श्रीरामसेतु के बारे में यह नहीं जानते होंगे आप

रामसेतु श्रीराम सेना का ही बनाया हुआ है। नासा ने इसे माना है कि यह पुल लगभग 1750000 वर्ष पुराना है। अध्ययन से यह भी पता चला कि उस समय श्रीलंका में इंसान रहते थे। 300 साल पहले तक इस पुल का प्रयोग होता रहा था। भारत और श्रीलंका के लोग इसी पुल के जरिए एक दूसरे के यहां जाते थे.
 2_11_38_31_Ramsetu_1_H@@IGHT_415_W@@IDTH_675हमारी सभ्यता की विविधतापूर्ण धाराओं के असंख्य मनकों को एक सूत्र में पिरोने में मुख्य भूमिका निभाई है संतों, ऋषियों, गुरुओं और यायावर जोगियों ने। इन लोगों ने धरती के सुदूर क्षेत्रों की यात्राएं कीं और उनके जरिए विभिन्न समूहों और बसावटों के लोगों को आपस में जोड़ा। गुरु नानक ने अपनी यात्रा के दौरान जहां-जहां निवास किया वहां गुरुद्वारे बने, श्री महावीर ने बिहार और बंगाल की यात्रा की, भगवान बुद्ध का आगमन बनारस क्षेत्र में हुआ था। ग्रामदेवता, पहाड़ों-पहाडि़यों पर विराजमान देवों और स्थान-देवताओं के प्रति आस्था के भाव तले छोटे-छोटे क्षेत्रों को एकसूत्र में बांधा, तो बड़े देव और देवी अलग-अलग स्थानों में विविध रूपों में अवतरित हुए और लोगों के बीच एक अखंड बंधन विकसित किया, जिसने स्थानीय या क्षेत्रीय विविधता को संरक्षित करते हुए एक विशिष्ट पहचान स्थापित की। इस प्रकार हिंदू समाज धरती के एक छोर से दूसरे तक शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदायों के जरिए परस्पर जुड़ गया।
राम जी का पृथ्वी पर अवतार और उनके कठोर वनवास को संभवत: उत्तर और दक्षिण भारत को एकजुट करने के ऋषि अगस्त्य द्वारा शुरू किए गए महत्वाकांक्षी अभियान में अहम् भूमिका निभाने के तौर पर देखा जा सकता है। राम जी अयोध्या के सूर्यवंशीय इक्ष्वाकु राजघराने के उत्तराधिकारी थे, जो उस समय का सबसे महत्वपूर्ण शहर था। वे ऋषि विश्वामित्र के साथ उन राक्षसों का वध करने निकलते हैं, जो ऋषियों के यज्ञ में हमेशा विघ्न डालते और उन्हें अपवित्र कर देते। उसके बाद वे मिथिला (सुदूर बिहार/नेपाल में स्थित) पहुंचते हैं, जहां सीता का स्वयंवर हो रहा है। सीता, जिसका शाब्दिक अर्थ हल-रेखा है, खेत में हल से बनी क्यारी में पाई गई थी। इस कारण उन्हें भूमिजा यानी भूदेवी का अवतार माना गया है।
राम और सीता महल के सुख-वैभव का त्याग करके वनवास के लिए प्रस्थान करते हैं। गंगा को पार करके प्रयाग, चित्रकूट, दंडकारण्य, पंचवटी, लेपाक्षी, किष्किंधा, रामेश्वरम् पहुंचते हैं, जहां से राम और उनके नए अनुयायी श्रीलंका तक लंबा पुल बनाते हैं। इसी के जरिए वे रावण तक पहुंचकर सीता को छुड़ाने के लिए युद्ध करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से अध्ययन करने पर राम की कर्मभूमि आम मान्यता से अलग भारत के दक्षिणी क्षेत्र में विकसित होती दिखाई देती है। उनकी कहानी यहीं आगे बढ़ती है और यहीं वे पहली बार हनुमान से मिलते हैं। दिव्य युगल का आकर्षण जल्दी ही पूरे भारतवर्ष पर छा जाता है और उनके साथ हनुमान के अलौकिक व्यक्तित्व का प्रभाव भी समग्र भारत पर छा जाता है।
राम की यात्रा वास्तव में भारत के सांस्कृतिक मानचित्र का प्रतीक है। मिथिला, जहां गौतम ऋषि (जिनकी पत्नी अहिल्या को वे शाप-मुक्त करते हैं) और राजा जनक (ऋषिराज) से उनकी मुलाकात और संवाद होता है। निर्वासन काल के दौरान अत्रि ऋषि और उनकी पत्नी अनुसूया, भारद्वाज और मातंग ऋषियों से उनकी मुलाकात; अयोध्या लौटने पर राजा दशरथ की सेवा करने वाले महान ऋषि वशिष्ठ का राम के प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें दिशा-निर्देश देना। राम की जीवनयात्रा में संपूर्ण भारत के विद्वानों की अद्भुत भागीदारी दिखाई देती है।
रामसेतु बनाती बानर सेना का सुंदर चित्रण
