समृद्धि और संस्कृति साथ-साथ चलनी चाहिए, तभी भारत समृद्ध बनेगा – डॉ. बजरंग लाल गुप्त जी

नई दिल्ली (इंविसंके). pic-1-300x169प्राचीन भारत की समृद्ध अर्थव्यवस्था एवं तत्कालीन सामाजिक ताने-बाने पर आधारित पुस्तक ‘प्राचीन भारतीय अर्थ-चिंतन’ पुस्तक का लोकार्पण डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने किया. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्वर्गीय गोविन्द राम साहनी द्वारा लिखित पुस्तक को कांस्टीट्यूशन क्लब में 28 जून को प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया. इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उत्तर क्षेत्र संघचालक डॉ. बजरंगलाल गुप्त जी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. पंचमुखी तथा रमेश चंद नागपाल जी ने पुस्तक के विषय पर विचार व्यक्त किये.

डॉ. बजरंग लाल गुप्त जी ने स्वर्गीय गोविन्द राम साहनी से अपने आत्मीय संबंधों का उल्लेख करते हुए कहा कि इतना समृद्ध देश भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता रहा, दुनिया के देश यहाँ व्यापार करने और लूट-पाट करने के लिए भी आए. बिना अर्थ चिंतन के ऐसा वैभव संपन्न देश नहीं बनाया जा सकता. हमारे मनीषियों ने कौन से आर्थिक नीति नियम बनाए थे, जिन पर चल कर भारत पूर्व काल में इतना समृद्ध बना? इस प्रश्न के उत्तर के लिए गोविन्द राम साहनी की निरंतर साधना से इस पुस्तक का जन्म हुआ. भारतीय अर्थ दृष्टि और पश्चिम की अर्थ दृष्टि में अंतर बताते हुए कहा कि पश्चिम में इसे भौतिक कल्याण का शास्त्र बताया गया है जो केवल धन से बंधा हुआ है. भारत के मनीषियों ने अर्थ और काम को नकारा नहीं किन्तु इसे कैसे अर्जित किया जाए, उसके लिए धर्म का मार्ग दिखाया. भारतीय शास्त्रों में मर्यादा को ध्यान में रखते हुए धन को कमाना बताया गया है. व्यक्ति, समाज तथा सृष्टि का जिन तौर-तरीकों, नीति-नियमों, मर्यादाओं से धारण, रक्षण, पोषण होता हो, वह धर्म है. इसलिए यहां अर्थ को धर्म से जोड़ा गया है. वर्तमान समय की अर्थव्यवस्था में कीमत निर्धारण, ब्याज और उसके प्रकार, ऋण वसूली के नियम जैसी अनेक बातें प्राचीन काल से ही भारतीय मनीषियों ने शास्त्रों में लिखी हुई हैं. वर्तमान समय में भी उन्हीं बातों को अपनाकर अर्थाचार और सदाचार दोनों को मिलाकर चलना पड़ेगा, समृद्धि और संस्कृति दोनों साथ-साथ चलेंगी, तभी भारत पुनः सही मायने में समृद्ध बनकर विश्व को राह दिखाएगा.

डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि दायित्व के प्रति समर्पित गोविन्द राम जी जैसे व्यक्ति देश में कम हो रहे हैं, यह चिंता का विषय है. पुस्तक के अनेक विषयों को बताते हुए उन्होंने कालगणना के संबंध में कहा कि भारतीय कालगणना में हम सृष्टि की उत्पत्ति से ही मनुष्य के रूप में कार्यशील रहे हैं, पाश्चात्य कालगणना में सृष्टि की उत्पति के हजारों सालों बाद मनुष्य की वर्तमान स्वरूप से अलग उपस्थिति को बताया गया है. उन्होंने चिंता प्रकट करते हुए कहा कि विश्व में आज मानवों के बीच उपभोग में जो बहुत बड़ा अंतर आया है, वह पाश्चात्य आर्थिक चिंतन की देन है. भारतीय अर्थ चिंतन में स्वामी, सेवक को भोजन कराने के बाद ही भोजन करता है, अकेले भोजन करना अच्छा नहीं माना गया है. अर्थात यहां सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मान कर सभी की आवश्यकताओं को पूरा करने की बात शास्त्रों में बताई गयी है. केवल स्वयं के लिए अर्जित करना पशु प्रवृत्ति कही गई है, क्योंकि पशु का अर्थ है (पाश्य) जो किसी से बंधा हो. केवल स्वयं के लिए ही उपभोग करने की पशु प्रवृत्ति से मनुष्य स्वाधीन रहकर समाज, देश और विश्व के हित में कार्य करते हुए स्वयं को मनुष्य साबित करे.

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