टेरेसा का मिशन सिर्फ कन्वर्जन

 2_03_29_13_Missionaries_1_H@@IGHT_435_W@@IDTH_800भारत रत्न पाने वाली टेरेसा की सेवागाथा का सेकुलर मीडिया बड़े गर्व से गुणगान करती है, लेकिन क्या वास्तव में टेरेसा का मिशन सेवा ही था ? गौर करने वाली बात है मिशनरी ऑफ चैरिटी संस्था की स्थापना करने वाली टेरेसा ने अपना पूरा जीवन भारत में बिताया, लेकिन जब भी पीड़ित मानवता की सेवा की बात आती थी तो टेरेसा की सारी उदारता प्रार्थनाओं तक सीमित होकर रह जाती थी। तब उनके अरबों रुपये के खजाने से धेला भी बाहर नहीं निकलता था। भारत में सैकड़ों बार बाढ़ आई,भोपाल में भयंकर गैस त्रासदी हुई, इस दौरान टेरेसा ने मदर मैरी के तावीज और क्रॉस तो बांटे, लेकिन आपदा प्रभावित लोगों को किसी भी प्रकार की आर्थिक या अन्य कोई सहायता नहीं पहुंचाई।

मिशनरीज ऑफ चैरिटी एक रोमन कैथोलिक स्वयंसेवी संस्था है। टेरेसा, सेकुलर मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा घोषित त्याग एवं सेवा की प्रतिमूर्ति, ने 1950 में इसकी स्थापना की थी। कहने को इस संस्था की स्थापना गरीब, बीमार, शोषित और वंचित लोगों की सेवा के लिए की गई थी, जिसके अंतर्गत सैकड़ों अन्य संस्थाएं भी कथित तौर पर मानवीय कार्य करती हैं। इन्हीं संस्थाओं में से एक है ‘निर्मल हृदय।’ लेकिन नाम के विपरीत इस संस्था का हृदय निर्मल नहीं है। झारखंड की राजधानी रांची स्थित ‘यह संस्था’ इन दिनों अपनी काली करतूतों के कारण चर्चा में है। यह संस्था जरूरतमंद परिवारों को नवजात शिशु बेचती है और इसके तार मानव तस्करी से भी जुड़ते दिख रहे हैं। नवजात शिशु को बेचने के मामले में इस संस्था की नन कोंसिलिया और एक कर्मचारी अनिमा अंदवार को गिरफ्तार किया गया है। कोंसिलिया ने पुलिस के समक्ष अब तक चार नवजात शिशुओं को बेचने की बात स्वीकार की है। दोनों आरोपियों को जेल भेज दिया गया है, जबकि बाकी नन से पूछताछ की जा रही है।

ऐसे खुली कलई

‘पवित्र कार्यों’ के लिए स्थापित टेरेसा की मिशनरीज ऑफ चैरिटी के अंतर्गत काम करने वाली इस संस्था की कलई उत्तर प्रदेश के ओबरा में रहने वाले एक दंपती की शिकायत के बाद खुली। दरअसल, सौरभ अग्रवाल और प्रीति अग्रवाल ने इस साल 5 मई को 1,20,000 हजार रुपये में इस संस्था से एक शिशु को खरीदा। लेकिन उसने इस शिशु को वापस ले लिया और दंपती को नहीं लौटाया। इस पर अग्रवाल दंपती ने बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) में शिकायत दर्ज कराई कि उन्हें बच्चा नहीं दिया जा रहा है। बस यहीं से इस संस्था की एक के बाद एक काली करतूतें उजागर होती चली गईं।

