सबरीमला मंदिर मामला: वामपंथी राज में हिंदू परंपरा पर आघात

क्या ये वास्तव में नारी अधिकार की लड़ाई है ? या लैंगिक भेदभाव का मामला है? जैसा कि सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश पर अड़े चंद एक्टिविस्टों का दावा है, जिन्हें चेहरा बनाकर वामपंथी राजनीति पांसे फेंक रही है । सबरीमला मीडिया में छाया हुआ है। केरल उबल रहा है। मंदिर में प्रवेश की जिद के विरोध में भगवान् अयप्पा के भक्त सड़कों पर उतर रहे हैं, जिनमें लाखों महिलाएं हैं। महीनों से चल रहे विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए सत्तारूढ़ वामपंथी पार्टी ने भी अपने कार्यकर्ताओं द्वारा राज्यव्यापी प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसमें बडी संख्या में बुर्का पहने हुए मुस्लिम महिलाएं और चर्च के संगठन शामिल हुए। इन तस्वीरों के सामने आने पर देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। सोशल मीडिया पर लोगों ने प्रश्न उठाया कि क्या मंदिर में प्रवेश के लिए प्रदर्शन कर रहे मुस्लिम और ईसाई नागरिक भी भगवान् अयप्पा पर आस्था रखते हैं क्योंकि दोनों ही मज़हबों में मूर्ति पूजन का निषेध है? बुर्के में कैद महिलाओं की विशाल उपस्थिति ने तथाकथित “समानता” की इस लड़ाई में निहित विरोधाभास को उभारा ही। सो, आस्था का दृष्टिकोण हो या समानता की चर्चा, सबरीमला मामला गंभीर विमर्श की मांग कर रहा है
हिंदू दर्शन और अब्राहमिक चश्मा –
हिंदू दर्शन या भारतीय उपासना परंपरा को न समझ सकने के कारण और, अनजाने तथा जानबूझकर की गई गलत व्याख्याओं ने, भ्रम का वातावरण बनाया है| हिंदू दर्शन की परमात्मा और जगत को देखने की दृष्टि अब्राहमिक मज़हबों ( इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी) से बिलकुल अलग है। ईसाई और इस्लामी विश्वास के अनुसार ईश्वर इस जगत का शासक है। दूर आसमान में या जन्नत में रहता है। एक मुस्लिम अथवा ईसाई, अल्लाह या गॉड के सामने सर झुकाकर उसके प्रति वचनबद्ध होता है। वो ईश्वर के समक्ष शपथ लेता है कि वो उसमें और उसके पैगंबर में (ईसाईयों में : ईश्वर पुत्र जीसस में) अकीदा (विश्वास) लाता है। इस वचन की याद वह प्रतिदिन करता है। जिसके बदले में जन्नत मिलेगी, ऐसा उसका विश्वास होता है। उसका यह भी विश्वास होता है कि ऐसा न करने पर मृत्यु के बाद अनंतकाल तक जहन्नुम की आग में जलना पडेगा| अल्लाह या गॉड से निवेदन का दोनों का अपना-अपना, एकमात्र और निश्चित तरीका है , नमाज़ और प्रेयर। जिसमें कोई विकल्प नहीं है। कोई चयन की स्वतंत्रता नहीं है।
