‘खंडित भारत’ की ‘आधी अधूरी’ राजनीतिक स्वतंत्रता

डॉक्टर हेडगेवार, संघ और स्वतंत्रता संग्राम – 15

1942 में हुए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन को अपना पूर्ण समर्थन देने के साथ स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने एक आशंका प्रकट करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को विशेषतया महात्मा गांधी जी को चेताया था‘‘भारत छोड़ो’ का अंत कहीं भारत तोड़ो न हो जाए’’। ‘1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ जैसे ऐतिहासिक शोधग्रंथ के लेखक तथा अंडमान जेल में कोल्हू के बैल की तरह अमानवीय यातनाएं भोगने वाले बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर की यह चेतावनी सत्य साबित हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की पूर्ण सहमति के बाद विश्व के सबसे प्राचीन राष्ट्र के टुकड़े कर के अंग्रेज अपने घर चले गए। इस दुर्भाग्यशाली अवसर पर ‘अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता’ के लिए अपना सर्वस्व अपर्ण करने वाले लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की आत्मा कितना रोई होगी, कितना तड़पी होगी, इसका अंदाजा वह कांग्रेसी नहीं लगा सकते जो हाथ में कटोरा लेकर अंग्रेजों से आजादी की भीख मांगते रहे।

उल्लेखनीय है कि 1200 वर्षों के विदेशी अधिपत्य को भारत के राष्ट्रीय समाज ने एक दिन भी स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक पीढ़ी आजादी की जंग को लड़ते हुए आने वाली पीढ़ी के हाथ में संघर्ष की बागडोर सौंपते चली गई। जब यह बागडोर इंडियन नेशनल कांग्रेस के हाथों में पहुंची तो याचक की तरह आजादी मांगने की कायर मनोवृत्ति प्रारम्भ हो गई। फलस्वरूप सदियों पुराने राष्ट्र को तोड़कर पाकिस्तान का निर्माण कर दिया गया। दुनिया के नक्शे पर उभरकर आया यह पाकिस्तान भारत पर हुए विदेशी आक्रमणकारियों का विजयस्तम्भ है। यही विजयस्तम्भ अर्थात पाकिस्तान आज दुनियाभर में मानवता को समाप्त करने के लिए आतंकवाद की फैक्ट्रियां चला रहा है। भारत के विभाजन का इससे बड़ा दुखित पहलू और क्या हो सकता है।

1945 में हुए दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरन्त पश्चात ही ब्रिटिश साम्राज्वाद के झंडाबरदार अंग्रेज शासक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अब भारत में उनका रहना और शासन करना सम्भव नहीं होगा। उन्हें अब भारत छोड़ना ही होगा। दुनिया के अधिकांश देशों पर अपना अधिपत्य जमाए रखने की उनकी शक्ति और संसाधन पूर्णतः समाप्त हो गए थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने जो स्वाधीनता संग्राम छेड़ा, उसने तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश का बिगुल बजा दिया था। सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्रता की गगनभेदी रणभेरी बजाकर जैसे ही ‘दिल्ली चलो’ का उदघोष किया, भारतीय सेना में विद्रोह की आग लग गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीर सावरकर और सुभाष चंद्र बोस के साथ पूर्व में बनी एक गुप्त योजना के अनुसार सेना में भर्ती हुए नौजवानों ने सरकार के खिलाफ कमर कस ली। यह जवान सैनिक प्रशिक्षण लेकर अंग्रेजों के ही खिलाफ युद्ध करेंगे, इसी उद्देश्य के साथ सेना में भर्ती हुए थे। इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के अनुसार राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों में कहा गया है ‘‘20सितम्बर 1943 को नागपुर में हुई संघ की एक गुप्त बैठक में जापान की सहायता से आजाद हिंद फौज के भारत की ओर होने वाले कूच के समय संघ की सम्भावित योजना के बारे में विचार हुआ था’’।