इस संस्था के पूरे प्रपंच को समझने के लिए हमें थोड़ा और तह में जाना होगा। मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने अपने यहां एक लड़की को रखा था, जिसके साथ बलात्कार किया गया था। वह गर्भवती थी और प्रसव के लिए उसे रांची के सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 1 मई को उसने एक बच्चे को जन्म दिया। चार दिन बाद कोंसिलिया और एक कर्मचारी अनिमा इंदवार ने उस नवजात शिशु को अग्रवाल दंपती को बेच दिया। इसी दौरान बाल कल्याण समिति के सदस्यों ने ‘निर्मल हृदय’ का दौरा किया तो संस्था से जुड़े लोगों के हाथ-पांव फूल गए। नवजात को बेचने का मामला उजागर न हो जाए, इसलिए अनिमा अंदवार ने अग्रवाल दंपती को फोन किया। उसने एक कहानी गढ़ी कि बच्चे को अदालत में पेश करना है, इसलिए उन्हें तत्काल बच्चे को लेकर रांची आना होगा। अदालत में पेशी के बाद बच्चा उन्हें सौंप दिया जाएगा।

लिहाजा, सौरभ अग्रवाल पत्नी के साथ रांची पहुंचे और 2 जुलाई को बच्चा अनिमा को सौंप दिया। अगले दिन यानी 3 जुलाई को जब वे ‘निर्मल हृदय’ गए तो उन्हें बच्चे से मिलने तक नहीं दिया गया। इसके बाद उन्होंने बाल कल्याण समिति में शिकायत कर दी। पुलिस को भी सूचना दे दी गई। शिकायत मिलने के बाद समिति की अध्यक्ष रूपा कुमारी पुलिस के साथ’निर्मल हृदय’ पहुंचीं तो वहां उन्हें 13 गर्भवती लड़कियां मिलीं। इनमें केवल पांच लड़कियां बालिग थीं, बाकी नाबालिग थीं। यह देखकर बाल कल्याण समिति, जिला समाज कल्याण अधिकारी और पुलिस अधिकारी चौंक गए। सभी गर्भवती लड़कियों को छुड़ाकर नामकुम महिला छात्रावास भेजने के बाद अधिकारियों ने गहन छानबीन की तो एक के बाद एक चौंकाने वाली जानकारियां सामने आईं। इसके बाद पुलिस ने संस्था की नन कोंसिलिया और दूसरे कर्मचारियों से पूछताछ शुरू की। पहले तो कोंसिलिया और अनिमा पुलिस को इधर-उधर घुमाती रहीं, लेकिन जब सख्ती हुई तो दोनों टूट गईं। कोंसिलिया ने पुलिस के समक्ष अपने इकबालिया बयान में कहा, ”मैंने बच्चा बेचा है। मुझे माफ कर दीजिए।” रांची के एसएसपी अनीश गुप्ता ने’पाञ्चजन्य’ को बताया कि कोंसिलिया ने चार शिशुओं को बेचने की बात स्वीकार की है।

कहां गए 280 नवजात?

जांच के दौरान पूछताछ में पता चला कि 2015 से जून 2018 के बीच ‘निर्मल हृदय’ में 450 गर्भवती महिलाओं को रखा गया। लेकिन मात्र 170 नवजातों को बाल कल्याण समिति के सामने प्रस्तुत किया गया, शेष 280 शिशुओं का इस संस्था ने क्या किया, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है। झारखंड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष आरती कुजूर का कहना है, ”नियमानुसार अनचाहा गर्भ धारण करने वाली कुंआरी और नाबालिग लड़कियां जिन शिशुओं को जन्म देती हैं, उन्हें बाल कल्याण समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यहां इन नियमों का पालन नहीं होता था। दिखावे के लिए कुछ नवजातों को ही समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। अभी तक की जांच में 280 नवजातों का पता नहीं चला है। झारखंड में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की 15 शाखाएं हैं। सभी में जांच के आदेश दे दिए गए हैं। साथ ही, राज्य के ऐसे सभी सदन जहां ऐसे बच्चों को रखा जाता है, उनकी भी जांच के आदेश दिए गए हैं। इसके अलावा, केंद्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग को भी इस संबंध में जानकारी दे दी गई है।” एसएसपी अनीश गुप्ता का कहना है कि पुलिस हर कोण से मामले की जांच कर रही है। जहां तक अंतरराष्ट्रीय मानव तस्कर गिरोह से इसके तार जुड़े होने की बात है तो उसकी भी जांच की जा रही है।

