‘नहीं भूलते बंटवारे के दिन’

बंटवारे के वक्त मैं नागपुर में संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था. इस बीच पाकिस्तान की ओर से हिन्दुओं के पलायन की खबरें आनी शुरू हुर्इं. संघ अधिकारियों ने वर्ग को जल्दी समाप्त कर दिया ताकि सीमापार रहने वाले स्वयंसेवक अपने परिवार की मदद कर सकें. नागपुर से मैं फगवाड़ा आया, जहां संघ का शिविर लगा हुआ था और पूज्य गुरुजी वहां आए हुए थे. पाकिस्तान के हालात को देखकर शुरुआत में गुरुजी का आग्रह था कि लोग अपनी जमीन और घर न छोड़ें. लेकिन दिनोंदिन स्थिति जब बहुत खराब होने लगी तो उन्होंने स्वयंसेवकों से सीमापार के हिंदुओं को सुरक्षित भारत लाने और और हर संभव मदद करने का आदेश दिया. पंजाब से लेकर पाकिस्तान में रहने वाले स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर हिंदुओं की मदद की. इस दौरान अनेक स्वयंसेवक मृत्यु को भी प्राप्त हुए. लेकिन इससे न तो स्वयंसेवकों के कदम ठिठके और न ही वे डरे. पंजाब के कई स्थानों पर स्वयंसेवक बड़ी संख्या में सीमा पार से लोगों को सुरक्षित लाने में मदद कर रहे थे. लोग ट्रेन, नाव, बैलगाड़ियों और पैदल चलकर अमृतसर पहुंच रहे थे. इन सबकी अपनी आपबीती थी. किसी का बेटा मारा गया था तो किसी की पत्नी का अपहरण कर लिया गया था तो किसी के पिता को आंखों के सामने गोली से उड़ा दिया था. इन सभी लोगों को अमृतसर या आसपास के स्थानों पर ठहराया जा रहा था.

स्वयंसेवक इन सबकी हरसंभव मदद कर रहे थे. इसी क्रम में मैंने भी फौज की वर्दी पहनकर सीमापार करने की कोशिश की, लेकिन हाथ में ओम लिखा हुआ था. इसलिए हाथ पर पट्टी बांध ली. लेकिन सीमापार के लोगों ने मेरी पट्टी खुलवा के देखी और मैं पकड़ा गया. इसके बाद एक बार फिर मैंने कोशिश की, पर इस बार भी मैं असफल रहा. संघ के संस्कार में पला-बढ़ा होने के कारण बचपन से ही सबकुछ छोड़कर संघ कार्य के लिए प्रचारक बनना चाहता था, लेकिन उस समय के हमारे प्रांत प्रचारक श्री माधवराव जी ने सलाह दी कि पहले अपनी शिक्षा पूरी करो.

मैं सियालकोट भी रहा. उस समय ऐसा अंदाजा नहीं था कि बंटवारा होगा और हिंदुओं के साथ वहां ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी. समय बीतने के बाद मेरी शिक्षा अमृतसर और मुरादाबाद में हुई. बाद में मुझे अंबाला में शिक्षक की नौकरी मिल गई. यहां रहकर संघ के विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. सन् 1963 में मैं परिवार के साथ दिल्ली आ गया, लेकिन संघ के साथ सदैव संबंध बना रहा. यहां आने पर स्वदेशी जागरण मंच की ओर से जिम्मेदारी मिली. लेकिन जब भी बंटवारे के दिनों का भान होता है तो उस समय के स्वयंसेवकों की वीरता याद आती है. स्वयंसेवक अनेक कष्टों को सहते हुए जान हथेली पर रखकर हिन्दू समाज की मदद कर रहे थे. लेकिन इस सबके बावजूद पता नहीं कितने हिन्दू परिवार उन्मादियों का शिकार बन गए. ऐसा दृश्य याद करते ही आक्रोश उत्पन्न होने लगता है.

साभार – पाञ्चजन्य

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 × 3 =