ब्रज (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ का कार्य ही संपूर्ण समाज में समरसता स्थापित करना है. देश के साथ ही संपूर्ण विश्व में भी समरसता स्थापित करना है. जब हम समूह में खड़े होते हैं, तब एकता की आवश्यकता पड़ती है. व्यक्ति को खड़ा होना है तो सभी अंगों का ठीक होना जरूरी है. इसी प्रकार समरसता के लिए सभी का एकत्रीकरण जरूरी है. सरसंघचालक जी 24 फरवरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आगरा विभाग द्वारा आयोजित समरसता संगम में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि हम सब एक हैं, इसका मतलब यह नहीं कि मैंने भोजन कर लिया, तो हो गया. सब अलग हैं, यह दुनिया का चलन है, लेकिन भारत का नहीं. साधन हैं, लेकिन कम हैं. ऐसे में हमें चलना नहीं, दौड़ना है. जीवन में संघर्ष करना पड़ता है. जो बलवान है, उसकी विजय होती है और दुर्बल की पराजय. इसलिए बलवान बनो, बलवान के साथ बुद्धि होती है तो अपने बल का प्रयोग सब के लिए करता है. अच्छा सोचने वाले और खराब सोचने वालों में संघर्ष होता है. यह हमने पिछले दो हजार वर्षों में देखा भी है.
सरसंघचालक जी ने कहा कि आज दुनिया बड़ी आशा से भारत की ओर देख रही है. भारत की परंपरा कहती है कि हम दिखते अलग-अलग हैं, लेकिन हैं एक ही. एक होने पर अलग-अलग व्यवहार नहीं होगा. विविधता के मूल में एकता है और एकता ही विविधता बनी है. हम मानव ही नहीं, वरन पशु में भी अपने आप को देखते हैं. उन्होंने स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण देते हुए कहा कि दक्षिणेश्वर के पंचवटी में गाय घास खाते हुए गंगा नदी की ओर गई तो गाय के खुर से मिट्टी के रूदने के चिन्ह परमहंस की छाती पर दिखे, ऐसा वृतांत कहा जाता है. इसलिए यहां अस्तित्व को लेकर संघर्ष नहीं है.
डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि भारत में समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज बनाना होगा. दुनिया भारत की ओर देख रही है. इसलिए समन्वय से चलो. गाय, तुलसी, नदी को माता मानों. माता के प्रति आत्मीयता का भाव रखो. एकता से त्याग का साक्षात्कार करो तो जीवन के सभी लक्ष्य पूरे हो जाएंगे.
हम वर्षों से भ्रम के कारण अपने ही लोगों से लड़ रहे हैं. हम सभी भारत माता के पुत्र हैं और भारत माता की रक्षा के लिए पूरे समाज को खड़ा होना पड़ेगा. हमारी मातृभूमि भारत है. हम उस परंपरा से हैं, जहां पर हमारे पूर्वजों ने खून-पसीना बहाया है. सुविधा-असुविधा में भी हम सुख से रहते हैं. सनातन हिन्दू संस्कृति को भारतीय संस्कृति कहते हैं.
हजारों वर्षों से हमारे भीतर विषमता की आदतें पड़ी हैं. व्यायाम योग द्वारा इसे दूर करना होगा. उन्होंने कहा कि संघ इसी विषमता को दूर करने का कार्य कर रहा है. यहां स्वार्थ नहीं है. देना ही देना है. कोई किला फतह नहीं करना. तन, मन भारत माता को समर्पित करना है. संघ की कार्यपद्धिति और प्रार्थना के प्रारंभ और अंत में भारत माता की जय बोली जाती है. स्वयंसेवक बाहर की दुनिया को भूलकर अपने राष्ट्र का वंदन करता है. आज संघ के स्वयंसेवकों द्वारा एक लाख 70 हजार से ज्यादा सेवा कार्य किए जा रहे हैं. वंचितों के लिए सुदूर प्रांतों में कार्य किए जा रहे हैं. आपदा में राहत कार्यों में स्वयंसेवक ही पहले पहुंचता है. आज संघ के विचारों से विपरीत विचार रखने वाले भी संघ के सेवा कार्यों की चर्चा करते हैं.