संवाद से सुस्पष्ट दृष्टिपथ की ओर

– जे. नंदकुमार जी,

अखिल भारतीय सह—प्रचार प्रमुख, रा.स्व.संघth

भारतीय दर्शन का मूल तत्व है विचार मंथन. स्वस्थ चर्चा और रचनात्मक संवाद ने इस महान राष्ट्र की प्रगति में एक बड़ी भूमिका निभाई है. हमारी मनीषा की विशिष्टता है, ज्ञान वितरित करने की अनूठी परंपरा. यह न तो इकतरफा सम्बन्ध है, और न ही दोतरफा. भारतीय संचार की प्रकृति और प्रवृत्ति हमेशा बहुमुखी रही है. इसमें पूरा समाज सहभागी होता है, इतना ही नहीं तो, प्रकृति का भी ध्यान रखा जाता है. इसलिए, संवाद की हमारी शैली व्यापक है, और इसे ठीक से समझने के लिए, समग्रता से देखने और महसूस करने आवश्यकता है.

हमारी संवाद परंपरा का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है, इसकी उपयोगिता या अंतिम परिणाम विषयक अवधारणा. हमारे प्राचीन और आधुनिक ऋषियों ने हमेशा स्पष्ट रूप से यह कहा है कि ‘यह केवल बहस के लिए, अंक प्राप्ति के लिए या किसी भी कीमत पर जीतने के लिए नहीं है, यह समझने और समझने देने के लिए है. जब हम भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा के विषय में विचार करें, तब इस जीतो-जीतो (विन-विन) तत्व को भी ध्यान में रखें. महान विचारक और लेखक फ्रेड दालमर्यर ने भारतीय संवाद के तरीके की शक्ति का लोहा माना था. उन्होंने पश्चिमी महानगरीय विचारों की तुलना संवाद की भारतीय शास्त्रीय विधि के साथ की, और पश्चिम के समक्ष स्पष्ट किया कि कैसे साम्राज्यवाद और एकतरफा वर्चस्व के चिन्हों को विश्वबंधुत्व से साफ करना चाहिए. उन्होंने कहा कि गैर पश्चिमी परंपराओं के समानांतर, इस प्रयत्न के सफल होने की अधिक संभावना है. सार्वभौमिक ‘ब्राह्मण’ की भारतीय शास्त्रीय अवधारणा में इसके चिन्ह मिल सकते हैं …..”

एक अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्ष मानवता और प्रकृति के विभेद तथा स्वस्थ संबंधों के बारे में इस प्रकार है – “मैं एक विभेदित पूर्णता या समग्रता के पक्ष में तर्क देता हूँ, पूर्णता ना तो पूरी तरह एकरूपता लाने की विशिष्टता के प्रlokति उदार है, और ना ही एक दूसरे से अलगाव या सम्बन्ध विच्छेद में. इस प्रकार के दृष्टिकोण को भरपूर समर्थन एशियाई विचार परंपराओं में मिलता रहा है, विशेष रूप से उपनिषद् की ‘ब्राह्मण’ धारणा में, भारतीय दर्शन  के ‘अद्वैत वेदांत’ में ….. “(Return to Nature)

