पीयूसीएल की वास्तविकता

गुजरे दिनों राजधानी रायपुर में आयोजित एक मीडिया सम्मेलन में मार्कसवादी विचाराधारा से जुडे तथा बस्तर में नक्सलियों को प्रेरित करने वाले संगठन पीयूसीएल ने जब आरएसएस को निशाने पर लिया तो मैंने अपने वक्तव्य के दौरान इसका जमकर विरोध किया तथा संगठन से जुडे पत्रकारों को आईना भी दिखाया. इस पर मैंने जो लेख लिखा, उसे कुछ समाचार पत्रों ने भी प्रकाशित किया. इंडिया टीवी न्यूज के स्टेट हेड संजय शेखर ने भी पीयूसीएल के इस कदम की आलोचना की. लेख संलग्न है : 

संदर्भ : पीयूसीएल के बैनर पर आयोजित एक भटका हुआ सम्मेलन.

गुजरे रविवार को राजधानी रायपुर के वृंदावन हॉल में प्रेस, जनता और राज्य विषय को लेकर एक सम्मेलन, पीयूसीएल के बैनर पर आयोजित किया गया। वैसे वाट्सअप और फेसबुक पर जो सूचना मिली थी, उसके मुताबिक सम्मेलन पत्रकारों का था जिसमें उनकी समस्याओं पर विमर्श या आगामी आंदोलन की रूपरेखा बननी थी। सो इसी उम्मीद के साथ, वरिष्ठ पत्रकार साथी राजकुमार सोनी व बस्तर से विद्रोह की एक नई चिंगारी फूंकने वाले साथी श्री कमल शर्मा के बुलावे पर मैं भी इस सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचा था। दूसरी वजह यह भी रही कि पिछले कुछ सालों से बस्तर से लेकर पूरे प्रदेश में पत्रकारों के साथ होती अपमान और धमकियों की घटनाएं, उनकी हत्याएं या आधारहीन आरोपों के चलते जेल में डालने का जो दौर राज्य में चल पड़ा है, उसके चलते मन द्रवित है इसीलिए मैंने सम्मेलन में जाने का मन बनाया ताकि वहां पर अपनी बात रख सकूं या पत्रकार साथी कमल शर्मा के आंदोलन से जुड़ सकूं।

दिन भर चला सम्मेलन तीन सत्रों में आयोजित हुआ जिसमें पूरे प्रदेश से एक्टिविस्ट पहुंचे थे। देश-प्रदेश से पहुंचे कुछ वरिष्ठ संपादकों ने श्रेष्ठ और गुणी विचार रखे तो कानून विशेषज्ञों ने भी पत्रकारिता-कानून और अधिकारों को बेहतर ढंग से समझाया और कुछ साहसी पत्रकारों को सम्मानित भी किया। जो पुरस्कृत हुए, उन्हें बधाईयां और शुभकामनाएं। यहां रेखांकित करने वाली बात यह है कि सम्मेलन के उद्देश्यों में भटकाव स्पष्ट नजर आ रहा था। जिन कमल शर्मा जी ने पत्रकारों को आमंत्रित किया, वे खुद पूरे कार्यक्रम में तटस्थ दिखे। पत्रकार साथी ना के बराबर नजर आए। हो सकता है उनकी अपनी व्यस्तताएं भी रही हों क्योंकि इसे हमारे पेशे की मजबूरी या चरित्र कह लीजिए या खबरों के डेली रूटिन का दबाव कि हम अपनी ही बिरादरी या अपने हितों या साथियों के लिए समय नही निकाल पाते। प्रेस क्लब में भी कुछ वरिष्ठ पत्रकार साथी मिले तो उन्होंने एक स्वर में स्वीकारा कि पत्रकारों के ना आने की एक वजह पीयूसीएल का बैनर भी रहा।

स्पष्ट कर दूं कि मैं यहां पीयूसीएल की कार्यप्रणाली या सम्मेलन के आयोजन पर सवाल खड़े नहीं कर रहा लेकिन बुनियादी और गहरा सवाल यह है कि जब प्रेस, जनता और राज्य की भूमिका पर बात हो रही हो तो उसमें समग्र और एकात्म दृष्टि नजर आनी चाहिए। शुरूआती दौर में सम्मेलन ने सही राह पकड़ी लेकिन दूसरे सत्र में यह भड़ास डॉट कॉम नजर आने लगा। नैतिकता खखारने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार साहब ने तो खुद की व्यक्तिगत लड़ाई को सरकार बनाम पत्रकार बिरादरी की लड़ाई करार दे दिया।

हालांकि मौका मिलते ही पहले वरिष्ठ पत्रकार साथी तथा इंडिया न्यूज चैनल के हेड संजय शेखर ने दोस्ताना और विद्वतापूर्ण ढंग से हस्तक्षेप किया। संजय के साथ सुर में सुर मिलाते हुए मैंने भी कहा कि विचार-कर्म से जुड़ा होने के कारण कोई पत्रकार लेफ्टिस्ट विचारधारा का, कोई राइटिस्ट, कोई सेंट्रलिस्ट या कोई निष्पक्ष भी रह सकता है मगर ऐसे पत्रकार साथी यदि सम्मेलन में नही आ सके तो उन पर उंगलियां उठाने या बिके होने का आरोप लगाने का अधिकार आपको कैसे मिल गया भला? हम सब जिस भी संगठन या विचार से जुड़े हों, सभी समाज-देश के हित के लिए इस पेशे में काम कर रहे हैं। ऐसे साथियों को रोडरोलर तरीके से देशभक्त पत्रकार, चड्डीधारी पत्रकार, बिके हुए पत्रकार, या सरकार के चाटुकार पत्रकार इत्यादि उपमाओं से नवाजने का अधिकार आपको कहां से मिल गया?

आश्चर्य कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय को आरएसएस की बौद्धिक नर्सरी तक करार दिया गया। मानो वहां से जितने विदयार्थी डिग्री लेकर निकले हैं, वे सभी आरएसएस के वेतनभोगी होकर काम कर रहे हैं? पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट नेताओं या पूरे देश में गांधी-नेहरू के नाम से ना जाने कितने ही शैक्षणिक संस्थान चल रहे हैं तो क्या इन्हें आप कम्युनिज्म या कांग्रेस की नर्सरी कहेंगे? क्या यहां से पढक़र निकलने वाला हर भारतीय इनके दड़बे में सांसें ले रहा है? सम्मेलन में पत्रकारों के अधिकारों की बात होती, उनकी सुरक्षा को लेकर कोई मसौदा तैयार हो सकता था या फिर भविष्य के लिए कोई आंदोलन इत्यादि की रूपरेखा बन सकती थी मगर पीयूसीएल के बैनर पर आयोजित इस सम्मेलन में जिस तरह की राह पकड़ी गई या दिखलाई गई, उससे इस आशंका पर मुहर लग गई है कि पत्रकारों की एकता और संघर्ष को लेकर बस्तर में कमल शर्मा जी ने जो नई चिंगारी पैदा की है, वह अंजाम मिलने के पहले ही ना बुझ जाए। इस दृष्टव्य पर यह शेर पूरी तरह फिट बैठता है कि :

जिंदगी में आईना जब भी उठाओ, पहले देखो, फिर दिखाओ

अनिल द्विवेदी
पत्रकार एवं सह सचिव,
विश्व संवाद केन्द्र छत्तीसगढ

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