ऊंची दीवारों के पीछे का सच

‘निर्मल हृदय’ की काली करतूतों का कच्चा चिट्ठा खोलने में रांची के बैद्यनाथ कुमार ने बड़ी भूमिका निभाई। कभी बाल श्रमिक रहे बैद्यनाथ अब बाल अधिकारों के लिए काम करते हैं। वे बताते हैं, ”मैं 1996 में ‘निर्मल हृदय’ के पास एक ढाबे में काम करता था। एक दिन मुझे एक व्यक्ति मिला। उसने मुझे ‘निर्मल हृदय’ में खाना बनाने के काम पर रखवा दिया। वहां मैं देखता था कि संस्था में अधिकतर महिलाएं गांव-देहातों से आती थीं। चूंकि मैं भी स्थानीय था, इसलिए उनसे काफी बातचीत हो जाया करती थी। ‘निर्मल हृदय’ में आने वाली गर्भवती महिलाओं से बातचीत में पता चला कि उनसे एक फार्म पर अंगूठा लगवाया जाता था या हस्ताक्षर करवाए जाते थे। पूरा फार्म अंग्रेजी में होता था। तभी से मुझे शक था कि यहां बच्चों की तस्करी होती है। मैंने करीब दो साल तक संस्था में काम किया। इसके बाद काम छोड़ दिया और अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बाल अधिकारों के लिए काम करने लगा।”

कुमार आगे बताते हैं, ”मैंने एक खास बात देखी। संस्था की दीवारें ऊंची थीं और इसका गेट हमेशा बंद रहता था। अंदर बहुत कम लोगों को आने दिया जाता था। इससे मेरा शक और गहराता गया। सच्चाई का पता लगाने के लिए मैंने एक योजना बनाई। 10 जनवरी, 2016 को मैंने संस्था से बात की और कहा कि अपने एक रिश्तेदार की बरसी पर मुझे यहां भोजन दान करना है। इसके लिए मुझसे 10,000 रुपये लिए गए और अंदर भोजन दान करने की अनुमति दी गई। मैं पूरे दिन अंदर रहा और महिलाओं से बात की तो मेरा शक और पुख्ता हो गया। बाहर आने के बाद मैंने बाल कल्याण समिति को इसकी जानकारी दी। समिति की टीम वहां गई, पर किसी को अंदर नहीं जाने दिया गया। इसके बाद मैंने संस्था की काली करतूतों के विषय में संबंधित विभागों को लगातार चिट्ठियां भेजीं। सेवा के नाम पर पाप करने वाली इस संस्था का घिनौना चेहरा सबके सामने आने के बाद मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है।”

ईसाइयत का एक चेहरा ऐसा भी

चर्च और इसकी मिशनरियों की काली करतूतों का यह पहला मामला नहीं है। हाल ही में केरल के मलंकारा आर्थोडॉक्स चर्च के पांच पादरियों पर एक महिला ने सैकड़ों बार दुष्कर्म करने का आरोप लगाया था। इसका आरोप था कि पादरी ब्लैकमेल कर लंबे समय से उसके साथ दुष्कर्म कर रहे थे। इस मामले में पीडि़ता के पति की ऑडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। इसके बाद केरल पुलिस ने बलात्कार का मामला दर्ज किया। केरल में ही एक नन ने बिशप के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराया है। इस 44 वर्षीया पीडि़ता का आरोप था कि बिशप फ्रैंको मुलक्कल ने उसका 13 बार यौन शोषण किया। लेकिन शिकायत के बावजूद चर्च ने कोई कार्रवाई नहीं की।

