माओवादी ताकतों का मकसद है संविधान और लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ना

जयपुर (विसंकें). भीमा कोरेगांव की घटना के विरोध में 03 जनवरी 2018 को मुंबई में भी प्रदर्शन किया गया था, रैलियां निकाली गईं थीं, बंद का आह्वान किया गया था. इस घटना को एक वर्ष पूर्ण हो गया है. अब केंद्र तथा राज्य में एक मजबूत सरकार होने और माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे कड़े अभियान से उनकी कमर टूट चुकी है और वे बौखला गए हैं. भीमा-कोरेगांव दंगों की माओवादियों की साजिश, उनकी नई रणनीति, दलित-पिछड़े वर्ग व आदिवासियों को बरगलाने के उनके कुचक्र, रैडिकल आंबेडकर, आंबेडकरवादियों के चोले में उभरे माओवादी जैसे विभिन्न मुद्दों पर कैप्टन स्मिता गायकवाड से बातचीत के मुख्य अंश –

भीमा कोरेगांव मामले में ‘सत्य शोधक समिति’ की क्या भूमिका है?

भीमा-कोरेगांव दंगा मामले में सच सामने नहीं आ रहा था. झूठी खबरों को फैलाकर समाज में तनाव निर्माण करने की कोशिश की गई, ताकि सामाजिक वातावरण बिगड़े और जातीय संघर्ष हो. इसी इरादे से एक षडयंत्र के तहत और पूर्व तैयारी के साथ माओवादियों ने अपनी योजना को अमली जामा पहनाया. इस संवेदनशील मामले को गंभीरता से लेते हुए सत्य शोधक समिति ने घटना स्थल पर जाकर जांच-पड़तात शुरू की और इस मामले की जड़ में जाकर एक के बाद एक कड़ियों को मिलाकर सारे सबूत इकट्ठा किए. भीमा कोरेगांव दंगा मामले के मुख्य आरोपी षड्यंत्रकारी शहरी माओवादियों का पर्दाफाश करने में सत्य शोधक समिति ने मुख्य भूमिका निभाई.

सत्य शोधक समिति की स्थापना कब और क्यों की गई? इसका मुख्य उद्देश्य क्या है?

सत्य शोधक समिति की स्थापना भीमा-कोरेगांव दंगों के बाद देश विरोधी माओवादी हिंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की मंशा से अध्ययन करने हेतु की गई. इसके अलावा माओवाद की विषैली विचारधारा एवं उनके द्वारा विभिन्न प्रकार की हिंसक कार्रवाइयों का पर्दाफाश करने और जनता के बीच जनजागरण करने के मुख्य उद्देश्य से समिति कार्य कर रही है.

आंबेडकरवादी चोला ओढ़ कर माओवादी न्याय, समता, अधिकार, मानवता की आड़ में आदिवासी-वनवासी लोगों को गुमराह कर उन्हें देश के खिलाफ करने का कुप्रयास कर रहे हैं. समाज में वैमनस्य- तनाव निर्माण कर जातिवाद का जहर घोल कर जातीय दंगे, गृह युध्द और अराजकता फैलाने का षडयंत्र देशविरोधी तत्व माओवादी कर रहे हैं. भीमा-कोरेगांव दंगों के पीछे भी इन्हीं माओवादी देशविरोधी शक्तियों का हाथ था.

उक्त माओवादी गतिविधियों के बारे में सचेत करना और जागरूकता फैलाना ही समिति का मुख्य उद्देश्य है.

भीमा-कोरेगांव दंगों के बाद समाज में क्या परिणाम दिखाई दिए?

