कारगिल युद्ध – रणक्षेत्र में भारतीय सेना की वीरता, धैर्य और दृढ़ निश्चय की अतुलनीय गाथा

आज ही के दिन भारत ने कारगिल में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की सार्वजनिक घोषणा की थीभारत सरकार की कूटनीतिक जीत के साथ भारतीय सेना ने मानवीयता और बहादुरी का उदाहरण प्रस्तुत किया था.

भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 07 जून, 1999 को राष्ट्र के नाम संबोधन दिया. विषय भारतीय सीमा के अन्दर कारगिल में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ का था. उन्होंने इसे गंभीर स्थिति बताते हुए कहा, “कोई भी देश इस तरह के आक्रमण को सहन नहीं करेगा, कम-से-कम हमारी सरकार तो नहीं. हमारे सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान की सेना को पीछे खदेड़ने के लिए बड़ा अभियान शुरू कर दिया है.” प्रधानमंत्री ने सेना पर भरोसा जताया और कहा, “इस अभियान को हमारे जवान समाप्त करेंगे और सुनिश्चित किया जाएगा कि भविष्य में ऐसा अपघात करने की कोई हिम्मत नहीं करेगा.”

यह भारत सरकार की तरफ से कारगिल युद्ध की आधिकारिक घोषणा थी. इस युद्ध की शुरुआत पाकिस्तानी सेना ने की थी. दक्षिण एशिया में 1971 के बाद की इस सबसे बड़ी सैन्य कार्यवाही का अंत भी पाकिस्तान की हार के साथ हुआ. यह पहली घटना थी कि युद्ध के दौरान ही पाकिस्तान पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी थी. (The News, 25 July, 1999) जबकि भारत की प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी हुई. वहीं अपने सैन्य प्रबंधन के कारण विश्व में भारत को जिम्मेदार और आत्म-नियंत्रण में सक्षम ताकत माना जाने लगा. (Proceedings and Debates of the U.S. Congress, 29 July, 1999)

इस युद्ध से भारत को एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई. पाकिस्तान और चीन के साथ हुए पिछले युद्धों में हमने जो कुछ प्राप्त किया अथवा कुछ भी हम जीते, वह हमारी तत्कालीन सरकारों ने संधियों और दवाब के बहकावे में आकर गंवा दिया. साल 1947 में जम्मू-कश्मीर का एक-तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के जबरन कब्जे में चला गया. साल 1962 में 38,000 वर्ग किलोमीटर की हमारी जमीन चीन ने हड़प ली. साल 1971 में बिना किसी शर्त और लिखित में 90,000 सैनिक पाकिस्तान को वापस कर दिए गए. जबकि कारगिल युद्ध में वाजपेयी सरकार ने एक इंच भूमि नहीं गंवाई और पाकिस्तान को हिन्दुस्तान की सीमा से बाहर कर दिया.

कारगिल में जीत के साथ भारतीय सेना ने मानवीयता और युद्ध नियमों के पालन का उदाहरण प्रस्तुत किया. युद्ध में मारे गए पाकिस्तानी सेना के जवानों के पार्थिव शवों को पाकिस्तान ने लेने से इनकार कर दिया था. इनका सम्बन्ध पड़ोसी देश की 12वीं नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री और 165 मोर्टार रेजिमेंट से था. न्यूयॉर्क टाइम्स (17 जुलाई, 1999) के मुताबिक भारतीय सेना ने दुश्मन देश के जवानों को उनके राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर भारतीय जमीन में दफनाया. सभी शवों के अंतिम संस्कार भी इस्लामिक तरीके से किये गए थे.

इस सफल सैन्य कार्यवाही के साथ ही भारत सरकार को कूटनीतिक बढ़त भी हासिल हुई. पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अजीज 12 जून को नई दिल्ली पहुंचे. उन्होंने तीन सूत्री प्रस्ताव रखे, (1) युद्ध विराम, (2) नियंत्रण रेखा की समीक्षा और निर्धारण के लिए एक संयुक्त कार्यदल बनाया जाए और (3) आगामी सप्ताह में इसी प्रकार भारतीय मंत्री की पाकिस्तान यात्रा. नई दिल्ली ने इस प्रस्ताव को सीधे ठुकरा दिया. भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कहा, जब तक पाकिस्तानी सेना भारतीय इलाके से पूरी तरह नहीं हट जाती, तब तक भारत किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं करेगा.

