13 जुलाई—बाजीप्रभु देशपाण्डे का बलिदान दिवस
नई दिल्ली. छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा हिन्दू पद-पादशाही की स्थापना में जिन वीरों ने नींव के पत्थर की भांति स्वयं को विसर्जित किया, उनमें बाजीप्रभु देशपाण्डे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. एक बार शिवाजी 6,000 सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ में घिर गये. किले के बाहर सिद्दी जौहर के साथ एक लाख सेना डटी थी. बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने अफजलखां के पुत्र फाजल खां के शिवाजी को पराजित करने में विफल होने पर उसे भेजा था. चार महीने बीत गये. एक दिन तेज आवाज के साथ किले का एक बुर्ज टूट गया. शिवाजी ने देखा कि अंग्रेजों की एक टुकड़ी भी तोप लेकर वहां आ गयी है. किले में रसद भी समाप्ति पर थी.
साथियों से परामर्श में यह निश्चय हुआ कि जैसे भी हो, शिवाजी 40 मील दूर स्थित विशालगढ़ पहुंचें. 12 जुलाई, 1660 की बरसाती रात में एक गुप्त द्वार से शिवाजी अपने विश्वस्त 600 सैनिकों के साथ निकल पड़े. भ्रम बनाये रखने के लिए अगले दिन एक दूत यह सन्धिपत्र लेकर सिद्दी जौहर के पास गया कि शिवाजी बहुत परेशान हैं, अतः वे समर्पण करना चाहते हैं. यह समाचार पाकर मुगल सैनिक उत्सव मनाने लगे. यद्यपि एक बार उनके मन में शंका तो हुई, पर फिर सब शराब और शबाब में डूब गये. समर्पण कार्यक्रम की तैयारी होने लगी. उधर, शिवाजी का दल तेजी से आगे बढ़ रहा था. अचानक गश्त पर निकले कुछ शत्रुओं की निगाह में वे आ गये. तुरन्त छावनी में सन्देश भेजकर घुड़सवारों की एक टोली उनके पीछे लगा दी गयी. पर, इधर भी योजना तैयार थी. एक अन्य पालकी लेकर कुछ सैनिक दूसरी ओर दौड़ने लगे. घुड़सवार उन्हें पकड़कर छावनी ले आये, पर वहां आकर उन्होंने माथा पीट लिया. कारण, पालकी में नकली शिवाजी थे. नये सिरे से फिर पीछा शुरू हुआ. तब तक महाराज तीस मील पारकर चुके थे, पर विशालगढ़ अभी दूर था. इधर शत्रुओं के घोड़ों की पदचाप सुनायी देने लगी थी. इस समय शिवाजी एक संकरी घाटी से गुजर रहे थे. अचानक बाजीप्रभु ने उनसे निवेदन किया कि मैं यहीं रुकता हूं. आप तेजी से विशालगढ़ की ओर बढ़ें. जब तक आप वहां नहीं पहुंचेंगे, तब तक मैं शत्रु को पार नहीं होने दूंगा. शिवाजी के सामने असमंजस की स्थिति थी, पर सोच-विचार का समय नहीं था. आधे सैनिक बाजीप्रभु के साथ रह गये और आधे शिवाजी के साथ चले. निश्चय हुआ कि पहुंच की सूचना तोप दागकर दी जाएगी.
घाटी के मुख पर बाजीप्रभु डट गये. कुछ ही देर में सिद्दी जौहर के दामाद सिद्दी मसूद के नेतृत्व में घुड़सवार वहां आ पहुंचे. उन्होंने दर्रे में घुसना चाहा, पर सिर पर कफन बांधे हिन्दू सैनिक उनके सिर काटने लगे. भयानक संग्राम छिड़ गया. सूरज चढ़ आया, पर बाजीप्रभु ने उन्हें घाटी में घुसने नहीं दिया. एक-एक कर हिन्दू सैनिक धराशायी हो रहे थे. बाजीप्रभु भी सैकड़ों घाव खा चुके थे, पर उन्हें मरने का अवकाश नहीं था. उनके कान तोप की आवाज सुनने को आतुर थे. विशालगढ़ के द्वार पर भी शत्रु सेना का घेरा था. उन्हें काटते मारते शिवाजी किले में पहुंचे और तोप दागने का आदेश दिया.
इधर, तोप की आवाज बाजीप्रभु के कानों ने सुनी, उधर उनकी घायल देह धरती पर गिरी. शिवाजी विशालगढ़ पहुंचकर अपने उस प्रिय मित्र की प्रतीक्षा ही करते रह गये, पर उसके प्राण तो लक्ष्य पूरा करते-करते अनन्त में विलीन हो चुके थे. बाजीप्रभु देशपाण्डे की साधना सफल हुई. तब से वह बलिदानी घाटी (खिण्ड) पावन खिण्ड कहलाती है.