दो विधर्मी फकीरों की गद्दारी : अयोध्या आंदोलन – 5

सम्पूर्ण भारत के भूगोल, इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर को बर्बाद करने के उद्देश्य से विदेशी हमरावरों ने जो हिंसक रणनीति अपनाई थी उसी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों को तोड़ना और अत्यंत अपमानजनक हथकंडे अपना कर भारत के राष्ट्रीय समाज का उत्पीड़न करना। इसी अमानवीय व्यवहार के अंतर्गत हजारों मंदिर टूटे, ज्ञान के भंडार विश्वविख्यात विद्या परिसर जले, अथाह धन सम्पदा लूटी गई, युवा कन्याओं को गुलाम बनाकर विदेशी बाजारों में बेचा गया, लाखों लोग तलवार के जोर पर मतांतरित किए गए। परिणामस्वरूप विश्व गुरु भारत की धरती पर कई इस्लामिक देश अस्तित्व में आ गए।

विधर्मी आक्रमणकारियों द्वारा अपनाई गई इस रणनीति के लम्बे चौड़े इतिहास का ही एक अध्याय है, श्रीराम जन्मभूमि पर बने मंदिर का विध्वंश। भारत राष्ट्र के चेतना स्थल और हृदय अयोध्या में सरयु नदी के तट पर शोभायमान भव्य श्रीराम मंदिर को गिराकर उसी के मलबे से वहीं पर थोप दिए गए एक आधे अधूरे ढांचे का भी एक दिलचस्प इतिहास है, जिससे हिन्दुओं की उदारता, कट्टर मुसलमानों के षड्यंत्र और विदेशी आक्रांताओं के नापाक इरादों का एकसाथ परिचय मिलता है।

सरयु नदी के तट पर एक हिन्दू योगी स्वामी श्यामानंद का आश्रम था। यह स्वामी जी एक सिद्ध पुरुष थे। इन्होंने अपने प्रभाव से अनेक लोगों को हिन्दुत्व अर्थात भारतीय तत्वज्ञान के प्रचार प्रसार में लगा दिया। अयोध्या में श्रीराम मंदिर की व्यवस्था इन्हीं की देखरेख में होती थी। स्वामी जी ने सभी मजहबों एवं वर्गों के लोगों को योगसाधना में दीक्षित किया।

इसी क्षेत्र में एक मुसलमान फकीर ख्वाजा अब्बास मूसा आशिकान भी सक्रिय था। वह भी स्वामी श्यामानंद की यश कीर्ति सुनकर उनके आश्रम में जा पहुंचा। कई दिन आश्रम में रहकर हिन्दू महात्मा द्वारा किए जाने वाले निर्मल और निश्चल अतिथि सत्कार का पूरा आनंद लेता रहा। इसने विधिवत स्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। स्वामी जी ने इस फकीर को अपने ही आश्रम में एक सुन्दर स्थान देकर स्थायी रूप से रहने की सभी सुविधाएं दे दीं।

हिन्दू तत्वज्ञान की विशालता इसी एक बात से सिद्ध होती है कि स्वामी श्यामानन्द ने इस मुसलमान फकीर को हिन्दू नहीं बनाया। हिन्दू जीवन प्रणाली इतनी वैज्ञानिक है कि इसे अपनाने के लिए किसी को अपना मजहब छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। योगसाधना तो प्राणीमात्र के कल्याण का एक मार्ग है, जिसे कोई भी मतावलम्बी अपना सकता है। इसमें पूजा पद्धति का कोई बंधन नहीं होता।

ख्वाजा अब्बास मूसा ने अल्लाह-अल्लाह के जप के साथ योग साधना सीख ली। कालांतर में यह मुस्लिम फकीर भी स्वामी श्यामानंद का शिष्य होने के कारण पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गया। परन्तु इसकी मनोवृति में अपने मुसलमान होने का जुनून और अहंकार नहीं मिट सका। उसके लिए ‘जो मुसलमान नहीं है वह तो काफिर है, इन मूर्तिपूजकों को किसी भी तरीके से मुसलमान बनाना अथवा समाप्त कर देना यही पवित्र कार्य था, इसी से अल्लाह प्रसन्न होता है’।

एक मतान्ध मुसलमान की तरह ख्वाजा अब्बास मूसा भी दूसरों के पूजा स्थलों को कुफ्र के अड्डे समझता रहा। श्रीराम जन्मभूमि पर बना हुआ विश्वप्रसिद्ध राम मंदिर भी इस मुस्लिम फकीर की आंखों में खटकता रहा। जिस थाली में खाता रहा उसी में छेद करने के षड्यंत्र उसके दिमाग में उभरने लगे। जिस व्यक्ति के आर्शीवाद से उसने चारों ओर ख्याति प्राप्त की थी, उसी से धोखा करने के इरादे पालने लगा। जिस पवित्र स्थान पर बैठकर योगसाधना की तथाकथित तपस्या की, उसी स्थान को बर्बाद करने के मंसूबे गढ़ते रहा।

इसी मनोभूमिका के साथ इस फकीर ने एक अन्य मुसलमान फकीर जलालशाह को भी इस हिन्दू आश्रम में बुला लिया। इस दूसरे फकीर ने भी स्वामी श्यामानन्द का शिष्यत्व गहण कर लिया। यह दोनों मुस्लिम फकीर हिन्दुत्व की शरण में आकर पीठ में छुआ घोंपने की मानसिकता के साथ आश्रम में रहने लगे। स्वामी श्यामानन्द को इन दोनों फकीरों के भीतर के इरादों का तनिक भी आभास नहीं हुआ। अपनी उदारता के कारण वे शत्रु और मित्र की परख नहीं करते थे।

सर्व विदित है कि इस प्रकार की असंख्य ऐतिहासक भूलों के कारण ही अपना देश 1200 वर्षों की गुलामी के दुष्परिणाम भोगता रहा। हिन्दू समाज की इसी राष्ट्रघातक भूल का लाभ विधर्मी और विदेशी आक्रमणकारी उठाते रहे। हमारी उदारता ही अभिशाप बन गई।

हिन्दुओं की इसी कूटनीति रहित उदारता और अदूरदर्शी अतिथि सत्कार का लाभ उठाकर मुगल हमलावर बाबर भी दो बार महाराणा सांगा से मार खाकर फिर तीसरी बार आ धमका और उसने सरयु के तट पर मार्च 1527 (934 हिजरी) को अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया। भारत की सेना से एक बार पूर्णतया पराजित और दूसरी बार अच्छी खासी मार खाने के पश्चात बाबर अब अयोध्या पर आक्रमण करके सीधे भारत के अंतःस्थल पर चोट करने के इरादे से जंग की तैयारियों में जुट गया।

अयोध्या के स्वामी श्यामानन्द के दोनों शिष्य ख्वाजा अब्बास और जलालशाह तो ऐसे मौके की तलाश में थे ही। इन दोनों कट्टरपंथी फकीरों ने बाबर और उसके मुख्य सेनापति मीर बांकी से सम्पर्क साधा और उसे राम मंदिर तोड़कर उसके स्थान पर मस्जिद बनाने की सलाह दी। बाबर को और क्या चाहिए था, इन दोनों फकीरों के मार्गदर्शन में मंदिर तोड़ने की योजना तैयार हो गई। ———शेष कल

नरेन्द्र सहगल

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

1 × four =