लिहाजा अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के अपने मंतव्य की घोषणा कर दी और उसके लिए जून 1948 के अंत की समय सीमा भी तय कर दी। अब यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि सदियों पुराना स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम चरण में पहुंच गया है। देश के तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं और राष्ट्रवादी संस्थाओं के सामने राजनीतिक स्वाधीनता नहीं अपितु भारत की एकता और अखंडता की रक्षा करना सबसे बड़ी चुनौती थी। परन्तु राष्ट्र का यह दुर्भाग्य है कि जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथ में1200 वर्षों के स्वतंत्रता संग्राम की अंतिम निर्णायक बागडोर थी, वह इस चुनौती के सामने टिक न सकी। बूढ़े हो रहे कांग्रेसी नेताओं ने संग्राम की बागडोर अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपने के बजाए देश का विभाजन स्वीकार कर लिया और सत्ता पर आसीन हो गए। पंडित जवाहर लाल नेहरू के ही शब्दों में ‘‘हम थक चुके थे, बूढ़े हो चुके थे, स्वतंत्रता संग्राम को आगे चलाते रहने का अर्थ था कि फिर से सत्याग्रह करना और जेलों में जाना, इसलिए हमारे सामने भारत के विभाजन को स्वीकार करने के अतिरिक्त और काई चारा नहीं था’’। राजनीतिक पंडितों के अनुसार यदि कांग्रेस के नेता मात्र एक वर्ष और रुक जाते तो अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का ध्येय साकार हो जाता। परन्तु कांग्रेस ने अंग्रेजों के जाल में फंसकर तुष्टीकरण पर आधारित अलगाववाद के आगे दंडवत प्रणाम किया और पृथकतावाद/साम्प्रदायवाद पर संविधानिक मोहर लगाकर राष्ट्रवाद की बलि चढ़ा दी।

विभाजन पूर्व के सारे घटनाक्रम के प्रत्यक्षदर्शी श्रीमान दत्तोपंत ठेंगड़ी के अनुसार ‘‘अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना अपरिहार्य ही हो गया था, परन्तु वास्तव में विभाजन अपरिहार्य नहीं था। इंडियन नेशनल कांग्रेस ने भारत की जनता को देशभक्तिपूर्ण आवाहन किया होता तो देश की अखंडता बनाए रखने हेतु सर्वोच्च त्याग करने के लिए लाखों की संख्या में लोग आगे बढ़ते’’। डॉक्टर अंबेडकर जैसे कानून पुरुष के मुताबिक‘‘हमारी समझ में नहीं आता कि किस प्रकार का यह तथ्य है कि भारत में मुसलमान एक राष्ट्र हैं, यह तथ्य राजनीतिक अलगाववाद को सुरक्षित एवं ठोस बना देता है। दुभाग्यवश मुसलमान इस बात को नहीं समझते कि इस नीति के द्वारा मिस्टर जिन्ना ने उनका कितना नुकसान किया है’’। इसी तरह डॉक्टर लोहिया ने कहा था ‘‘नेताओं की तो अधोगति हुई वे सत्ता के लालच के फंदे में फंस गए’’।

इस तरह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और वामपंथी संगठनों ने जब अंग्रेजों के भारत विरोधी षड्यंत्र के आगे घुटने टेक दिए तो विभाजन का विरोध करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां तेजी से उभरने लगीं। इन संगठित होती हुई शक्तियों को भांपकर अंग्रेजों ने सोचा कि यदि इन राष्ट्रवादी ताकतों को और भी ज्यादा संगठित होने और शक्ति अर्जित करने का अवसर दे दिया तो भारत को तोड़ने की उनकी कुटिल चाल सफल नहीं हो सकती। संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस के अनुसार‘‘इस व्यापक विरोध से बचने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अपने भारत छोड़ने की पूर्व घोषित तिथि जून अंत 1948 के दस महीने पहले ही भारत छोड़ दिया’’। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने भी माना था ‘‘इससे पूर्व कि देश के विभाजन के विरुद्ध कोई प्रभावशाली प्रतिरोध खड़ा हो सके, हमने समस्या का निवारण कर डाला’’।

15 अगस्त 1947 को हुआ भारत का यह विभाजन केवल मातृभूमि के टुकड़े का विभाजन नहीं था, चिरसनातन काल से भारतीय समाज द्वारा एक चैतन्यमयी देवी की तरह पूजित भारतमाता का खंडन, अपमान और असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों, हुतात्मा, संतो/महात्माओं के बलिदानों का महाविध्वंस था।