दुखद तो यह कि मिशनरियों द्वारा ऐसे और भी अनगिनत घृणित कार्य किए जाते हैं। उदाहरणार्थ दिसंबर 2014 में’पाञ्चजन्य’ ने ‘फादर ये क्या किया’ शीर्षक एक खोजी रपट प्रकाशित की थी जिसमें इसमें यह खुलासा किया गया था कि दिल्ली के नजफगढ़ स्थित दिचाऊं कलां रोड पर प्रेमधाम आश्रम नामक बालगृह में उसका ईसाई संचालक बिना लिखा-पढ़ी के बच्चों का अभिभावक ही नहीं बना, बल्कि भविष्य के लिए उनकी पांथिक पहचान तक बदल दी। पीडि़त परिवारों के अनुसार,बच्चों और उनके माता-पिता को इस बारे में पूरी तरह अंधेरे में रखा गया। गुडविल पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की सीबीएसई की अंकतालिका हाथ में आने के बाद जब इस गोरखधंधे का खुलासा हुआ, तो बच्चों को एक कागज थमा दिया गया। इसके अनुसार नाम बदलने के पीछे कन्वर्जन की मंशा न होने की बात कही गई। कुल मिलाकर इस पादरी ने अनपढ़,गरीब व कुष्ठ रोगियों के बच्चों को उस स्थिति में धकेल दिया, जहां वे कानूनी पेचीदगियों में पड़े बगैर इस थोपी गई ईसाई पहचान से पीछा नहीं छुड़ा सकते। सिर्फ यही मामला देशभर में ईसाई फंदे के शातिर हथकंडों की कई कडि़यां खोल सकता है।

ईसाई मिशनरी दिल्ली सहित देश के विभिन्न राज्यों में बालगृह की आड़ में सुनियोजित तरीके से बच्चों का कन्वर्जन करने का प्रयास कर रहे हैं। बच्चों से न केवल ईसाई परंपरा के अनुसार प्रार्थना कराई जाती है, बल्कि उनके गले में क्रॉस का लॉकेट तक पहनाया जाता है। ये बच्चे दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मणिपुर और ओडिशा से लाए जाते हैं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़े होने पर बच्चों को उनके ईसाई माता-पिता का नाम मिलने पर ईसाई ही समझा जाएगा। बेशक आज उनका कन्वर्जन नहीं कराया जा रहा है, पर ईसाई पंथ से जुड़ने पर बच्चे भविष्य में उस पंथ को अपनी इच्छा से स्वीकार कर लेंगे, इस बात में दो मत नहीं हैं। इस तरह गरीब बच्चों की मदद के नाम पर उन्हें कन्वर्जन की राह पर चलाया जा रहा है। गरीब बच्चों को पढ़ाने के नाम पर कुछ गैर सरकारी संगठन या बालगृह उनकी शिक्षा व देखभाल के नाम पर विदेशों से एफसीआरए के माध्यम से आर्थिक मदद भी लेते हैं। पढ़ाने की आस में माता-पिता भी निश्चिंत होकर अपने बच्चे उन्हें देखरेख के लिए सौंप देते हैं, लेकिन ये लोग बड़ी चालाकी से उनकी जगह स्वयं ही बच्चों के अभिभावक बन जाते हैं।

बालगृह में प्रार्थना करते-करते बच्चे एक दिन स्वयं ईसाई बन जाते हैं, क्योंकि रिकॉर्ड में उनके हिन्दू यानी असली माता-पिता का नाम नहीं, बल्कि ईसाई माता-पिता का नाम दर्ज होता है। यही कारण है कि कई बार बच्चों को नाबालिग से बालिग होने पर हिन्दू से ईसाई बनने का पता ही नहीं चलता है। इनके द्वारा कुछ बच्चों को विदेश भेजे जाने की आशंका भी बनी रहती है।