जैसा कि प्रारम्भ में उल्लेख किया गया, हमारे बौद्धिक विचार-विमर्श या मंथन (मंथन) का स्वरुप हमेशा सामाजिक रहा है. इसी संदर्भ में, लोकमंथन की समग्र प्रासंगिकता है. इससे उन लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा जो विचारवान हैं तथा विचारों के अनुरूप कार्य करने की क्षमता रखते हैं. इसमें हमारे समाज के वास्तविक प्रतिनिधि, राष्ट्र और राष्ट्रीय मुद्दों व चुनौतियों पर विचार करने के लिए आ रहे हैं. राष्ट्र की सबसे सरल और सार्थक परिभाषा है, ‘समान संस्कृति, परंपरा, जीवन शैली और आस्था विश्वास वाले लोगों का समूह एक राष्ट्र है’. जहां तक हमारे देश का सवाल है, यह पूरी तरह से सच है. हम न तो किसी अधिनायकवादी शासक की वजह से एक हैं, और न ही किसी संविधान या किसी एक आम भाषा की वजह से. हम थे और हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा और रीति रिवाज एक समान हैं. हमारी संस्कृति की यह समानता हमारे आम लोगों के जीवन में प्रकट होती है. डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत में जाति’ में इसे संक्षेप में इस प्रकार लिखा है ‘संस्कृति की एकता ही हमारी एकरूपता का आधार है, इसी आधार पर मैं कहना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक एकात्मता के प्रति सम्मान में, कोई भी देश भारतीय प्रायद्वीप का मुकाबला नहीं कर सकता. यह केवल एक भौगोलिक एकता नहीं है, बल्कि यह उससे परे बहुत गहरी और बहुत अधिक मौलिक, सांस्कृतिक एकता है, जिसने पूरे देश को आच्छादित किया हुआ है.

इस सांस्कृतिक एकता का सौंदर्य और शक्ति ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रदर्शित होता है. सांसारिक, धर्मनिरपेक्ष मामलों से लेकर बुलंद आध्यात्मिक पहलुओं तक इसमें अंतर्निहित एकता को महसूस किया जा सकता है. हमारी शाश्वत भारतीय आत्मा की विशिष्टता पर्यावरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण में भी झलकती है. मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति की अवधारणा, मानव को महान बनने की प्रेरणा देती है. बीज बोते समय और खेतों में समवेत गाये जाने वाले गीतों में, संचलन करते सैनिकों की लय में और हर जगह स्पष्ट रूप से राष्ट्र की धड़कन का अनुभव किया जा सकता है. इसलिए भगिनी निवेदिता ने अपने मौलिक कार्य “भारतीय जीवन की लहर” में कहा – भोजन और स्नान, सामान्यतः नितांत व्यक्तिगत स्वार्थपरक कार्य हैं, किन्तु यहाँ ये भी महान सांस्कारिक कार्य है, हर बिंदु सामाजिक सम्मान और पवित्रता के जुनून से संरक्षित है.

वैसा ही साहित्य, नाटक, संगीत, त्योहारों, समारोह और बाकी सबमें देखने को मिलता है. केवल एक चीज की आवश्यकता है, और वह है एकात्मता के कारक तत्वों को खोजने की दृष्टि. हम सबको एक साथ मजबूती से बांधे रखकर मजबूती देने वाले सूक्ष्मतम तत्व को समझना इतना आसान नहीं है, अतः उसे ठीक से जानने समझने के लिए बौद्धिक मंथन आवश्यक है. इसीलिए लोकमंथन महत्वपूर्ण है. इसी परिप्रेक्ष्य में जमीनी स्तर पर काम करने वाले शीर्ष स्तर के बुद्धिजीवी एक साथ यहाँ एकत्रित हो रहे हैं. दार्शनिकों और कलाकारों के एक साथ बैठने का उद्देश्य एक ही है, और वह है समाज को सशक्त बनाने के उपायों की खोज. वैज्ञानिक और शिल्पकार एक छत के नीचे रहकर हमारे देश और उसके भविष्य, वर्तमान समय और परिस्थिति पर विचार करेंगे. इस दृष्टि से यह एक अनूठा प्रयोग होगा.