भीमा-कोरेगांव दंगों के बाद समाज में हुए तनाव के कारण प्रतिक्रिया बड़ी ही भयानक और चिंताजनक थी. जंगल में लगी भयानक आग की तरह बड़ी ही तेजी से पूरे महाराष्ट्र में यह खबर फैल गई. देखते ही देखते लोग आक्रोशित हो उठे और अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देने लगे. सोशल मीडिया के माध्यम से झूठी खबरें तेजी के साथ प्रसारित होने लगीं. मीडिया ने जो दिखाया उसे ही लोगों ने सच मान लिया. मीडिया में यह खबर चली कि भीमा-कोरेगांव दंगों में स्थानीय लोगों ने हमला किया है जो पूरी तरह झूठ है. जिसके फलस्वरूप सोशल मीडिया पर क्रिया-प्रतिक्रिया होने लगी. कई शहरों में दंगे, तोड़फोड़, गाड़ियों को जलाने और महाराष्ट्र बंद जैसी घटनाएं हुईं. छोटे-छोटे बच्चों की आग उगलते तीखे बयान व धमकियां सोशल मीडिया में वायरल हो रहे थे. यह मामला जातीय संघर्ष में तब्दील हो चुका था. उक्त घटना के तुरंत बाद ही कुछ तथाकथित लोगों ने निराधार तथ्यहीन अपनी-अपनी रिपोर्ट मीडिया के सामने लाईं, जो असत्य थीं. इस मामले की सच्चाई सामने लाने के लिए विशेष रूप से सत्य शोधक समिति का गठन किया गया था, जिनमें माओवादी विशेषज्ञ शामिल हुए. सत्य शोधक समिति के विशेषज्ञों ने कड़ी मेहनत कर सबूत के साथ मुख्य सूत्रधार माओवादियों का सच दुनिया के सामने लाया.

भीमा-कोरेगांव दंगों के पीछे किन देशविरोधी संगठनों का हाथ था?

देखिए, यह सुरक्षा एजेंसियां ही निर्धारित करेंगी कि इसमें किन संगठनों का हाथ है. हम कुछ भी नहीं कहेंगे. यह जांच का विषय है. मामला न्यायालय में चल रहा है और पुलिस अपना काम कर रही है.

हां, लेकिन हमारी जांच-पड़ताल एवं अध्ययन के दौरान कबीर कला मंच, रिपब्लिकन पैंथर नामक संगठन की कुछ संदिग्ध गतिविधियां सामने आई हैं, जिन्हें गंभीरता से लेना चाहिए. माओवादिायों के अलावा बामसेफ, भारत मुक्ति मोर्चा जैसे संघटनों की भी जांच होनी चाहिए.

क्योंकि वढू ग्राम पंचायत के सामने हुई बातचीत तथा जस्टिस पटेल कमीशन में गांव वासियों द्वारा दिए गए एफिडेविट के अनुसार ये संस्थाएं भी 01 जनवरी 2018 के पूर्व तनावपूर्ण स्थिति निर्माण करने के लिए जिम्मेदार थीं. हमने गहन शोध के आधार पर और सबूत के साथ अपनी रिपोर्ट प्रशासन को दी है, ताकि मुख्य आरोपी कानून के शिकंजे से न बच सके.

कबीर कला मंच और रिपब्लिकन पैंथर की किस तरह की संदिग्ध गतिविधियां सामने आई हैं?