राम के नए भक्तों की आस्था तले तैयार रामसेतु उत्तर से आए अपरिचित के प्रति नए अनुयायियों की गहरी भक्ति का प्रतीक है जो अपनी पत्नी के वियोग में व्यथित अपने भाई के साथ उनके बीच पहुंचे हैं। राम अपने वनवास के दौरान रास्ते में आने वाली किसी भी बस्ती में अपने मत का प्रचार करते नहीं दिखाई देते; लेकिन उनसे मिलने वाले लोग उनके दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार कर भावविभोर होकर स्वयं उनका अनुसरण करने लगते हैं। इसलिए रामसेतु पर उठाए जा रहे सवाल राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाने जैसा है। यही कारण है कि कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार ने तब दावा किया था कि रामचरित एक साहित्यिक कथा थी और भारत-श्रीलंका के बीच कोई मानव निर्मित पुल नहीं। यह शर्मनाक है।
13वीं से16वीं सदी के दौरान राज करने वाले जाफना के तमिल राजा खुद को सेतु कवलर – रामेश्वरम् और आसपास के समुद्रों का संरक्षक कहते थे। दक्षिण भारत में राम को मुख्य रूप से कोदंड-राम, धनुषधारी राम, जिन्होंने युद्ध में अपने शत्रुओं का विनाश किया था, के रूप में पूजा जाता है।
राम सेतु ने इन क्षेत्रों में आने वाले विदेशियों को बहुत आकर्षित किया। 11वीं शताब्दी में अल-बरूनी ने उल्लेख किया है, ”सेतुबंध का अर्थ है महासागर पर बना पुल है। यह दशरथ के पुत्र राम का पुल है, जिसे उन्होंने महाद्वीप से लंका के महल तक तैयार किया था। वर्तमान में इस जगह पर अलग-अलग पहाड़ों की श्रृंखलाए हैं, जिनके बीच समुद्र लहरा रहा है।” 13वीं सदी में वेनिस से आए व्यापारी मार्कों पोलो ने राम से संबंधित एक पुल ‘सेतुबंध रामेश्वर’ का भी उल्लेख किया है।
कुछ सौ साल पहले तक यूरोप से आने वाले शुरुआती यात्रियों ने समुद्र में ज्वार के उतरने पर रामसेतु को श्रीलंका तक एक भूमि पुल के रूप में काम करते देखा था। 1893 के मद्रास प्रेसीडेंसी गजट में दर्ज मंदिर के अभिलेखों और यात्रा-वृतांतों में बताया गया है, ”1799 तक रामसेतु प्रयोग में था, लेकिन उसके बाद समुद्र की धाराओं और ज्वारों के स्वरूप में आए बदलाव से उस पुल का प्रयोग मुश्किल हो गया।”
18वीं शताब्दी में सर विलियम जोन्स ने अध्ययन किया था कि देवनागरी लिपि का प्रभाव काश्गर और खुतन (चीन) की सीमा से लेकर रामसेतु और सिंधु से स्याम (थाईलैंड) की नदी तक था। राम द्वारा सीता जी को रावण के चंगुल से बचाने के अभियान के बारे में जोन्स कहते हैं, ”उन्होंने जल्द ही समुद्र पर चट्टानों के एक पुल का निर्माण किया, जिसके बारे में हिंदुओं का कहना है कि वह अब भी मौजूद है, और शायद यह उन्हीं चट्टानों की श्रृंखला है, जिसे मुगलों या पुर्तगालियों ने एक बेतुका नाम एडम्स ब्रिज (इसकी पहचान राम के नाम से जुड़ी रहनी चाहिए) दे दिया है।”
दिलचस्प बात यह है कि सिंहली लोग मानते हैं कि मगध राजा अशोक के पुत्र महेन्द्र और बेटी संघमित्रा पुल से ही श्रीलंका आए थे।
नासा उपग्रह से ली गई तस्वीरें सागर तल पर अलग तरह की गोलाकार संरचना वाला करीब 17,50,000 वर्ष पुराना टूटा हुआ पुल दिखाती हैं। यह ऐसी चीजों से बना है, जो इसे प्राकृतिक नहीं, किसी के द्वारा बनाए जाने का संकेत देती हैं। पुरातात्विक अध्ययनों ने पुष्टि की है कि श्रीलंका में लगभग 17,50,000 साल पहले इंसानी बसावट के पहले संकेत मिलते हैं और पुल की आयु भी करीब उतनी ही है। मार्च, 2012 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने सुझाव दिया कि सेतु को उसके अतुल्य ऐतिहासिक, पुरातात्विक और विरासत मूल्य के कारण राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाए।