हमें एकजुट रखने वाली उपरोक्त आंतरिक शक्ति के पहलुओं के साथ-साथ, राष्ट्र को दुर्बल करने वाली विभाजनकारी शक्तियां भी अत्यधिक सक्रीय हैं. हमें समाज में बढ़ते उस खतरनाक रुझान से भी सतर्क रहने की आवश्यकता है. इस विभाजनकारी मानसिकता के मुख्य रूप से दो दुष्प्रभाव हो रहे हैं. उपनिवेशवाद का पहला प्रभाव तो यह है कि इसके चलते हमारी महत्वपूर्ण बौद्धिक प्रणाली लगातार पटरी से उतर रही है. जैसा कि डॉ. कोठारी ने अपनी शैक्षिक आयोग की रिपोर्ट में कहा – हमारी शिक्षा के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र यूरोप की ओर स्थानांतरित कर दिया गया है. हमारे शिक्षाविदों का मुख्य कार्य यह होना चाहिए कि यह पुनः हमारे देश की और लौटे, भारत केंद्रित हो. लेकिन इस पूरी कहानी का लब्बोलुआब यह है कि, हमारी स्वतंत्रता के 70 वर्षों बाद भी, हम एक सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तलाश कर रहे हैं. हमारे राष्ट्रीय जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र शिक्षा में इस औपनिवेशवादी मानसिकता की शक्ति और प्रभाव आज भी दिखाई देता है. इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला, साहित्य और न्यायशास्त्र आदि अन्य क्षेत्रों के बारे में तो ज्यादा विस्तार में जाने की जरूरत ही नहीं है. अतः कर्तव्य के साथ-साथ यह हमारा नैतिक दायित्व भी है कि हम उपनिवेशवादी गुलाम मानसिकता से बाहर निकलने का मार्ग खोजें, और भारतीय मन को इसके लिए तैयार करने का कोई सूत्र निकालें.

इन ताकतों का अगला चरण है विभाजनकारी विचारधारा और गतिविधियों, पुरातन कालीन धार्मिक वर्ग में संघर्ष भड़काना. वे हमारे मतभेदों को उजागर करने और तथाकथित वर्गों के बीच गलतफहमी निर्माण करने में अत्यंत निपुण हैं. लोगों के बीच असमानता की खाई को चौड़ा करना इनके लिए कोई मुश्किल भी नहीं है. क्योंकि सबके रंग, शरीर की संरचना, पोशाक, भाषा, रहने की जगह और जन्म कभी समान हो भी नहीं सकता. लेकिन ये मार्क्सवादी धर्मशास्त्री, स्वयं को महान बुद्धिजीवी के रूप में प्रस्तुत करते है, बहुत ही साधारण सी और छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ बनाकर परपीड़ा में आनंद का अनुभव करते हैं. वे एक ऐसी विचारधारा के माध्यम से समाज में अराजकता और भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं जो सिद्धांत रूप में दोषपूर्ण और व्यवहार में खतरनाक है. इसके अतिरिक्त उनके मन में भारत के लिए कोई प्यार नहीं है. उनकी नजर में भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि कई अलग-अलग देशों का एक समूह है. सन् 1925 में भारतीय कम्युनिस्टों के प्रमुख प्रेरणास्त्रोत स्टालिन ने अपने जीवनकाल में लिखा था – वर्तमान में भारत को समग्र रूप से एक कहा जाता है. फिर भी क्रांतिकारी उथल-पुथल के बाद असंदिग्ध रूप से अलग भाषा और अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति के साथ भारत में कई राष्ट्रीयता उभरेंगी. सन् 1962 में भारत के खिलाफ हुए चीनी आक्रमण के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों की भूमिका आज भी, हमारी स्मृति में ज्वलंत है.

हम एकीकरण के दर्शन में विश्वास करते हैं, टकराव में नहीं. हम विस्तार के मार्ग का अनुसरण करते हैं, संकुचन का नहीं. हमारे जीवन का हर प्रयास, विशेष रूप से बौद्धिक विचार-विमर्श के मामले में, हम हमारे अस्तित्व के ब्रह्मांड का विस्तार करने हेतु प्रयत्नशील हैं. दृढ़निश्चय पूर्ण इस अभ्यास में हमारी पारंपरिक छोटी पहचानों को दरकिनार कर बड़ी पहचान के साथ विलय करना होगा. यह हमारा युग है – खुद को सुधारने की हमारी पुरातन पद्धति और मुक्ति का मार्ग है. इस विचार विमर्श के दौरान इन सभी पहलुओं पर चर्चा होगी.