रिपब्लिकन पैंथर व कबीर कला मंच प्रति वर्ष भीमा-कोरेगांव स्थल पर आते-जाते रहे हैं. वहां पर क्या हो रहा है, किस तरह की वहां भाषणबाजी होती है, किस तरह का साहित्य, पर्चे वहां बांटे जाते हैं तथा अन्य सभी तरह की गतिविधियों को देखने, जानने एवं समझने तथा उनका विश्लेषण व अध्ययन करने हेतु हम भी वहां जाते रहते हैं. वर्ष 2015 में रिपब्लिकन पैंथर द्वारा कुछ पर्चे बांटे गए थे. सुधीर ढवले नामक व्यक्ति का रिपब्लिकन पैंथर संगठन है, ढवले अभी जेल में है. उक्त बांटे गए पर्चों में यह लिखा हुआ था कि आज की वर्तमान सरकार (पेशवाई) के खिलाफ लड़ने हेतु तैयार रहें. उसमें लोकतंत्री प्रक्रिया से नवनिर्वाचित सरकार को हेतु पूर्वक ब्राम्हणवादी सरकार बताकर पेशवाई नाम दिया गया. वर्तमान सरकार को पेशवाई कहना जातिवाद को बढ़ाने के लिए किया गया है. सरकार की आलोचना करने का अधिकार लोकतंत्र में सभी को है. लेकिन मतदान और संवैधानिक प्रक्रिया से निर्वाचित सरकारों को जातिवादी घोषित करना उचित नही है. इस तरह यह सिलसिला 2015 से चला आ रहा था. अलग-अलग जगहों पर उपरोक्त संगठनों की आपस में बैठकें हुईं. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित 02 जनवरी की खबर ने हमें चौंका दिया. उसमें बताया गया था कि एल्गार परीषद के आयोजक और वक्ता भीमा-कोरेगांव में इस वर्ष गए ही नहीं, जबकि उन्होंने ही लोगों से बड़ी संख्या में आने का आह्वान किया था. जब इस बारे में इंडियन एक्सप्रेस ने इनसे प्रश्न पूछा कि इस बार आप क्यों नहीं गए तो इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि कानून-व्यवस्था बिगड़ने की वजह से वे नहीं गए. अब सवाल यह उठता है कि भीमा- कोरेगांव दंगा होने के पूर्व ही उन्हें कानून-व्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा कैसे हो गया? क्या इन्हें पहले से ही पता था कि यहां भीषण दंगा होने वाला है? जब इंडियन एक्सप्रेस ने उक्त सवाल उनसे किया तब ये सभी लोग जस्टीज बी जी कोलसे पाटील के घर पर बैठे हुए थे, जिनका ‘मी टू’ में भी नाम आया था. उसी समय उनके घर में उमर खालिद, जिग्नेश मेवाणी आदि लोग भी मौजूद थे. जब हमने एक के बाद एक घटनाक्रमों की कड़ियां मिलानी शुरू कीं, तब हमें अंदेशा हुआ कि भीमा-कोरेगांव दंगों के पीछे माओवादी एवं उनके अन्य सहयोगी संगठनों का हाथ है.

भीमा-कोरेगांव घटना होने के पूर्व की कुछ अन्य गतिविधियों के बारे में जानकारी दीजिए?

28 दिसंबर को वढू गांव के स्थानीय निवासी राजेंद्र और पांडू गायकवाड नामक व्यक्ति ने बिना किसी प्रशासनिक अनुमति के एक बोर्ड शाम 07 बजे के करीब लगाया. उस समय कुछ बाहरी लोग भी उपस्थित थे, ऐसा गांव वालों ने बताया. इसके बाद रात 10 बजे के लगभग एक बड़ा सा फ्लेक्स उस बोर्ड पर चिपकाया गया. गोविंद गोपाल की समाधि की ओर जाने वाले मार्ग की दिशा दर्शाने वाला यह बोर्ड लगाया गया था, जिसमें गोविंद गोपाल जी के संबंध में इतिहास लिखा हुआ था. (जिसके बारे में कोई भी उल्लेख इतिहास में नही है.) इसके अलावा उस बोर्ड पर यह चेतावनी भी लिखी गई थी कि यदि किसी ने बोर्ड निकाला तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है. इस बोर्ड के माध्यम से लोगों में भय का वातावरण बनना शुरू हुआ. यह बोर्ड लगाने के पीछे क्या मंशा थी, यह जानना बेहद जरूरी है.

सरकार के खिलाफ जंग का ऐलान करने तथा दंगा करने के पीछे अराजक ताकतों की क्या मंशा रही होगी?