इसके बिलकुल उलट है हिंदू दर्शन और हिंदू जीवन पद्धति। यहां ईश्वर जगत का शासक नहीं है। वो सुदूर आकाश में नहीं रहता। प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में वास करता है। वो ज्ञान स्वरुप है | उससे जुड़ने के लिए किसी करार या वचनबद्ध होने की आवश्यकता नहीं है। वो नर्क का दंड अथवा स्वर्ग का पुरस्कार नहीं देता। यहां तो कर्मफल का सिद्धांत है, कि हर मनुष्य अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार फल पाता है। हिंदू दर्शन के अनुसार,ईश्वर दूर बैठा कोई महाशक्तिशाली नहीं है, जो हमसे सर झुकाने और उस पर विश्वास करने की माँग करता है। वो हमारे अंदर का ही प्रकाश है, जिसे खोजने के लिए, जिसे पाने के लिए, साधना और उपासना के हजारों तरीके हैं |
यहीं से बड़ा अंतर पैदा हो जाता है। यहां मंदिर प्रार्थना के स्थान नहीं हैं बल्कि साधना का केंद्र हैं। इस्लाम में नमाज़ और ईसाईयत में प्रेयर के अलावा कोई विकल्प नहीं है, उनका उद्देश्य भी एकदम भिन्न है। इसलिए साधना और उपासना की धारणा भी विशुद्ध रूप से हिंदू है। साधना आत्म शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। यह हर व्यक्ति के लिए बिलकुल व्यक्तिगत और भिन्न हैं। इसलिए कोई शिव की उपासना करता है, कोई राम की, तो कोई कृष्ण अथवा दुर्गा की। योग-प्रेम-भक्ति-निष्काम कर्म आदि अलग-अलग साधना के रास्ते हैं। हजारों देवी-देवता, ईश्वर के अलग-अलग रूप, स्वयं महान साधकों ने ही गढ़े हैं, और सदा नए-नए रूपों के सामने आने की संभावना मौजूद है| इसीलिए हिंदू दर्शन में साधना की हजारों पद्धतियां जन्मीं। और सब अलग-अलग हैं। ज्यादातर साधना पद्धतियां स्त्री –पुरुष दोनों के लिए हैं। इसलिए सारी दुनिया में फैले लाखों मंदिरों और तीर्थों में स्त्री-पुरुष दोनों जाते हैं। लेकिन कुछ साधना पद्धतियां केवल स्त्रियों के लिए हैं, इसलिए उन स्थानों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित है। जबकि कुछ साधना पद्धतियाँ केवल पुरुषों के लिए हैं, वहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। ऐसे ही गिने-चुने स्थानों में से एक है सबरीमला।
जहां पुरुषों का प्रवेश निषेध है ऐसे कई मंदिर हैं जैसे केरल के त्रिवेंद्रम स्थित अत्तुकल मंदिर, थलावाड़ी का चक्कुलाथुकावु मंदिर, पुष्कर (राजस्थान) का ब्रह्मा मंदिर , जिसके गर्भगृह में विवाहित पुरुषों का प्रवेश वर्जित है, कन्याकुमारी का भगती माँ मंदिर, इसी तरह, बिहार के मुजफ्फरपुर का माता मंदिर, जहाँ वर्ष में एक विशेष समय पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है| ये परंपरा समाज द्वारा सहजता से स्वीकृत है।
जब कुछ मंदिरों में पुरुषों को प्रवेश न देने से पुरुषों के साथ अन्याय नहीं होता, तो फिर सबरीमला अन्याय का प्रतीक कैसे बन गया? लेकिन इन सारी बातों की उपेक्षा कर इसे नारी विरोधी परंपरा बतलाया जा रहा है|
क्या लड़कियों की क्रिकेट या फुटबाल टीम में पुरुषों को प्रवेश न देना लैंगिक असमानता है ? क्या प्रसूतिकागृह में पुरुष को भर्ती न करना पुरुष के साथ अन्याय है? इतनी सीधी और साफ़ बात इन तथाकथित ‘एक्टिविस्टों’ को क्यों समझ नहीं आती?