टेरेसा के दामन पर भी दाग कम नहीं ब्रिटिश-अमेरिकी लेखक क्रिस्टोफर हिचेन्स (अप्रैल 1949-दिसंबर 2011) ने टेरेसा पर एक किताब लिखी है। ‘द मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’। मीडिया के एक विशेष वर्ग द्वारा महिमामंडित टेरेसा के 600 मिशन दुनियाभर में हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्हें ‘मरने वालों का बसेरा’ कहा जाता है। इन स्थानों पर रोगियों को रखा जाता है, जिनके बारे में चिकित्सकों ने चौंकाने वाले बयान दिए हैं। चिकित्सकों के मुताबिक, जहां रोगियों को रखा जाता है, वहां साफ-सफाई नहीं होती। रोगियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने और उनके लिए दर्द निवारक दवाएं नहीं होने पर भी उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया। क्रिस्टोफर हिचेंस के अनुसार, जब इस बारे में पूछा गया तो टेरेसा का जवाब था- ”गरीबों,पीडि़तों द्वारा अपने नसीब को स्वीकार करता देखने और जीसस की तरह कष्ट उठाने में एक तरह का सौंदर्य है। उन लोगों के कष्ट से दुनिया को बहुत कुछ मिलता है।” हालांकि जब टेरेसा खुद बीमार पड़ीं तो अपने ऊपर इन सिद्धांतों को लागू नहीं किया। न ही इन अस्पतालों को अपने इलाज के लिए उपयुक्त समझा। टेरेसा ने अपना इलाज अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित स्क्रप्सि क्लीनिक एंड रिसर्च फाउंडेशन में कराया। यह बात दिसंबर 1991 की है।

टेरेसा के ही मिशन में काम करने वाली एक आस्ट्रेलियाई नन कॉलेट लिवरमोर ने अपने मोहभंग और यातनाओं पर एक किताब लिखी है- ‘होप एन्ड्योर्स’। इसमें उन्होंने अपने 11 साल के अनुभव के बारे में लिखा है कि कैसे ननों को चिकित्सीय सुविधाओं, मच्छर प्रतिरोधकों और टीकाकरण से वंचित रखा गया ताकि वे ‘जीसस के चमत्कार पर विश्वास करना सीखें’। कॉलेट ने पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख किया है कि वे किस तरह एक मरणासन्न रोगी की सहायता करने के कारण संकट में पड़ गई थीं। उन्होंने लिखा है कि वहां पर तंत्र उचित या अनुचित के स्थान पर आदेश का पालन करने पर जोर देता है। ननों को आज्ञा पालन का आदेश देते हुए टेरेसा ईसाई वांग्मय के उदाहरण देती थीं, जैसे-”दासों को उनके मालिकों की आज्ञा का पालन करना चाहिए, भले ही वे कर्कश और दुरुह हों।” (पीटर 2:8:23)

जब कॉलेट को एलेक्स नामक एक बीमार बालक की सहायता करने से रोका गया तब उन्होंने टेरेसा को अलविदा कह दिया और लोगों से अपील की कि वे अपनी बुद्धि का उपयोग करें।

टेरेसा की कार्यशैली पर सवाल

2013 में कनाडा के शोधार्थियों सार्ज लैरिवी और जैनेवीब कैनार्ड, जो क्रमश: यूनिवर्सिटी ऑफ मॉन्ट्रियल्स, डिपार्टमेंट ऑफ सायको एजुकेशन और कैरोल सेनेचल (यूनिवर्सिटी ऑफ ओटावा) से संबंधित हैं ने टेरेसा के जीवन से जुड़े 502 दस्तावेजों का अध्ययन किया और इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला। दोनों ने टेरेसा द्वारा बीमारों की सेवा के तरीकों, उनके आपत्तिजनक राजनीतिक संपर्कों, दान में मिलने वाली अकूत संपत्ति के संदेहास्पद प्रबंधन, परिवार नियोजन, गर्भपात तथा तलाक जैसे मामलों में अतिरूढि़वादिता आदि पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। वे कहते हैं कि टेरेसा के अस्पतालों में आने वाले एक-तिहाई लोग दवा एवं चिकित्सा के अभाव में मर गए। इसका कारण साधनों का अभाव नहीं था।