माओवादी ताकतों का मकसद है संविधान और लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ना और उसके बदले वहां माओ के सिद्धांत पर चलने वाली व्यवस्था स्थापित करना. इसलिए सत्ता में कांग्रेस हो या भाजपा माओवादी हमेशा सरकार और प्रशासन व्यवस्था का हिंसापूर्ण विरोध करते आए हैं. बांटे गए पर्चों में यह लिखा हुआ था कि हिंदुत्ववादी संगठनों के साथ मिलकर भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ, एटीएस, सीबीआई आदि संस्थाएं काम करती हैं; जबकि सर्वविदित है कि उक्त संस्थाएं देश की स्थिरता, सुरक्षा व अखंडता के लिए काम करती हैं. उक्त संस्थाओं में सभी धर्मों-जातियों के लोग शामिल हैं, बावजूद इसके हिंदुत्ववादी संगठनों को उक्त संस्थाओं के साथ जोड़ने के पीछे उनका क्या मकसद हो सकता है? इसके बारे में मुझे ऐसा लगता है कि (किसी एक विचारधारा से जुड़ने का आरोप इन संस्थाओं पर करने की वजह से उन संस्थाओं द्वारा देश हित में कोई भी सक्त कदम उठाए जाएंगे तो उनको विचारधारा से जोड़ दिया जाएगा ताकि सामान्य जनता के मन में उनके प्रति अविश्वास निर्माण हो.) जाति-जाति में वैमनस्य, भेद, संघर्ष निर्माण करने की नापाक मंशा इन अराजक तत्वों की हो सकती है.

भीमा-कोरेगांव (पुणे) की घटना भविष्य में न हो, इसके लिए किस तरह की उपाय-योजना हमें करनी चाहिए?

सर्वप्रथम इस तरह के गंभीर-संवेदनशील मामलों में सोशल मीडिया द्वारा फैलाई जाने वाली झूठी खबरों के प्रति सावधानी बरतनी चाहिए. सोशल मीडिया के फर्जी संदेशों के चलते तनाव की स्थिति निर्माण होती है. आए दिनों सोशल मीडिया के दुरूपयोग के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में दंगे-फसाद जैसी घटनाएं बढ़ी हैं. भीमा-कोरेगांव मामले में भी ऐसा ही हुआ है. क्रिया-प्रतिक्रिया ने दोनों समाज के बीच आग में घी डालने का काम किया. जिसके नकारात्मक परिणाम सामने दिखाई दिए.

फर्जी खबरों पर भरोसा न करें, उस पर तुरंत प्रतिक्रिया न दें. कुछ देर रुकिए और खबरों की सत्यता की जांच करें. जातीय-धार्मिक संवेदनशील मामलों में आपत्तिजनक खबर या वीडियो वायरल न करें. इसके अलावा किसी घटना से आहत होकर किसी धर्म-जाति के लोगों के बारे में विभाजनकारी मानसिकता बनाने से हमें बचना होगा. जाति-धर्म को किसी घटना से जोड़ना गलत है. ऐसी घटना दुबारा न हो इसके लिए हमें सदैव जागरूक रहना होगा और अराजक, अलगाववादी, देश विरोधी आदि संगठनों के विभिन्न षडयंत्रों का शिकार होने से स्वयं को बचाना होगा.

गलत सूचना के आधार पर हमें कोई राय नहीं बनानी चाहिए. गलत सूचना ही सारी समस्याओं की असली जड़ है. हमें गलत सूचनाओं पर पूरी तरह पाबंदी लगाने के साथ ही सही सूचना तत्काल पहुंचाने हेतु एक मजबूत सशक्त माध्यम विकसित करना होगा. अफवाह तथा जातिवाद को बढ़ावा देने वाले मैसेज तथा पोस्ट को पुलिस को बताना.

क्या माओवादी पिछड़े व दलित समाज को लक्ष्य बना रहे हैं?

माओवादी महिला, आदिवासी, अल्पसंख्यक, विद्यार्थी, मजदूर इस प्रकार समाज के विभिन्न हिस्सों को टार्गेट कर रहे हैं. जातीय संघर्ष को उभारकर समाज को अलग-थलग करने की माओवादियों की एक चाल है, जिस पर आज वे विशेष रूप से काम कर रहे हैं. अक्सर मीडिया और कुछ लोग इस तरह के सवाल उठाते हैं कि क्या दलित माओवादी बन रहे हैं? इस तरह का प्रश्नचिह्न अपने ही समाज पर लगाना बेहद शर्मनाक व गैर जिम्मेदाराना हरकत है. हकीकत तो यह है कि दलित माओवादी नहीं बन रहे हैं बल्कि माओवादी दलितों को लक्ष्य बना रहे हैं. इसमें जमीन-आसमान का अंतर है.