भारत विभाजन का शोर सुनते ही सारे देश में इसका विरोध शुरु हो गया। आजादी की लड़ाई लड़ रहे देशभक्त नेताओं, संस्थाओं और दलो ने एकजुट होकर भारत की अखंडता को बचाए रखने के लिए यथासंभव संघर्ष छेड़ दिया। वीर सावरकर ने एक जनसभा में घोषणा की ‘‘भारतमाता के अंगभंग कर उसके एक भाग को पाकिस्तान बनाए जाने की मुस्लिम लीग व मियां जिन्ना की कुत्सित योजना का समर्थन कर कांग्रेस बहुत बड़ा राष्ट्रीय अपराध कर रही है। देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता, हिन्दू समाज के सभी अंग- सनातनधर्मी, आर्यसमाजी,सिख, जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव एवं लिगायत आदि अपनी  मातृभूमि के टुकड़े नहीं होने देंगे’’। इसी तरह 1943 में आयोजित हिन्दू महासभा के अधिवेशन में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने चेतावनी दी थी ‘‘यदि कांग्रेस मुस्लिम लीग को प्रसन्न करने के लिए उसकी हर मांग को घुटने टेककर स्वीकार करती रही तो उसके दुष्परिणाम देश की अखंडता के विच्छिन्न होने के रूप में सामने आएंगे। पाकिस्तान की मांग के आधार पर मुस्लिम लीग से समझौता किया जाना राष्ट्रघातक होगा’’।

आर्यसमाज, सनातन धर्म सभा, हिन्दू महासभा, अभिनव भारत, आजाद हिंद फौज तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इत्यादि राष्ट्रभक्त हिन्दू संस्थाओं ने कभी भी भारत का विभाजन स्वीकार नहीं किया। अनेक संत महात्माओं ने पाकिस्तान निर्माण के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। भारत विभाजन की त्रास्दी को रोकने के लिए सभी प्रयास पूरी ताकत से किए गए, परन्तु अंग्रेज शासकों, मुस्लिम लीग और बूढ़े हो चुके कांग्रेसी नेताओं पर पाकिस्तान के निर्माण का नशा इस कदर चढ़ चुका था कि अखंड भारत के समर्थकों की आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।

पाकिस्तान की स्थापना का ऐलान होते ही देश के विभिन्न मुस्लिम इलाकों में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर हिन्दुओं पर जुल्मों का कहर प्रारम्भ हो गया। हिन्दुओं का साहूहिक नरसंहार, माताओं बहनों का सरेआम बलात्कार, आगजनी, लूटपाट और मारधाड़ आदि अपनी चरम सीमा पर पहुंच गए। 15 अगस्त से पहले और बाद में 30 लाख से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुई। जिस समय भारत विभाजन के पहले हस्ताक्षर और खंडित भारत के पहले मनोनीत प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू दिल्ली में यूनियन जैक उतारकर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहरा रहे थे, उसी समय पाकिस्तान से उजड़े और खून से लथपथ लाखों हिन्दू भारत की सीमा में पहुंच रहे थे। भारतीय इलाकों में पहुंचने वाली लाशों और जख्मियों से भरी गाड़ियां आजादी की कीमत अदा कर रहीं थी। इस आजादी के लिए हुए असंख्य बलिदानों, फांसी के फंदो, कत्लोगारत और माताओं बहनों के चीत्कार के बीच उस समय कलेजा कांप उठा जब हमारे कानों में नेताओं द्वारा गाए जा रहे एक गीत की ये पंक्तियां सुनाईं दी – ‘‘दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल-दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई-दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई’’ इसी गीत में यह कहकर ‘‘चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल’’ गीतकार ने 1200 वर्ष तक निरंतर चले स्वतंत्रता संघर्ष को नकार दिया। ऐसा लगता है, मानों हिन्दू सम्राट दाहिर, दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी,  श्री गुरुगोविंद सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह और डॉक्टर हेडगेवार जैसे स्वतंत्रता संग्राम के हजारों नायकों, शहीदों और महापुरुषों को इस चुटकी का ही इंतजार था। सच्चाई तो यह है कि महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस ने पूरे भारत की स्वतंत्रता के लिए लगातार 1200 वर्ष तक चले संघर्ष को धत्ता बताकर भारत का विभाजन स्वीकार करके स्वतंत्रता संग्राम को समाप्त कर दिया।

