यदि हिटलर अत्याचारी था, तो टीपू सुल्तान नायक कैसे?

टीपू सुल्तान और एडोल्फ हिटलर ने अपने शासनकाल में एक विशेष संप्रदाय को शिकार बनाया, साथ ही यह दोनों ब्रितानियों से लड़े भी थे. अब ऐसा क्यों है कि जहां भारत में हिटलर की पहचान क्रूर शासक की है, वही टीपू को नायक बताया जा रहा है?

हिटलर के अतिरिक्त गोडसे के कृत्य और विचार भी देश के एक वर्ग के लिए घृणा का पर्याय और उनके नाम पर बना मंदिर भी मानवता-बहुलतावाद विरोधी और फासीवाद का प्रतीक है. फिर ऐसा क्यों है कि देश के उसी समूह को इस्लामी आक्रांता तैमूर-लंग और टीपूसुल्तान जैसे शासकों में अपना नायक नजर आता है?

भारत की मूल संस्कृति-परंपराओं और उसके प्रतीक-चिन्हों को जमींदोज करने में जिनकी भूमिका रही हो- क्या वह देश में किसी भी सम्मान के हकदार है?

यहां तक, दिल्ली में क्रूरता की सभी हदों को पार करने से पहले तैमूर अपनी सेना के साथ जिन-जिन मार्गों से गुजरा, वहां उसने अपने पीछे शवों के ढेर, अराजकता, अकाल और महामारी को छोड़ दिया- उसी विषैले चिंतन से टीपू सुल्तान भी ग्रस्त था. मैसूर पर टीपू सुल्तान का लगभग 17 वर्षों (दिसंबर 1782-मई 1799) तक राज रहा. वाम इतिहासकारों ने ऐतिहासिक साक्ष्यों को विकृत कर टीपू सुल्तान की छवि एक राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और पंथनिरपेक्ष मूल्यों में आस्था रखने वाले महान शासक के रूप में गढ़ी है. सत्य है कि टीपू सुल्तान ने ब्रितानी साम्राज्य से लोहा लिया था. किंतु क्यों लिया? यदि वाकई टीपू की मंशा औपनिवेशी ब्रितानियों को भारत से खदेड़ने की थी, तो उसने देश में अपना आधिपत्य स्थापित करने की कोशिश में लगी एक अन्य औपनिवेशी ताकत से सहायता क्यों मांगी? क्या यह सत्य नहीं कि टीपू सुल्तान ने फ्रांसिसी शासक लुईस 16वें से सैन्य मदद की अपील की थी? 21 अप्रैल 1797 को टीपू द्वारा लिखा पत्र इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिसमें उसने लिखा था- “मैंने आपको लिखित में मित्रता प्रकट की है मेरे दूतों ने मुझे जानकारी दी है जिससे आप नाराज नहीं होंगे निजाम जोकि अंग्रेजों के एक अहम सहयोगी व मुगल शासक है वह बहुत बीमार हैं, और उनके स्वस्थ होने की कोई संभावना नहीं दिखती. निजाम के चारों पुत्र संपत्ति विवाद में उलझे हुए हैं, जिसमें से एक मेरा विश्वास पात्र है. ऐसे में भारत पर आक्रमण करने का यही उचित समय है.” फ्रांस के साथ टीपू के पत्राचार लंदन स्थित इंडिया ऑफिस में संरक्षित है.

टीपू ने देश में इस्लामी साम्राज्य का सपना देखा था, जिसमें ब्रितानी अवरोधक बने हुए थे. अपने इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उसने फ्रांस के अतिरिक्त कई मुस्लिम देशों से भी सहायता मांगी थी. इन्हीं तथ्यों को वाम-इतिहासकार और स्वयंभू सेकुलरिस्ट अक्सर ब्रितानियों का झूठा प्रचार बताते है.

टीपू सुल्तान के भ्रामक महिमामंडन की पृष्ठभूमि में मैं उन पत्रों को उद्धृत करना चाहूंगा, जो टीपू ने अपने सैन्य अधिकारियों को लिखे थे. इन सभी को इतिहासकार सरदार के.एम पनिक्कर ने लंदन स्थित भारत कार्यालय पुस्तकालय से प्राप्त किया था.