संविधान खत्म कर लोकतंत्र की हत्या करने पर उतारू हिंसक माओवादियों का समर्थन क्या कोई समाज कर सकता है?

सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. बड़े ही त्याग -बलिदान के बाद हमें आजादी, संविधान व लोकतंत्र मिला है. माओवादियों की विचारधारा व इतिहास उठा कर देख लीजिए, वे कभी लोकतंत्र, संविधान के हिमायती नहीं रहे हैं. सिर्फ क्रांति के नाम पर लोगों को बरगलाकर उन्होंने भीषण रक्तपात किया है. बड़ा ही कष्ट व अत्याचार सहने के बाद पिछड़े दलित समाज को संविधान के चलते ही बल मिला और वे आगे बढ़ पाए. संविधान हटाने व लोकतंत्र की हत्या करने वाले माओवादियों का समर्थन दलित समाज सहित कोई भी समाज नहीं करेगा. संविधान के प्रति दलित समाज की निष्ठा, समर्पण उच्च स्तर पर है. उन्हें पता है कि संविधान के कारण ही उन्हें उनका अधिकार-आरक्षण मिला है. दलित व अन्य पिछड़े समाज के लिए संविधान सर्वोपरि है, सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. इसलिए वह माओवादियों का कभी समर्थन नहीं करेंगे, यह मेरा दृढ़ विश्वास है.

किसी जाति-धर्म को आतंकवाद और माओवाद से जोड़ना क्या उचित है?

बिल्कुल नहीं. इससे हमें बचना चाहिए. माओवादी व आतंकवादी तो यही चाहते हैं कि उन्हें जाति-धर्म की आड़ में वर्ग विशेष का समर्थन मिले, इसलिए वे इस तरह का प्रोपगेंडा फैलाते हैं. इससे उनका काम आसान होगा.

समाज में फैल रही गलत धारणाओं को हम कैसे बदलें?

जन जागरूकता ही इसका एकमात्र उपाय है. समाज के बीच जाकर जागरूकता फैलाना ही सभी समस्याओं का समाधान है. इससे हम आसानी से लोगों की गलत धारणाओं को बदल सकते हैं. एक कार्यक्रम के दौरान वक्ता के रूप में मैं व्याख्यान देने गई थी. उसमें मुझे एक बेहतरीन और सबसे अच्छा फीडबैंक मिला. एक युवा ने लिखित रूप में फीडबैंक दिया कि भीमा-कोरेगांव की घटना के बाद दलितों के प्रति मेरे मन में जो जहर घोला गया था, वह आज निकल गया. हम अक्सर ऐसे व्याख्यानों का आयोजन करते रहते हैं, जिससे लोगों में जागरूकता आए. आयोजन में ऐसे कई दलित युवा हमारे पास आते हैं और कहते हैं कि बताइए हमें क्या करना चाहिए, हमारा मार्गदर्शन करिए. सभी समाज के लोग जागरण से प्रभावित हो रहे हैं और इसे सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं. लोग उत्साह के साथ सकारात्मक प्रतिसाद दे रहे हैं.

माओवादी अब आंबेडकरवादी होने का ढ़ोग क्यों कर रहे हैं?

दलित – पिछड़े वर्ग के लोगों को गुमराह कर उन्हें अपने पक्ष में करने हेतु माओवादी अब आंबेडकरवादी बनने का ढोंग कर रहे हैं. उन्हें पता है कि माओ- लेनिन का नाम लेने से उन्हें सफलता नहीं मिलेगी और लोगों का विश्वास संपादन करने में मुश्किलें आएंगी. इसलिए जो भारत के आदर्श हैं उनके नाम माओवादी प्रयोग कर रहे है. अतः शाहू, फुले, आंबेडकर, भगतसिंह इत्यादि नाम माओवादी उनके प्रचार, प्रसार हेतु इस्तेमाल कर रहे हैं. इसकी सच्चाई समाज के सामने लाना बेहद जरूरी है.

माओवादियों द्वारा ‘रैडिकल आंबेडकर’ का प्रचार किया जा रहा है, यह रैडिकल आंबेडकर है क्या?