विचित्र तर्क, बेमेल तुलना –
जहां वास्तव में प्रश्न उठने चाहिए वहां सन्नाटा पसरा हुआ है। हिंदू परंपरा में साधना की हजारों पद्धतियाँ हैं जहाँ स्त्री-पुरुष को समानता और अपनी विशिष्टता प्राप्त है। कुछ उंगलियों पर गिनने लायक विशेष स्थानों को छोड़ सभी मंदिरों में महिला-पुरुष समान रूप से आते-जाते, पूजन करते हैं। इस्लाम और ईसाई जगत में इबादत की (अपनी-अपनी) एकमात्र विधि है, जिसमें महिलाओं को बराबरी का स्थान नहीं है| भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश की अनुमति नहीं हैं। स्त्री नमाज़ पढ़ सकती है लेकिन पढ़वा नहीं सकती। मौलवी नहीं बन सकती। निकाह नहीं पढ़वा सकती। संविधान विरोधी होते हुए भी शरिया के आधार पर अक्सर उसके साथ अन्याय होता रहता है। शरिया अदालत में एक पुरुष की गवाही के बराबर दो महिलाओं की गवाही मानी जाती है। रूढिगत ईसाई मान्यता भी स्त्रियों को दूसरे दर्जे का मानती आई हैं। इसी मान्यता के विरोध में पश्चिमी जगत में नारी स्वतंत्रता आंदोलन (फेमिनिज्म) खडा हुआ। बाइबिल की उक्तियां जैसे कि “तुम्हारी स्त्रियों को चर्च में मौन रहना चाहिए, उन्हें चर्च में बोलने की आज्ञा नहीं है| उन्हें जो सीखना है, वो अपने घर में अपने पति से पूछकर समझें|” इसी तरह जेनेसिस 3:16 कहती है कि “पुरुष स्त्रियों के मालिक हैं” अथवा “पुरुष को स्त्री के लिए नहीं बनाया गया बल्कि स्त्री को पुरुष के लिए बनाया गया|”… आदि की प्रतिक्रयास्वरुप पश्चिम में बुद्धिजीवी वर्ग उत्पन्न हुआ जिसने उपरोक्त मान्यताओं के खिलाफ विद्रोह किया| लोगों ने सवाल उठाया कि ईश्वर को परमपिता ही क्यों कहा जाए, परम माता क्यों नहीं ? भारत के हिंदू दर्शन के पास इसका उत्तर है क्योंकि यहाँ पर शक्ति और शिव दोनों की उपासना होती आई है। खैर, आज पश्चिम इस सब को पीछे छोड़ कहीं आगे निकल चुका है। आज नारी स्वातंत्र्य के उसके मुद्दे मज़हबी न होकर समान आय और समान अवसर की व्यवहारिकता से अधिक जुड़े हुए हैं| ऐसे में जब दुनिया के सामने सबरीमला को लेकर हिंदू दर्शन और हिंदू मंदिरों के वास्तविक तथ्यों को छिपाते हुए बनावटी ‘एक्टिविज्म’ का प्रदर्शन और फर्जी तर्कों का प्रस्तुतीकरण होता है, तब देश की पहचान पर भी तोहमत लगती है|
राजनीति की धार पर –
सबरीमला और तीन तलाक़, दोनों मुद्दे गर्म हैं। जो सत्ता की तीन-पांच में व्यस्त हैं, उन्हें तेन तलाक की टीस और संविधान की भावना से लेना-देना नहीं है, और राजनीति में आस्था रखने वालों को अयप्पा की परंपरा की परवाह नहीं है।
सबरीमला को ऐसे पेश किया जा रहा है मानो दुनियाभर के मंदिरों में महिलाओं को प्रवेश ही नहीं मिलता हो, और सबरीमला से मंदिरों की मुक्ति की लड़ाई छेड़ डी गई हो। जबकि सारा हिंदू समाज जानता है कि ये भेदभाव का मामला नहीं है, बल्कि हिंदू परम्परा की हजारों पूजा-अनुष्ठान पद्धतियों में से एक विशेष पद्धति के पालन की बात है | देश के निन्यान्न्वे दशमलव नौ नौ (99.99) प्रतिशत से अधिक मंदिर, स्त्री-पुरुष दोनों के लिए खुले हैं | वहीँ ऐसे मंदिर भी हैं जहां पुरुष प्रवेश नहीं कर सकते, लेकिन हुडदंग मचाया जा रहा है। 2 जनवरी को दो महिला (तथाकथित) एक्टिविस्ट, बिंदु अम्मीनी और कनक दुर्गा, चुपके से सबरीमला मंदिर में दाखिल हो गईं| बिंदु अम्मीनी और उनके पति केवी हरिहरन कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता (संभाग सचिव) रह चुके हैं| कुछ प्रत्यक्षदर्शियों ने दावा किया कि वो व्यवस्था देखने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के लिए बने द्वार से घुसीं| परंपरा अनुसार उनके सर पर चावल और नारियल के भोग की पोटली ‘इरुमुडी’ भी नहीं थी| फिलहाल दोनों देशभर की सुर्ख़ियों में छाई हुई हैं|