दरअसल, जब भी पीड़ित मानवता की सेवा की बात आती थी तो टेरेसा की सारी उदारता प्रार्थनाओं तक सीमित होकर रह जाती थी। तब उनके अरबों रुपये के खजाने से धेला भी बाहर नहीं निकलता था। भारत में सैकड़ों बार बाढ़ आई, भोपाल में भयंकर गैस त्रासदी हुई, इस दौरान टेरेसा ने अनगिनत प्रार्थना सभाएं आयोजित कीं। उन्होंने मदर मैरी के तावीज और क्रॉस तो बांटे,लेकिन आपदा प्रभावित लोगों को किसी भी प्रकार की आर्थिक या अन्य कोई सहायता नहीं पहुंचाई। हालांकि वे दुनिया के निष्ठुर तानाशाहों से सम्मान ग्रहण करती रहीं। दान में करोड़ों रुपये आते रहे, लेकिन बैंक खाते गुप्त रखे गए। सार्ज लैरिवी सवाल उठाते हैं कि गरीब से गरीब आदमी के नाम पर आए करोड़ों डॉलर कहां गए?

ऐसे गढ़ी संत की छवि इतने विवादों के बावजूद टेरेसा मातृत्व की प्रतिमूर्ति के रूप में कैसे प्रख्यात हो गईं? इस बारे में सार्ज लैरिवी और जैनेवीब कैनार्ड कहतेे हैं कि 1968 में लंदन में टेरेसा की मुलाकात एक रूढि़वादी कैथोलिक पत्रकार मैल्कम मगरिज से हुई। मगरिज ने टेरेसा को मास-मीडिया की शक्ति के बारे में समझाया और इसके बाद संत की छवि गढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। 1969 में टेरेसा को केंद्र में रखकर एक प्रचार फिल्म बनाई गई जिसे ‘चमत्कार का पहला फोटोग्राफिक प्रमाण’ कहकर उनके पक्ष में हवा बनाई गई। उसके बाद टेरेसा एक चमत्कारिक संत कहलातीं, पुरस्कार और सम्मान बटोरती हुईं पूरी दुनिया में घूमीं। बाद के वर्षों में उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति की जरूरतों के चलते उन्हें भारत रत्न से भी नवाजा गया। धीरे-धीरे उनके चारों ओर ऐसा आभामंडल खड़ा कर दिया गया कि उनके विरुद्ध किसी भी प्रकार का सवाल उठाना वर्जित हो गया।

अपराधी की वकालत, तानाशाहों से नजदीकी

ऐसे कितने सवाल हैं, जो कभी पूछे ही नहीं गए। गरीबों के बीच काम करने वाली टेरेसा परिवार नियोजन के विरुद्ध थीं। टेरेसा ने जिन भारतवासियों से प्यार का दावा किया, उनकी संस्कृति, उनकी समृद्ध विरासत की प्रशंसा में उन्होंने कभी एक शब्द तक नहीं कहा। 1983 में एक हिन्दी पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में जब टेरेसा से पूछा गया कि ”ईसाई मिशनरी होने के नाते क्या आप एक गरीब ईसाई और दूसरे गरीब (गैर ईसाई) के बीच स्वयं को तटस्थ पाती हैं?” तो उनका उत्तर था, ”मैं तटस्थ नहीं हूं। मेरे पास मेरा मजहब है।” इसी साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि अपनी खगोलशास्त्रीय खोजों के कारण मध्ययुगीन चर्च द्वारा प्रताडि़त किए गए वैज्ञानिक गैलीलियो और चर्च में से वे किसका पक्ष लेंगी, तो उनका संक्षिप्त उत्तर था-”चर्च।” गौरतलब है कि मध्ययुगीन चर्च ने अपनी मान्यताओं और नियमों को समाज पर थोपने के लिए कठोर यातनाओं का सहारा लिया था।