माओवादी सुधीर ढवले नामक व्यक्ति ने ‘रैडिकल आंबेडकर’ (नामक विचारधारा आगे बढ़ाने वाली) शीर्षक से रिपब्लिकन पैंथर (सुधीर ढवले की संस्था) की डायरी में निबंध लिखा है. उस निबंध में माओवादी विचार को झूठे तरीके से जोड़ने का कुप्रयास ‘रैडिकल आंबेडकर’ द्वारा किया गया है. इसमें दर्शाया गया है कि आंबेडकर संविधान को ठुकराते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि अन्याय-अत्याचार सहने के बावजूद सर्वसमावेशी समाज की स्थापना करने हेतु सामंजस्य, समानता एवं समान अधिकार के लिए कड़ी मेहनत के बाद संविधान की रचना बाबासाहेब ने की. उन्होंने कभी भी शस्त्र लेकर हिंसा की वकालत नहीं की. उन्होंने विशेष रूप से सर्वप्रथम राष्ट्रहित में नागरिकों को सार्वभौमत्व का अधिकार देकर ‘भारतीय नागरिक’ होने पर जोर दिया. बावजूद इसके मानसिक रूप से बीमार माओवादी रैडिकल झूठे प्रचार के द्वारा समाज को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं. माओ की थ्योरी को आंबेडकर के नाम पर प्रचारित करने की माओवादियों की कपटी चाल से हमें सर्तक रहना होगा. डॉ. आनंद तेलतुमड़े जो गोवा में रहते हैं, उनका इंटरव्यू छपा था. इस इंटरव्यू में पत्रकार ने उनसे एक सवाल पूछा था कि आप किस विचारधारा को मानते हैं? आज के समय में गांधीवाद व आंबेडकरवाद उपयोगी नहीं है. हां लेकिन, मुझे आज के समय में मार्क्सवाद ज्यादा प्रेक्टिकल व उपयोगी लगता है. लोग उन्हें आंबेडकरवादी ही मानते हैं.

रैडिकल आंबेडकर से दलित समाज कितना प्रभावित हुआ है और उनकी इस विषय पर कैसी प्रतिक्रिया आपको दिखाई दी है?

मैं यह तो नहीं बता सकती कि दलित समाज कितना प्रभावित हुआ है, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप यह बता सकती हूं कि माओवादियों की चाल को अब धीरे-धीरे ही सही दलित समाज समझने लगा है. उन्हें यह पता चल गया है कि आंबेडकरवादी होने का छलावा कर माओवादी विचार उनके मन में घुसाने का प्रयास किया जा रहा है. जिससे अब वे सर्तक होने लगे हैं. हमारे कार्यक्रम के जरिए जागरूक हुए दलित युवा स्वयं आगे बढ़ कर कुछ करने हेतु आतुर है और इस विषय में काम करने की उन्होंने इच्छा प्रकट की है. इसलिए यह कहना कि दलित समाज के लोग माओवाद की राह पर जा रहे हैं, यह बिल्कुल गलत है. इस तरह की बातें हमारे समाज में नहीं होनी चाहिए.

देश व समाज को तोड़ने हेतु माओवादी किस तरह की युध्द नीति का उपयोग कर रहे हैं?

माओवादियों की ‘फोर्थ जेनरेशन वॉर फेयर’ युध्द नीति का एक उदाहरण है. इस युध्द नीति के अंतर्गत सूचनाओं को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इस से लड़ने का एकमात्र उपाय जागरूकता और सही सूचनाएं समय पर लोगों तक पहुंचाना है. माओवादियों की झूठी सूचनाओं (अफवाहों) को सही सूचना द्वारा ही रोका जा सकता है. यह सिर्फ सरकार, पुलिस व एजेंसी का काम नहीं है. यह काम आम आदमी का है, क्योंकि माओवादी आम आदमी को ही लक्ष्य बना रहे हैं, इसलिए आम आदमी को सतर्क-जागरूक रहकर मुकाबला करने हेतु सदैव तैयार रहना होगा.