सरताज की असफल भारत यात्रा के बाद पाकिस्तान सरकार युद्ध खत्म करने के तरीके ढूंढने लगी. इंडिया टुडे में 26 जुलाई, 2004 को छपे नवाज शरीफ के साक्षात्कार के अनुसार वे युद्ध का अंत चाह रहे थे. उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से हस्तक्षेप की गुहार भी लगाई. उन्होंने पहले फोन पर बात की, जिससे कोई समाधान नहीं निकला. इससे नवाज इतने हतोत्साहित हो गए कि 03 जुलाई यानि युद्ध के बीच में ही वाशिंगटन चले गए. राष्ट्रपति क्लिंटन अपनी किताब ‘माय लाइफ’ में इस यात्रा का विवरण लिखते हैं, “मैंने (बिल क्लिंटन) उन्हें (नवाज़ शरीफ) जोर देते हुए कहा कि वे अमेरिका दो बातों को ध्यान में रखकर आएं, पहला उन्हें नियंत्रण रेखा से पीछे अपने सैनिकों को हटाने पर सहमत होना पड़ेगा और दूसरा, मैं कश्मीर मामले में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नहीं हूँ.”

राष्ट्रपति क्लिंटन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को उसी समय अमेरिका आने के लिए मनाने का प्रयास किया. जब नवाज़ शरीफ वहां पहुंच रहे थे. हालाँकि भारतीय प्रधानमंत्री ने सांकेतिक रूप से इनकार कर दिया. अमेरिका और पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक के बाद एक संयुक्त बयान का प्रारूप बनाया गया. अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष सहायक और उत्तर पूर्व एवं दक्षिण एशिया मामलों के वरिष्ठ निदेशक ब्रूस रिडेल लिखते हैं, “क्लिंटन ने वाजपेयी को फ़ोन किया कि संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर होने से पहले वे इसे देख लें.” यह भारत की कूटनीतिक तौर पर बढ़ती हुई साख की तस्वीर थी. आज़ादी के बाद पहली बार अमेरिका ने पाकिस्तान का पक्ष न लेकर भारत का मजबूती से समर्थन किया. वाशिंगटन का इस तरह भारत की ओर झुकाव भारत-अमेरिका सम्बन्धों में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था.

इस बीच प्रधानमंत्री वाजपेयी, सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र और थल सेनाध्यक्ष वी.पी. मलिक के बीच 08 जुलाई को बैठक हुई. मलिक अपनी पुस्तक ‘कारगिल, फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में लिखते हैं, “प्रधानमंत्री ने मुझसे पूछा कि शेष पाकिस्तानी सेना को भगाने में कितना समय लगेगा? मैंने उत्तर दिया कि घुसपैठ मुक्त करने के लिए दो से तीन सप्ताह का समय लगेगा.” इसके बाद तीनों सेनाओं के प्रमुखों के बीच कई दौर की लम्बी बातचीत हुई. आखिरकार भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पूरी तरह से भारतीय सीमा से खदेड़ दिया. कारगिल के बहादुर सैनिकों के सम्मान में 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है.

पाकिस्तान की हार से वहां आंतरिक तौर पर सेना और सरकार दोनों की आलोचना होने लगी. कारगिल युद्ध के कर्ताधर्ता परवेज मुशर्रफ उस समय आर्मी स्टाफ के प्रमुख थे. उन्होंने सितम्बर 2006 में अपनी पुस्तक ‘इन द लाइन ऑफ़ फायर : ए मेमोआर’ का प्रकाशन किया. इस किताब में उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि पाकिस्तान सेना की ‘उपलब्धियां’ उसकी असफलताएं हैं.

पाकिस्तान की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने ‘द न्यूज़’ को 22 जुलाई, 1999 को बताया, “पाकिस्तान के इतिहास में कारगिल सबसे बड़ी गलती थी. पूरा अभियान पाकिस्तान को महंगा पड़ा. इससे भारतीयों में यह भावना घर कर गयी है कि पाकिस्तान ने उसके साथ विश्वासघात किया है और इस क्षेत्र में शांति प्रक्रिया के दौरान पाकिस्तान नेतृत्व ने धोखा दिया.” पाकिस्तान के भूतपूर्व वायुसेना प्रमुख, एयर मार्शल नूरखान ने भी ‘द न्यूज़’ को बताया, “इस अभियान को उचित ठहराने का कोई तर्क नहीं है. पाकिस्तान 1947 से ऐसी गलतियां करता रहा है और अपनी गलतियों से हमने कोई सबक नहीं लिया, जिसे हमारे शासक करते आए हैं.”

कारगिल युद्ध ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वहां सेना और सरकार का एक-दूसरे से विश्वास तक उठ गया. वहां के सभी समाचार-पत्र सरकार की आलोचना से भरे जाने लगे. विदेशी मीडिया ने भी पाकिस्तान के युद्ध छेड़ने की निंदा की और भारतीय नीति और हमारी सेना की भूमिका की सराहना की. जनरल वी.पी. मलिक लिखते हैं, “कारगिल युद्ध भारतीय सेना की रणक्षेत्र में प्रदर्शित वीरता, धैर्य और दृढ़ निश्चय की अतुलनीय गाथा के रूप में भारतीय इतिहास में दर्ज रहेगा. यह महान गौरव और प्रेरणा का प्रतीक बनेगा.”

देवेश खंडेलवाल

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