केरल में बड़े पैमाने पर रोहिंग्याओं की भरमार, वोट बैंक के लालच में दी जा रही शह

आखिरकार 4 अक्तूबर को वकील प्रशांत भूषण की रोहिंग्या घुसपैठियों को (देश में बनाए रखने को) लेकर दायर याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे में दखल देने से इंकार कर दिया। अब केन्द्र सरकार के सामने इन घुसपैठियों को इनके देश वापस भेजने का रास्ता और साफ हो गया है। वोट बैंक के लालची नेता रोहिंग्याओं को यहां बसाने की वकालत करते रहे हैं। लेेकिन, नरेंद्र मोदी सरकार भारत में घुस आए लगभग 50,000 रोहिंग्या मुस्लिमों के निर्वासन अपने फैसले पर अडिग है। भूषण की याचिका के संदर्भ में भारत के अतिरिक्त महान्यायवादी तुषार मेहता ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ को बताया था कि ‘हम शरणार्थियों की राजधानी नहीं बनना चाहते। अगर इस मांग को मान लिया जाएगा तो वही होगा, जिसकी आशंका है।’
लेकिन, रोहिंग्याओं के संबंध में एक और बात सामने आई है जो हैरान करने वाली है। यह है एक चिट्ठी, जिसमें चेन्नई के रेलवे सुरक्षा बल के प्रधान मुख्य सुरक्षा आयुक्त ने अपने सहयोगियों को संबोधित करते हुए कहा है कि रोहिंग्या बड़ी संख्या में विभिन्न रेलगाडि़यों से केरल पहुंच रहे हैं। वे उत्तर-पूर्वी राज्यों के हर कोने से आ रहे हैं। इस पत्र में उन रेलगाडि़यों की सूची भी दी गई है जिनसे वे केरल का रुख कर रहे हैं।
इसमें कहा गया है कि रोहिंग्या अपने परिवारों के साथ समूहों में यात्रा करते हैं। चिट्ठी में उन अधिकारियों और उनके अधीन कार्यरत कर्मचारियों को रोहिंग्याओं की गतिविधियों के बारे में सतर्क रहने और वे कहां-कहां जा रहे हैं, उस पर नजर रखने का निर्देश दिया गया है। यह भी कहा गया है कि वे जहां भी दिखें, उन्हें उसी जगह की पुलिस को सौंपकर आगे की कार्रवाई की जाए और उस कार्रवाई की रिपोर्ट रेलवे सुरक्षा बल के मुख्य सुरक्षा आयुक्त के पास भेजी जाए।
उधर म्यांमार ने कहा है कि उसकी सेना सुरक्षा ठिकानों और सैन्य शिविरों पर किए गए गुरिल्ला हमलों के बाद स्थिति को सामान्य करने में जुटी है जिनमें करीब दर्जनभर लोग मारे गए थे। प्रशांत भूषण रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार वापस भेजने के केंद्र के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका दायर करने वाले मुख्य याचिकाकर्ता मोहम्मद सलीमुल्लाह और मोहम्मद शकूर की ओर से दलील पेश कर रहे हैं। उन्होंने खंडपीठ को बताया कि ‘उत्पीड़न और नरसंहार का सामना कर रहे रोहिंग्या मुसलमानों में से 20 प्रतिशत अब भी वहीं फंसे हैं’।
न्यायमूर्ति डी़ वाई. चंद्रचूड़ ने जब हस्तक्षेप करते हुए कहा कि शरणार्थी संरक्षण सिद्धांत के अनुसार शरणार्थियों को ऐसे देश में नहीं भेजा जा सकता जहां उनके जीवन को खतरा हो, तो उन्होंने जवाब दिया कि ”यह केवल उन लोगों के लिए लागू होता है जो पहले से ही यहां हैं, उन पर नहीं जो जाना नहीं चाहते”। भूषण की यह दलील, उनके छद्म सेकुलरवाद की पोल खोलता है। उन्होंने रोहिंग्याओं के पैराकार की तरह रोना रोया कि भारत सरकार अन्य देशों से हिंदुओं, सिखों और अन्यों के आने का स्वागत तो कर रही है, पर मुसलमानों से परहेज कर रही है।
उधर अतिरिक्त महान्यायवादी ने तर्क दिया कि ”आदर्श रूप से देखा जाए तो अदालत को इन मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये मुद्दे कार्यकारी स्तर पर राजनयिक रूप से तय किए जाएंगे। ये देश के बड़े हित में लिए गए नीतिगत
निर्णय हैं।”
भारत सरकार ने जिन बिन्दुओं की ओर इशारा किया, उनमें यह बात शामिल है कि ”देश की सुरक्षा पर सिर्फ इस बात का ही खतरा नहीं कि रोहिंग्याओं के तार पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों और आईएसआईएस से जुड़े हैं, बल्कि उनकी उपस्थिति देश के कई राज्यों के जनसांख्यिक स्वरूप में भी आमूल परिवर्तन का कारण बन सकती है।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल म्यांमार की अपनी यात्रा के दौरान वहां के शीर्ष नेताओं के साथ भारत में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा उठाया था।
अपनी यात्रा के अंत में जब प्रधानमंत्री ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी बहादुरशाह जफर की कब्र पर जाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की तो उस जगह पर म्यांमार की स्टेट काउंसलर और नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की नेता आंग सान सू की ने रोहिंग्या संकट के बारे में कहा था,”हमें सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। लेेकिन यह पूर्व औपनिवेशिक काल में जन्मी समस्या है, लिहाजा 18 महीने में इसका समाधान मुश्किल था।”
केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने उस दौरान सरकार के रुख को दोहराते हुए एमनेस्टी इंटरनेशनल की टिप्पणियों के जवाब में कहा था,”मैं अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बताना चाहता हूं कि रोहिंग्या संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के तहत पंजीकृत नहीं हैं। वे भारत में घुसपैठिए ही हैं।” रोहिंग्या म्यांमार के अराकान क्षेत्र के राखाइन प्रांत से आए मुसलमान हैं। उनमें से सिर्फ 40,000 को उस देश की नागरिकता मिली हुई है।
मूलत: बांग्लादेश के निवासी होने से उनकी पहचान बंगाली के तौर पर भी होती है। म्यांमार के 1982 के नागरिकता कानून के तहत उन्हें जातीय समूह के रूप में पहचान नहीं दी गई है। इसलिए वे पिछलेे 35 वर्षों से राज्य-विहीन समुदाय हैं। जब सरकार ने उन्हें निर्धारित समय सीमा के अंदर बंगाली के रूप में अपनी पहचान साबित करने के लिए कहा तो वे असफल रहे, क्योंंकि उनके पास उपयुक्त दस्तावेज नहीं थे।
बहरहाल, रेलवे सुरक्षा बल के प्रधान मुख्य सुरक्षा आयुक्त के पत्र में स्थिति की गंभीरता और संवेदनशीलता की ओर इशारा किया गया है। हम बीते दिनों की तरह राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के मूक दर्शक बनकर नहीं बैठे रह सकते।
टी. सतीसन
sabhar Panchjanya

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