सत्य शोधक समिति ने भीमा-कोरेगांव दंगों के मास्टर माइंड माओवादियों का पर्दाफाश करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इस दौरान क्या आपको सरकार अथवा प्रशासन का कोई सहयोग मिला?

सत्य शोधक समिति का और सरकार का कोई संबंध नहीं है. हमने सरकार से कोई सहयोग नहीं मांगा और न ही किसी प्रकार की कोई अपेक्षा सरकार से की. देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते उक्त मामले में सच्चाई सामने लाने के लिए हमने अपना काम किया. हम निरंतर जन जागरूकता का कार्य करते हैं. उसी के अनुरूप हमने कार्य किया है.

शहरी नक्सलवाद का मुद्दा आए दिन मीडिया की सुर्खियों में रहता है. इस बारे में जानकारी दीजिए?

असल में नक्सलवाद नाम की कोई विचारधारा या संगठन अस्तित्व में नहीं है. माओवादियों ने नक्सलवाड़ी क्षेत्र में वर्ष 1967 में आंदोलन किया जो माओ की थ्योरी को लागू करने का प्रयास था, एक पैटर्न था. असलियत में वह नक्सलवाद नहीं है बल्कि विशुध्द रूप से माओवाद है. शहरी नक्सलवाद कोई नई बात नहीं है. वर्ष 1970 से ही अर्बन माओवाद की गतिविधियां शुरू हो गई थीं. अर्बन माओवाद की कोई स्पष्ट परिभाषा तो नहीं है, (लेकिन जंगल के सशस्त्र माओवादियों को) खाद-पानी, भरण-पोषण, आर्थिक सहयोग, आइडियोलॉजी, कार्यशैली आदि अर्बन माओवादियों द्वारा दी जाती है. बड़े पद पर बैठे तथाकथित बुध्दिजीवी वर्ग द्वारा गुमराह करने वाले तर्क के माध्यम से माओवादियों की हिंसक गतिविधियों को जायज ठहराने का प्रयास किया जाता है. उन्हें ही अर्बन (शहरी) माओवाद कहते हैं.

अर्बन माओवादियों की 2 प्रकार की गतिविधियां देखी गई हैं. एक समूह अंडर ग्राउंड होकर काम करता है तो दूसरा समूह प्रत्यक्ष रूप से काम करता है. 70 के दशक में माओवादियों को यह एहसास हुआ कि उनके सशस्त्र सैनिकों की जंगल की लड़ाई को सही साबित करने तथा उन्हें बचाने के लिए शहरों से समर्थन की जरूरत है. तब से ही अर्बन माओवाद की शुरूआत हुई है. माओवादी स्वयं अपने दस्तावेजों में स्वीकार करते हैं कि उनके तीन हथियार हैं. एक हथियार है उनकी पार्टी (मतलब सेंट्रल कमिटी और पोलित ब्यूरो जो उनके लिए रणनीति बनाते हैं) दूसरी है माओवादी सशस्त्र सेना और तीसरी है यूनाइटेड फ्रंट.

(जो माओवादियों के फ्रंट संगठनों का शहरों में फैला हुआ जाल है) यूनाइटेड फ्रंट में सभी तरह के लोग शामिल होते हैं. छात्र, कार्यकर्ता, सैनिक, वक्ता, नेता, एक्टीविस्ट, समाजसेवक, पार्टी आदि उनके सभी सहयोगियों का इसमें समावेश होता है. इनसे जुड़े हुए आदिवासियों को उन्होंने केवल मारने और मरने के लिए ही रखा है. उन्होंने कभी आदिवासियों को विकास के रास्ते पर नहीं लाया. उनकी सेन्ट्रल कमिटी, पोलित ब्यूरो में पिछले 50 वर्षों में एक भी आदिवासी अभी तक नहीं पहुंच पाया. जब भी उनके क्षेत्र में किसी नेता ने आदिवासियों के विकास की बात की तो उन्होंने उसे मौत के घाट उतार दिया. उदाहरण के तौर पर गड़चिरोली के पत्रुदुर्गे नामक आदिवासी उपसरपंच को माओवादियों ने सिर्फ इसलिए मार दिया क्योंकि वह आदिवासियों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए कार्य करने की योजना बना रहा था. वहीं दूसरा उदाहरण छत्तीसगढ़ के श्यामनाथ बघेल का है, जिन्हें माओवादियों ने इसलिए मारा कि वह गांव को हिंसामुक्त करने हेतु आदिवासियों की अगुवाई कर रहा था. जब-जब जगंल -गांव में आदिवासियों के बीच से ही कोई ऐसा नेता उभरकर सामने आया, जो विकास व प्रगति की बात करता हो, ऐसे लोगों की बड़ी ही निर्ममता से माओवादियों ने हत्या कर दी.