रामायण के युद्धकाण्ड के 85 श्लोकों में सेतुबंध के निर्माण का वर्णन है। इसके अलावा, महाभारत में भी श्रीराम के आदेश पर नल सेतु (विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा निर्मित सेतु) को हमेशा सुरक्षित रखने का उल्लेख है। इस प्रकार, पुल के नष्ट होने का कोई ऐतिहासिक संदर्भ नहीं है, हालांकि नौवहन और परिवहन मंत्री के तौर पर द्रमुक नेता टी़ आऱ बालू ने संप्रग सरकार के कहने पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक हलफनामा प्रस्तुत किया। कालिदास के रघुवंश में पहाड़ों के सेतु का उल्लेख है। स्कंद पुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण और ब्रह्म पुराण भी राम सेतु के निर्माण का उल्लेख करते हैं।
मन्नार की खाड़ी से एक व्यापक सांस्कृतिक मूल्य जुड़ा है, जहां हजारों तमिल हिंदू अपने पूर्वजों का तर्पण (वार्षिक श्राद्ध अनुष्ठान) करने जाते हैं, साथ ही एक अविभाज्य जलराशि के तौर पर यह भारत और श्रीलंका के तटों के लिए भी बहुत अहम् है। भूगर्भीय संरचनाओं के साथ की गई कोई भी छेड़छाड़ सागरीय धाराओं में उथल-पुथल मचा सकती है और उष्ण-धाराओं के प्रवाह क्षेत्रों को प्रभावित कर तटीय और जलीय संसाधनों को भारी नुकसान पहुंचा सकती है।
मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरूमध्य में लगभग 3,600 दुर्लभ प्रजातियों का समृद्ध और लुप्तप्राय समुद्री जीवन वास करता है, जिनमें स्पर्म व्हेल, डॉल्फिन, डुगोंग, समुद्री कछुओं और समुद्री घोड़ों समेत असंख्य वनस्पतियां और जीव मौजूद है। साथ ही कोरल की 117 प्रजातियां (सिर्फ भारतीय जल क्षेत्र में), मछली और कड़े खेल वाले जीवों की कई प्रजातियां भी वास करती हैं।
1989 में भारत सरकार ने यूनेस्को के मनुष्य एवं जैव विविधता कार्यक्रम के अंतर्गत 10,500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को समुद्री जैव विविधता संरक्षित क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया। इसमें मूंगे की चट्टानों के बहुतायत वाले 21 द्वीप हैं। हमारे पांच तटीय जिले इसी समुद्री संसाधन पर निर्भर हैं, और इस नाजुक पारिस्थितिकी को अगर कोई भी नुकसान पहुंचा तो वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण से संबद्ध संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन होगा। 12 मई, 2007 को चेन्नै में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में सेतु समुद्रम् परियोजना के वैज्ञानिक और भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक एस़ बद्रीनारायणन ने कहा, ”यह एक स्थापित तथ्य है कि मूंगे की चट्टान केवल स्वच्छ और अप्रदूषित पानी में ही बन सकती है और इन समुद्री जीवों को छोटे-छोटे ठोस आधार की जरूरत होती है। मूंगे केवल ठोस चट्टानों में ही उगते हैं। इन संरचनाओं के नीचे भुरभुरी समुद्री रेत की उपस्थिति स्पष्ट रूप से यह बताती है कि ये प्राकृतिक नहीं हैं और उन्हें कहीं और से लाया गया है। साफ है यह इंसानी गतिविधि का ही संकेत देती है, जिन्होंने सामूहिक रूप से काम करके रेत वहां पहुंचाई होगी। यह एक प्राचीन सेतु है और इंजीनियरिंग की दृष्टि से एक चमत्कार।” (ओडिशा रिव्यू, जून -2012)
राम का कालखंड ऐतिहासिक युग का हो या प्राक्-ऐतिहासिक का, रामसेतु इस बात का जीता-जागता ठोस प्रमाण है कि ईश्वर पृथ्वी पर अपने राम अवतार में अयोध्या से रामेश्वरम् और इसके आगे वर्तमान श्रीलंका तक चलकर गए, जहां मंदोदरी और विभीषण ने उनके दिव्य स्वरूप को पहचाना और सीता की ससम्मान वापसी की बात रावण से की। इस पुल के अवशेष दुनिया के प्राचीनतम सेतु और हिंदू विरासत को संजोए हुए हैं और इन्हें हमेशा संरक्षित रखना हमारा कर्तव्य है। दोनों देशों की सरकारों को चाहिए कि वे समुद्री क्षरण के कारण हुए नुकसान की मरम्मत के लिए एक संयुक्त परियोजना चलाएं, ताकि कम ज्वार के इस पुल को पार करना संभव हो सके, जैसा करीब 300 साल पहले तक होता था।
-संध्या जैन
Sabhaar Panchjanya

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