कम्युनिस्टों को तानाशाह बताते थे डॉ. आंबेडकर

यह कुछ वैसा ही है कि ‘ उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ’ । पिछले कई दशकों से इस देश के कम्युनिस्ट संगठन व मार्क्सवादी बुद्धिजीवी स्वयं को बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का मानस-पुत्र दिखाने का प्रयास कर उन लाखों दलितों की आंखों में धूल झोंकते रहे जो डॉक्टर आंबेडकर  को अपना पथ-प्रदर्शक मानते रहे हैं। जबकि सच यह है कि डॉ. आंबेडकर कम्युनिस्टों के घोर आलोचक थे। उनका मानना था कि कम्युनिस्ट अपना तानाशाही स्थापित करने के लिए हिंसा को हथियार बनाते हैं। विडंबना देखिए कि आज यही मार्क्सवादी बुद्धिजीवी राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं पर हिंसा का सहारा लेने के झूठे आरोप लगाकर खुद को दूध का धुला हुआ दिखाते हैं।

 आइए जानते हैं कि डॉक्टर आंबेडकर ने कम्युनिस्टों के बारे में क्या टिप्पणियां की थीं जिससे स्पष्ट होता है कि किस तरह कम्युनिस्ट भारत में अराजकता  पैदा करने के लिए दलित आंदोलन की आड़ लेते रहे हैं और आज भी यही प्रपंच रच रहे हैं।

 वर्ष 1956 में नेपाल में काठमांडू में आयोजित बौद्ध विश्व फेलोशिप के चौथे सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर एक निबंध प्रस्तुत किया था जिसका शीर्षक था — ‘ बुद्ध या कार्ल मार्क्स ’ । डॉ. आंबेडकर ने इस निबंध में स्पष्ट कहा , ‘ साम्यवाद लाने के लिए कार्ल मार्क्स और कम्युनिस्ट किन तौर तरीकों को अपनाते हैं , यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। साम्यवाद लाने के लिए कम्युनिस्ट जो जरिया अपनाएंगे … वह हिंसा और विरोधियों की हत्या है। निस्संदेह कम्युनिस्टों को तुरंत परिणाम प्राप्त हो जाते थे क्योंकि जब आप मनुष्यों के संहार का तरीका अपनाएंगे तो आपका विरोध करने के लिए लोग बचेंगे ही नहीं। ’

 इसी विषय पर  थोड़ा और विस्तार से चर्चा करते हुए इस निबंध में डॉ. आंबेडकर कहते हैं , ‘ कुछ दो या तीन सवाल हैं , जिन्हें मैंने अक्सर अपने कम्युनिस्ट मित्रों से पूछा है और मैं बेझिझक कह सकता हूं कि वे उसका जवाब नहीं दे सके हैं। वे जिसे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही कहते हैं उसे हिंसा से स्थापित करते हैं। वे उन सभी लोगों के राजनीतिक अधिकार छीन लेते हैं जिनके पास संपत्ति है। उन्हें विधायिका में प्रतिनिधित्व नहीं मिल सकता। उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं मिल सकता , उन्हें राज्य में दोयम दर्ज का नगारिक बनकर रहना पड़ता है , शासित के रूप में रहना पड़ता है और सत्ता में अधिकार नहीं मिलता। ’

 डॉ. आंबेडकर कहते हैं जब मैने उनसे पूछा , ‘ क्या आप इस बात से सहमत है कि तानाशाही लोगों पर शासन करने की अच्छी पद्धति है ?’ वह कहते हैं , ‘ नहीं हम तानाशाही को पसंद नहीं करते। ’ फिर हम कहते हैं , ‘ आप इसकी इजाजत क्यों देते हैं ?’ वह कहते हैं ‘ लेकिन शुरूआत में तानाशाही होनी चाहिए। ’ आप आगे बढ़ते हैं और उनसे पूछते हैं , ‘ यह शुरुआती अवधि कब तक चलेगी ? कितनी लंबी ? 20 वर्ष ? 40 वर्ष ? 50 वर्ष ?’   कोई जवाब नहीं!

 वह सिर्फ यही कहते रहते हैं कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही गायब हो जाएगी। तो फिर एक सवाल है , ‘ क्या होगा जब तानाशाही खत्म हो जाएगी ? इसकी जगह कौन लेगा ? क्या लोगों को किसी प्रकार की सरकार की आवश्यकता नहीं होगी ?’ उनके पास कोई जवाब नहीं होता।

 डॉ. आंबेडकर सवाल उठाते हैं , ‘ अपने बहुमूल्य लक्ष्य प्राप्त करने में (साम्यवाद स्थापित करने में) अन्य लोगों के बहुमूल्य लक्ष्यों का विनाश उन्होंने नहीं किया , क्या साम्यवादी कह सकते हैं ? निजी संपत्ति उन्होंने नष्ट की। अपना उद्देश्य पूरा करने में उन्होंने कितनी हत्याएं कीं ? क्या मनुष्य जीवन का कोई मूल्य नहीं है ? किसी के प्राण लिए बिना उसकी संपत्ति छीन लेना उसके लिए असंभव था ?

 रूस में  1917 में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बारे में उनका आकलन था , ‘ रूसी क्रांति में केवल समता लाने का प्रयास किया गया। लेकिन समता स्थापित करने में स्वतंत्रता और बंधुत्व की बलि चढ़ा देना उचित नहीं है यदि स्वतंत्रता और बंधुत्व ही न रहे तो ऐसी समता निरर्थक है। ’

 मार्क्स का कहना था कि ‘ राष्ट्र ’ एक अस्थायी संस्था है और अपनी जरूरत खत्म होने पर यह  अपना अस्तित्व खो देगा। डॉ. आंबेडकर ने मार्क्स के इस सिद्धांत को सिरे से खारिज करते हुए कहा , ‘ साम्यवादियों को दो प्रश्नों के उत्तर देने होंगे —’ राष्ट्र ’ का  विलय कब होगा ? तथा इसके विलय के बाद इसका स्थान कौन लेगा ?’ पहले प्रश्न में निश्चित अवधि वे (कम्युनिस्ट) बताते नहीं और दूसरे प्रश्न का भी संतोषजनक उत्तर नहीं देते। ’

 उक्त टिप्पणियां तो मात्र एक झलक भर है उस बड़े आलोचना साहित्य की जिसमें डॉ. आंबेडकर ने विस्तार से  भारत के कम्युनिस्टों की राष्ट्र-विरोधी सोच का पर्दाफाश किया। आज वही कम्युनिस्ट शहरी नक्सलवादियों के चोगे पहन कर विश्वविद्यालयों में ‘ भारत तेरे टुकड़े होंगे ’ के सार्वजनिक नारे लगा रहे हैं और खुद को दलितों का मसीहा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। डॉ. आंबेडकर उनके इस झूठे आवरण को बहुत पहले ही समझ चुके थे और उनके विस्तृत लेखन का सार यही था कि मूलत: कम्युनिस्ट विघटनकारी हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए वे किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।

 

(लेखक – अरुण आनंद)

 

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 − 3 =