शहरों में फैलते अर्बन माओवाद को आप कितना खतरनाक मानती है?

इसे मैं सबसे बड़े खतरे के रूप में देखती हूं. मेरी नजर में समाज के लिए माओवाद बहुत बड़ा गंभीर व संवेदनशील खतरा बना हुआ है. हमें बाहरी दुश्मन देशों से जितना खतरा नहीं है, उससे अधिक खतरा माओवाद से है. दुश्मन देश सरहदों पर लड़ते हैं और उनसे लड़ने हेतु हमारी भारतीय सेना पूरी तरह सक्षम व सतर्क है, किंतु देश के अंदर ही चल रहे माओवादियों की युध्दक गतिविधियों से हमारा समाज अंजान है. उन्हें नहीं पता कि माओवादी विचारधारा क्या है? उन्हें नहीं पता कि माओवादी देशद्रोही-समाजद्रोही हैं. जिस समाज को यह पता नहीं है कि हमारा दुश्मन कौन है, उससे भला वह समाज कैसे लड़ सकता है? शहरी माओवाद के बारे में वर्ष 2006 में शिवराज पाटील ने लोकसभा में कहा था कि शहरी माओवादी शहर के ढांचे को लक्ष्य बनाना चाहते हैं. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीय गृहमंत्रालय द्वारा वर्ष 2013 के दौरान हलफनामा दायर किया था, जिसमें बताया गया था कि जंगलों के माओवादियों से ज्यादा खतरनाक शहरी माओवादी हैं. बुध्दिजीवियों, एनजीओ, मानव अधिकार संस्थाओं आदि अनेक प्रकार की संस्थाओं के माध्यम से वे काम करते हैं. यदि इनके खिलाफ सरकार या पुलिस प्रशासन कार्रवाई करना चाहती है तो सभी संस्थाएं एकजुट होकर शासन-प्रशासन पर हमला बोल देती हैं. उन्हें अनेक माध्यमों द्वारा इतना बदनाम किया जाता है कि कोई भी कार्रवाई करना मुश्किल हो जाता है. शहरी माओवादियों का प्रोपगेंडा तंत्र इतना मजबूत है कि वह आसानी से किसी भी मामले से बच निकलते हैं. ये सारी बातें 2013 में ऑन रिकार्ड दर्ज हैं. जे.एन. साई बाबा मामला, 2007 में वर्णन गोन्सालविस, और श्रीधर श्रीनिवासन के मामलों में भी ऐसा ही हुआ था. वर्ष 2013 में लोकसभा में माओवादियों के 74 संगठनों के नाम सामने आए थे. जिनमें कबीर कला मंच का नाम भी शामिल है.

पहले आप भारतीय सेना में कैप्टन की भूमिका में थीं, अब सामाजिक कार्यों में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं. आपकी जीवन यात्रा के बारे में कुछ बताइये?

ग्रैज्युएशन करने के बाद मैं सेना में भर्ती हो गई, 05 वर्ष सेना में काम किया, इस दौरान मैंने अरूणाचल, पठानकोट (पंजाब) एवं बैंगलुरू में काम किया. इसके बाद मैंने कॉरपोरेट क्षेत्र में काम किया. समाजसेवा में मुझे पहले से ही दिलचस्पी थी, इसलिए सामाजिक क्षेत्र में आ गई. देश के लिए खतरा बने माओवाद के विषय को लेकर मैं विशेष रूप से काम कर रही हूं.

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