एक राष्ट्र के रूप में, हम मानव जाति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं. हमने पूर्व से ही स्वयं को एक युवा राष्ट्र के रूप में बदल दिया है. वैसे भी हमारा देश सदा से प्राचीन और युवा दोनों रहा है – चिर पुरातन – नित नूतन. हमारी विशाल युवा आबादी न केवल हमारे देश के भाग्य का निर्धारण करने जा रही है और साथ ही असंदिग्ध रूप से दुनिया का भी. जब मैं कहता हूँ कि दुनिया का भी, तब यह कोई आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति नहीं है. ब्रिटिश इतिहासकार अर्नोल्ड तोयन्बी के शब्द भी मेरे पक्ष में पर्याप्त गवाही देते हैं. उन्होंने कहा था – आईये अब भारत की ओर मुड़ें. आदमी को मानव बनाने वाला आध्यात्मिक उपहार, अभी भी भारतीय आत्मा में जीवित है. जाईये और विश्व को भारतीय उदाहरण बताईये. मानव जाति को विनाश से बचाने में मदद और किसी प्रकार नहीं हो सकती. एक ही परम सत्य हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है, और मोक्ष का एक ही अंतिम मार्ग है, हम नहीं जानते. लेकिन हम जिसे नहीं जानते, उस सत्य को जानने के वहाँ एक से अधिक दृष्टिकोण हैं, साथ ही एक से अधिक मुक्ति के साधन भी. यहूदी परिवार (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) के उच्च धर्मावलम्बियों के लिए यह कहना कठिन है, लेकिन हिंदुओं के लिए यही स्वयंसिद्ध सत्य है. आपसी सद्भावना, सम्मान, और सत्य से प्रेम … भारतीय परिवार के धर्मों की पारंपरिक भावना है. यही इस दुनिया के लिए भारत का उपहार है.

इस विकास का सबसे प्रेरणादायी भाग इसका प्रेरणादायक और आकांक्षी स्वभाव है. हमारे युवा उत्साही विश्वासपात्र और मेहनती हैं. वे हमारे भविष्य की आशा हैं. समय की मांग है कि हमारे शाश्वत और समय की कसौटियों पर खरे दर्शन के आधार पर उनके उत्साह को दिशा दें. उन्हें विभाजनकारी ताकतों द्वारा बनाए गए भ्रमजाल से बचाया जाये. इसका मतलब यह नहीं है कि उन पर कोई पारलौकिक बौद्धिक आवरण चढ़ाया जाए. लोकमंथन उन्हें स्वयं के विषय में तथा अपने आसपास के बारे में सोचने समझने के लिए एक मंच प्रदान करेगा. यह उन लोगों को स्वयं तथा राष्ट्र के समग्र विकास का अर्थ समझने का अवसर देगा. इसलिए निश्चित रूप से इस पूरी कवायद का ध्यान और लक्ष्य हमारे उत्साही युवा हैं, जो प्रेरणा से भरपूर है, और प्रेरणा भी उच्चतम स्तर की.

संक्षेप में, लोकमंथन, ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से ओतप्रोत विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का देश और दुनिया को प्रभावित करने वाले समसामयिक मुद्दों पर विचार विनिमय का सार्वजनिक मंच है. इस राष्ट्रीय सम्मेलन का मूल मन्त्र है – विकास को उपकरण बनाकर, सहानुभूति और संवेदनशीलता पूर्वक – राष्ट्रवाद, आकांक्षाओं, सामाजिक न्याय और समरसता के समन्वित अभ्युदय से सामाजिक गतिशीलता.

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