वास्तव में महात्मा गांधी एक व्यक्ति अथवा नेता नहीं थे, भारतीय अंर्तमन के एक सशक्त हस्ताक्षर थे महात्मा जी। ‘रामराज्य’, एवं ‘हिन्द स्वराज’ जैसे आदर्श उनकी जीवन यात्रा के घोषणा पत्र थे। स्वदेश,स्वदेशी, स्वभाषा, स्वधर्म इत्यादि विचार तत्वों को गांधी जी ने स्वाधीनता आंदोलन की कार्य-संस्कृति का उद्देश्य घोषित किया था। वे इन्हीं आदर्शों के आधार पर भारतीयों को सत्याग्रहों, आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा देते रहे। महात्मा गांधी जी अंत तक प्रयास करते रहे कि रामराज्य और हिन्द स्वराज्य जैसी भारतीय परम्पराओं और भारत की सनातन अमर-अजर, संस्कृति के आधार पर ही भारत के संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक रचना इत्यादि का तानाबाना बुना जाए। महात्मा गांधी जी के शब्दों में ‘‘अंग्रेज रहें, उनकी सभ्यता चली जाए, यह तो मुझे मंजूर है, परन्तु अंग्रेज चले जाएं और उनकी सभ्यता यहां राज करती रहे यह मुझे मंजूर नहीं, इसे मैं स्वराज्य कदापि नहीं मानता’’।

सदियों पुराने एवं लम्बे स्वतंत्रता संग्राम के फलस्वरूप अंततोगत्वा हमारा देश स्वाधीन हो गया। सत्ता की जिस कुर्सी पर पहले अंग्रेज काबिज थे, उस पर भारतीय बैठ गए। गोरों के स्थान पर कालों का राज बस इतना ही हुआ। अतः केवल मात्र सत्ताधारियों की अदला बदली को कदाचित भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता। यह केवल मात्र राजनीतिक स्वाधीनता है।

विभाजन के पश्चात खंडित भारत की सरकार के सभी प्रकार के रीति-रिवाजों में कुछ भी भारतीय नहीं था और न ही राष्ट्रीय स्वाभिमान के इस अति महत्वपूर्ण विषय पर किसी को सोचने की फुर्सत ही थी। ‘सत्ता की भूख’ के उतावलेपन में जिस तरह भारत का विभाजन स्वीकार किया गया, ठीक उसी तरह हमारे सत्ताधारियों ने महात्मा गांधी, डॉक्टर हेडगेवार, सुभाष चंद्र बोस, जय प्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव, डॉक्टर लोहिया, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानियों को दरकिनार कर दिया और एक बार फिर अंगेजों द्वारा थोपी गई राजनीतिक एवं संविधानिक व्यवस्था के लकीर के फकीर बन गए। ब्रिटिश सत्ता के कालखंड में स्वतंत्रता संग्राम के सर्वोच्च सेनापति महात्मा गांधी के उन उसूलों सिद्धांतों को भुला दिया गया जिन्हें आदर्श मानकर महात्मा जी ने स्वतंत्रता की अहिंसक लड़ाई लड़ी थी। अंग्रेजों द्वारा फेंके गए झूठे पत्ते उठाकर चाटने में ही हमारे सत्ताधारी गौरव महसूस करने लगे।

परिणाम स्वरूप स्वाधीन भारत में महात्मा गांधी जी के वैचारिक आधार स्वदेश, स्वदेशी, स्वधर्म, स्वभाषा, स्वसंस्कृति, राजराज्य, ग्राम स्वराज्य इत्यादि को तिलांजलि दे दी गई। परिणाम स्वरूप भारत में मानसिक पराधीनता का बोलबाला हो गया। देश को बांटने वाली विधर्मी/विदेशी मानसिकता के फलस्वरूप देश में अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता, सांप्रदायिकता और जातिवाद इत्यादि ने अपने पांव पसारने शुरु कर दिए।

अतः जब तक भारत का भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक नीति, संस्कृति, समाज रचना परसत्ता एवं विदेशी विचारधारा से प्रभावित और पश्चिम के अंधानुकरण पर आधारित रहेंगे तब तक भारत की पूर्ण स्वतंत्रता पर प्रश्चचिन्ह लगता रहेगा।

…………………..शेष कल।

नरेन्द्र सहगल

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