रोमन कैथोलिक चर्च के लोगों ने यूरोप सहित दुनिया के अनेक भागों में एक कुख्यात कानून लागू किया, जिसके तहत लोगों को उनकी गैर ईसाई मान्यताओं के कारण कठोर यातनाएं दी गईं। सैकड़ों वर्षों में लाखों महिलाओं को डायन कहकर जिंदा जलाया गया। अंग-अंग काटकर लोगों को मारा गया। चर्च के ही दस्तावेज उन बर्बरताओं को बयान करते हैं, परंतु टेरेसा ने इस सब पर कभी मुंह नहीं खोला। चार्ल्स हम्फ्री कीटिंग जूनियर अमेरिका के आर्थिक अपराध जगत का जाना-पहचाना नाम है। यह शख्स 1990 के दशक में तब चर्चा में आया जब उसके काले कारनामों के कारण सामान्य अमेरिकियों की बचत के 160बिलियन डॉलर का गोलमाल हुआ। पीडि़तों में अधिकांश लोग गरीब तबके के थे या पेंशनभोगी वृद्ध थे। बाद में यह तथ्य सामने आया कि कीटिंग ने टेरेसा को दस लाख डॉलर दान में दिए थे और उनकी हवाई यात्राओं के लिए अपना जेट उपलब्ध करवाया था। जब कीटिंग पर मुकदमा चल रहा था तब टेरेसा ने न्यायाधीश को पत्र लिखकर नरमी बरतने की गुजारिश की और सलाह दी कि चूंकि चार्ल्स कीटिंग एक भला आदमी है इसीलिए उन्हें (न्यायाधीश को) उसके साथ वही करना चाहिए जैसा कि जीसस करते। जीसस क्या करते? कहना मुश्किल है, लेकिन न्यायाधीश ने कीटिंग को दस साल की सजा सुनाई। इंडियन हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स के पूर्व सदस्य और लेखक डॉ. डॉन बॉएस के अनुसार टेरेसा को डिप्युटी डिस्ट्रक्टि अटॉर्नी का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था कि चूंकि कीटिंग ने लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा चुराया था, अत: टेरेसा को कीटिंग ने दान में जो 10 लाख डॉलर दिए थे, उन्हें उसे लौटा देना चाहिए, क्योंकि जीसस भी संभवत: यही करते। परंतु टेरेसा ने न तो पत्र का उत्तर दिया, न ही एक पैसा लौटाया। दुनिया के कुख्यात तानाशाह, जैसे-हैती के जीन क्लाउड डोवालिए और अल्बानिया के कम्युनिस्ट तानाशाह एनवर होक्सा, सभी से टेरेसा की नजदीकियां रहीं और इस पर सवाल भी उठते रहे।

रोमन कैथोलिक चर्च जब किसी मिशनरी को संत घोषित करता है, तो उसकी एक विशेष प्रक्रिया होती है, जिसका एक मुख्य भाग है- उस व्यक्ति द्वारा किए गए किसी ‘चमत्कार’ की पुष्टि। टेरेसा की मृत्यु के एक वर्ष बाद पोप ने उन्हें संत की उपाधि दी। क्रिस्टोफर हिचेंस ने इस पर सवाल खड़ा किया है। वे लिखते हैं-”मोनिका बसरा नामक एक बंगाली महिला ने दावा किया कि उसके घर में टंगी टेरेसा की तस्वीर से प्रकाश की किरणें निकलीं और उसकी कैंसर की गांठ ठीक हो गई, जबकि मोनिका बसरा के चिकित्सक डॉ़ रंजन मुस्तफी का कहना है कि उसे कैंसर था ही नहीं। वह टीबी की मरीज थी और उसका बाकायदा इलाज किया गया। क्या वेटिकन ने डॉ. रंजन से बात की? नहीं। दुर्भाग्य है कि हमारा मीडिया इन विषयों पर प्रश्न नहीं उठाता, न ही तर्कवादी ऐसे दावों पर कोई सवाल खड़े करते हैं।