 तीन तलाक बिल पर चुप्पी : कम्युनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम महिला कार्यकताओं को मैदान में उतारा
दूसरी तरफ, संसद में मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ी जा रही है। लेकिन केरल की मुस्लिम महिला को वामपंथी राजनीति अपना मोहरा बनाकर सबरीमला के लिए इस्तेमाल कर रही है। तीन तलाक का ज़ुल्म और हलाला का अपमान उसे नहीं साल रहा ? सारे देश में न जाने कितनी इमराना और शाहबानो, अपनी तकदीर पर आँसू बहा रही हैं, उधर केरल की वामपंथी पार्टी ने हजारों बुर्काधारी मुस्लिम महिलाओं को हाथों में तख्तियां पकड़ाकर खडा कर दिया है सबरीमला मंदिर में प्रवेश का ‘अधिकार’ मांगने। विडंबना है कि उनमें तीन तलाक पर अपना अधिकार मांगने की हिम्मत नहीं है, और वो केरल की हिंदू महिलाओं के लिए वह मांगने सड़क के किनारे कतार बनाए हुए हैं, जिसकी उन्हें चाहत नहीं। पिछले महीनों में केरल की लाखों हिंदू महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर नारा लगाया कि वो भगवान् अयप्पा के दर्शन करने के लिए कुछ साल का इंतजार (50 वर्ष की आयु होने तक) प्रतीक्षा करने को तैयार हैं | ऐसे में सवाल ये है कि ये किसके हित की लड़ाई लड़ी जा रही है? तीन तलाक की आंच पर झुलसती मुस्लिम महिलाओं और उनके बच्चों को उनके हाल पर छोड़ किए गए इस प्रदर्शन का औचित्य क्या है ? केरल वही राज्य है जहाँ कुछ वर्ष पूर्व राज्य सरकार ने सर्कुलर जारी करके स्थानीय निकायों से कहा था, कि नाबालिग मुस्लिम लड़की के विवाह का भी पंजीकरण किया जाए | इसके पीछे मंशा थी कि इस प्रकार के विवाह करके खाड़ी देश जाने /लौटने वालों को असुविधा न हो । एक ओर छद्म सेकुलर राजनीति मुस्लिम महिलाओं के हित और सम्मान को संसद में कुर्बान करने पर आमादा है, दूसरी तरफ, सबरीमला में,उन्हें ही प्यादा बनाकर, हिंदू परंपरा पर चोट कर रही है।
सच सर चढ़कर बोलेगा –
भारत में पिछली कुछ सदियों में अनेक कारणों से स्त्री को संघर्ष करना पडा है| ऐसे सभी कारणों का निराकरण करना चाहिए। लेकिन न्याय के नाम पर परंपरा के विखंडन और रस्सी को सांप बतलाने वाले दुष्प्रचार का भी उचित उत्तर दिया जाना चाहिए। देश और दुनिया के ध्यान में लाया जाना चाहिए कि सबरीमला आस्था का मामला है लेकिन वामपंथी बुद्धिजीविता उसे सामाजिक न्याय का मामला बनाकर पेश कर रही है। और तीन तलाक, जो व्यक्तिगत-सामाजिक न्याय का ज्वलंत मुद्दा है, उसे आस्था का प्रश्न बताकर पाखंड को महिमामंडित किया जा रहा है| ये दुर्गा-काली-लक्ष्मीऔर सरस्वती का देश है| यहाँ नारी विद्या प्रदान करने वाली और दुष्ट निग्रह करने वाली रही है। समानता अवसरों की होनी चाहिए, समानता के नाम पर विविधता की शक्ति और विरासत को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। सच सर चढ़कर बोलता है। सत्य सर चढ़कर बोलेगा।
saabhar Paanchjanya

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