अब्दुल कादरी को 22 मार्च 1788 को टीपू सुल्तान लिखता है- “12000 हिंदुओं को (ब्राह्मण सहित) इस्लाम से सम्मानित किया गया है. हिंदुओं के बीच इसका व्यापक प्रचार होना चाहिए. एक भी नंबूदिरी (ब्राह्मण) को बख्शा नहीं जाना चाहिए.”

14 दिसंबर 1788 को कालीकट में अपने सेना प्रमुख को भेजे पत्र में टीपू ने लिखा था- “मै अपने 2 अनुयायी मीर हुसैन अली के साथ भेज रहा हूं उनकी सहायता से आपको सभी हिंदुओं को पकड़ कर मारना है. जो लोग 20 वर्ष से कम आयु के हैं उन्हें जेल में डालना है और शेष पाच हजार को पेड़ से लटका कर मार दिया जाए. यह मेरा आदेश है.”

21 दिसंबर 1788 को शेख कुतुब को चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने लिखा- ” 224 नायर बंदी बनाकर भेजा जा रहा है उन्हें उनकी सामाजिक व परिवारिक स्थिति के अनुसार वर्गीकृत करें ताकि इस्लाम में मतान्तरण के बाद पुरुषों और महिलाओं को पर्याप्त परिधान दिए जा सकें.”

18 जनवरी 1790 को सैयद अब्दुल दुलाई को लिखे पत्र में टीपू सुल्तान लिखता है- ” पैगंबर साहब और अल्लाह के करम से कालीकट कि सभी हिंदुओं को इस्लाम कुबूल करवाया गया है. केवल कोचीन में कुछ छूट गए हैं, जिन्हें मैं जल्द ही मुसलमान बनाने के लिए संकल्पबद्ध हूं. इस लक्ष्य को प्राप्त करना मेरा जिहाद है.”

19 जनवरी 1790 में बदरूज जुम्मन खान को भेजे पत्र में टीपू ने लिखा है- ” क्या आपको पता नहीं कि मैंने हाल ही में मालाबार में बड़ी फतेह हासिल की है और चार लाख से अधिक हिंदुओं को इस्लाम में मतान्तरित किया है.”

टीपू सुल्तान के पुत्र गुलाम मोहम्मद और मुस्लिम इतिहासकार किरमानी के ब्यौरों से भी पता चलता है कि टीपू को नगरों के “काफिर” नामों से भी घृणा थी. इसी कारण उसने मंगलापुरी (मंगलौर) को जलालाबाद, कन्नौर को कुषाणाबाद, वैयपुरा (बेपुर) को सुल्तानपट्टनम, मैसूर को नजाराबाद, बना दिया.

“मालाबार मैन्युअल” में टीपू की बर्बरता और चर्च-मंदिरों के ध्वंस का विस्तार से उल्लेख है. जर्मन मिशनरी गुंटेस्ट ने लिखा है, “अपने 60,000 बर्बर सैनिकों के साथ टीपू ने सन् 1788-89 में कोझिकोड पर आक्रमण किया और पूरे नगर को जमींदोज कर डाला. मैसूर की बर्बरता को बयान करना संभव नहीं है.”

टीपू सुल्तान का मत था कि यदि सभी एक ही मजहब के मानने वाले हो जाएंगे तो एकता बनेगी, जिससे ब्रितानियों को हराना आसान होगा. क्या इस आधार पर हिटलर द्वारा यहूदियों के नरंसहार को उचित ठहराया जा सकता है?

यदि टीपू सुल्तान को समाज के एक वर्ग द्वारा राष्ट्रभक्त और स्वतंत्रता सेनानी केवल इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि उसने अंग्रेजों से मोर्चा लिया था- तब एडोल्फ हिटलर को क्यों गाली दी जाती है?

यदि देशभक्ति- इस देश की बहुलतावादी सनातन संस्कृति, उसके मान-बिंदुओं और परंपराओं को सम्मान देने का पर्याय है, तो नि:संदेह उस कसौटी पर आततायी टीपू सुल्तान को राष्ट्रभक्त और सहिष्णु कहना वास्तविक राष्ट्रीय नायकों का अपमान है.

– बलबीर पुंज (राज्यसभा सांसद)

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