विदेशों से धन

‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के बारे में एक और जानकारी सामने आई है। इस संस्था को विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम (एफसीआरए) के तहत वित्त वर्ष 2006-07 से 2016-17 के बीच विदेशों से नौ अरब 17 करोड़ 62 लाख रुपये मिले। यह आंकड़ा कोलकाता क्षेत्र का है, जिसके अंतर्गत झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार की मिशनरीज ऑफ चैरिटी की संस्थाएं आती हैं। झारखंड सरकार मिशनरीज ऑफ चैरिटी सहित कई अन्य एनजीओ के एफसीआरए को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार से अनुशंसा करने वाली है। साथ ही, टेरेसा की संस्था को विदेशों से मिले धन के दुरुपयोग के मामले की भी जांच होगी। एफसीआरए के दुरुपयोग में यह प्रावधान है कि एक करोड़ से कम राशि वाले मामले की जांच राज्य पुलिस की सीआईडी करती है, जबकि एक करोड़ से अधिक की राशि वाले मामले की जांच सीबीआई करती है। खुफिया एजेंसी भी सरकार से संस्था का एफसीआरए रद्द करने की सिफारिश कर चुकी हैं। बीते वर्ष खुफिया एजेंसी ने सरकार को भेजी रिपोर्ट में यह खुलासा किया था कि वित्त वर्ष 2012-2013 से 2014-2015 के भीतर 100 से ज्यादा ईसाई मिशनरियों ने 310 अरब रुपए का विदेशी फंड लिया। ऐसी संस्थाओं के एफसीआरए को रद्द करने की अनुशंसा की गई थी, जो अब तक लंबित है।

बचपन बचाओ आंदोलन के तहत छापामारी

2014 में गैर सरकारी संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ द्वारा दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के छावला स्थित ताजपुर गांव में अवैध रूप से चल रहे ‘इमेन्युअल ऑरफेनेज चिल्ड्रेन होम’ में छापामारी के दौरान 54 बच्चों को मुक्त कराया गया था। इनमें 43लड़के तथा 11 लड़कियां थीं। इन्हें जब उनके माता-पिता के सुपुर्द किया गया तो खुलासा हुआ कि कुछ बच्चों के माता-पिता हिन्दू थे, जबकि बच्चे ईसाई बन चुके थे। 3 से 17 वर्ष के ये सभी बच्चे उत्तर प्रदेश, मणिपुर, बिहार और झारखंड से लाए गए थे। सन् 2000 से चल रहे बालगृह में बच्चों के लिए भोजन व रहने की व्यवस्था भी नहीं थी। छापेमारी के दौरान जेजे एक्ट का उल्लंघन पाया गया था। यहां लड़के-लड़की साथ ही रखे गए थे। दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम जिले में इमेन्युअल, उम्मीद,आशा मिशन, प्रेम का जीवन, होम फॉर फिजिकल एंड मेंटली चैलेंज्ड और हाउस ऑफ होप नाम से बालगृह बिना पंजीकरण के चलाए जा रहे थे, जिन्हें बंद किया जा चुका है। ‘हाउस ऑफ होप’ का संचालक तो निरीक्षण की पूर्व सूचना मिलते ही बालगृह बंद कर फरार हो गया था। इसी क्रम में आशा मिशन होम से 4 और उम्मीद से 17 लड़कियों को मुक्त कराया गया था। यहां पर दो कमरों में 6 से 14 वर्ष की बालिकाओं को रखा गया था।

साभार – पाञ्चजन्य

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