूरे पांचाल क्षेत्र को एक ही दिन में मुक्त करा लिया।

खान बहादुर ने स्वदेशी शासन स्थापित करने के लिए सेनापति बख्त खान के नेतृत्व में 16,000 सैनिकों को क्रान्तिकारियों का सहयोग करने के लिए दिल्ली भेजा। राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिए 5,000 अश्वारोही तथा 25,000 पैदल सैनिक भी भर्ती किये। दस माह तक पांचाल क्षेत्र में शान्ति बनी रही। इनकी शक्ति देखकर अंग्रेजों की इस ओर आने की हिम्मत नहीं पड़ी। फरवरी, 1858 में लखनऊ तथा कानपुर अंग्रेजों के अधीन हो गये। यह देखकर 25 मार्च को नाना साहब बरेली आ गये।

इसके बाद अंग्रेजों ने इस क्षेत्र पर फिर कब्जा करने का प्रयास आरम्भ किया। प्रधान सेनापति कैम्पबेल ने चारों ओर से हमला करने की योजना बनायी। पहले आक्रमण में अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ी। उसका एक प्रमुख नायक जनरल पेनी भी मारा गया। पर क्रान्तिवीरों की शक्ति बँटी हुई थी। यह देखकर खान बहादुर ने पूरी सेना को बरेली बुला लिया। 5 मई, 1858 को नकटिया नदी के पास इस देशभक्त सेना ने अंगे्रजों पर धावा बोला। दो दिन के संघर्ष में अंग्रेजों की भारी पराजय हुई। दूसरे दिन फिर संघर्ष हुआ; पर उसी समय मुरादाबाद से अंग्रेज सैनिकों की एक टुकड़ी और आ गयी। इससे पासा पलट गया और 6 मई, 1858 को बरेली पर अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया।

खान बहादुर और कई प्रमुख क्रान्तिकारी पीलीभीत चले गये। वहाँ से वे लखनऊ आये और फिर बेगम हजरत महल के साथ नेपाल चले गये; पर वहाँ राणा जंगबहादुर ने उन्हें पकड़वा दिया। अंग्रेज शासन ने उन पर बरेली में मुकदमा चलाया और 24 मार्च, 1860 को बरेली कोतवाली के द्वार पर उन्हें फाँसी दे दी गयी।

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