समानता में सबका मान

—”देश में लंबे अरसे से समान नागरिक संहिता को लेकर बेवजह एक बहस खड़ी करने का प्रयास किया गया है। मजहब के चंद तथाकथित पहरुओं द्वारा यह दिखाने की कोशिश की जाती रही है कि शरीया में ही मुसलमानों का हित है, जिसका बहुत बुरा नतीजा भुगतना पड़ रहा है मुस्लिम महिलाओं को”
—डॉ. गुलरेज शेख

पंथनिरपेक्ष भारत में सेकुलरवादियों की सांप्रदायिक राजनीति तथा वोट एवं सत्ता की लालसा ने समान नागरिक संहिता को जाने क्यों एक जटिल और विवादास्पद विषय बना दिया है। इसका सर्वाधिक लाभ कांग्रेस तथा सर्वाधिक हानि अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों तथा उनमें भी मुस्लिम महिलाओं को हुई। 1937 के पूर्व हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों समान नागरिक संहिता का अनुपालन करते थे पर अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत मुसलमानों पर शरीयत को आरोपित किया। वास्तव में एक ही देश में पंथ आधारित नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता तथा पंथनिरपेक्षता के विपरीत समाज को सनातनी हिंदू, मुसलमान, ईसाई तथा पारसी में विभाजित करने का ब्रिटिश षड्यंत्र थी, जिसका स्वतंत्रता उपरांत सत्ता प्राप्ति हेतु उसी स्वरूप में ए़. ओ़. ह्यूम की पार्टी द्वारा उपयोग तथा प्रयोग किया गया और संविधान सभा में समान नागरिक संहिता की पक्षधरवाणियों को उपेक्षित कर इस उपयोग-प्रयोग की शतरंजी बिसात बिछाई गई। इसका चरम राजीव गांधी सरकार ने प्रदर्शित किया। तब पंथनिरपेक्षता के आदशोंर् से प्रेरित राष्ट्रीय आंदोलन ने समान नागरिक संहिता की मांग सामने रखी थी। उसे लगता था कि राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में यह शतरंजी बिसात बड़ा अवरोध है। कमलादेवी चट्टोपाध्याय तथा सरोजनी नायडू के नेतृत्व में ऑल इंडिया वीमेंस लीग ने समान नागरिक संहिता के निर्माण हेतु दबाव बनाया था।

भारत जैसे बहु जाति-पंथों वाले बहुरंगी समाज में, जहां एक पंथनिरपेक्ष संविधान विद्यमान है, जाति, पंथ तथा समुदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी भेदभाव न केवल राज्य के पंथनिरपेक्ष चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाता है, वरन् राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध भी करता है। इतना ही नहीं, किसी भी आधुनिक एवं पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए पंथ-आधारित कानून होना उस राष्ट्र के पिछड़ेपन का ही प्रतीक है। चूंकि यह पंथगत परिचय को मान्यता प्रदान करता है अत: राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
संविधान, जो कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा तथा प्रकाशस्तंभ है, का अनुच्छेद 44 राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह समस्त भारतीय राज्य-क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों हेतु समान नागरिक संहिता का निर्माण करे जो बिना किसी भेद के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हो। पर दुर्भाग्य, संविधान लागू होने के 66 वर्ष उपरांत भी वोट बैंक तथा ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के चलते समान नागरिक संहिता का निर्माण संभव नहीं हो सका तथा छद्म पंथनिरपेक्ष राजनैतिक दलों ने इसे देश का विवादित राष्ट्रीय विषय बना दिया।
यदि मानवता की दृष्टि से देखें तो समान नागरिक संहिता के अभाव के चलते आज भी लाखों मुस्लिम महिलाओं का जीवन 15वीं सदी शोषित तौर-तरीकों से बाहर नहीं आ सका है। तीन तलाक की कुप्रथा के चलते आज भी लाखों महिलाएं तथा उनके बच्चे दरिद्र एवं अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश हैं। लोकतंत्र में न्याय प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत न्यायालय होता है पर पंथ-आधारित नागरिक संहिता की राजनीति ने देश के न्यायालय को भी बंदी बनाया जब 62 वर्षीया शाहबनो के पति ने उसे तीन बार तलाक बोला और उसे जीवनयापन भत्ता तक देने से इनकार कर दिया। तब वह वृद्धा न्याय की आस लेकर न्यायालय गई। इस मामले पर गौर करने के बाद सवार्ेच्च न्यायालय ने 23 अप्रैल, 1985 को दिए अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा—
(1) सीआरपीसी की धारा 125 हर किसी पर लागू होती है, फिर मामला चाहे किसी भी मत या संप्रदाय का हो। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पत्नी, बच्चों और अभिभावकों के गुजारा भत्ता से संबंधित प्रावधानों को समाहित करती है।
(2) सीआरपीसी की धारा 125 के तहत शाहबानो को गुजारा भत्ता दिया जाए।
(3) अब तक समान नागरिक संहिता न बन पाने का खेद है। पर 1986 में राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के माध्यम से सवार्ेच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय को ही पलट दिया। तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए इस अधिनियम के माध्यम से यह प्रावधान किया कि-
(1) मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के अनुरूप केवल इद्दत की अवधि (तलाक के पश्चात चार माह दस दिन की अवधि) के दौरान ही गुजारे भत्ते की हकदार होंगी।
(2) यदि एक मुस्लिम तलाकशुदा महिला इद्दत के पश्चात अपना गुजारा नहीं कर सकती, तो अदालत उसके संबंधियों को गुजारा भत्ता देने के लिए कह सकती है। ये वे संबंधी होंगे जो मुस्लिम कानून के तहत उसके उत्तराधिकारी होंगे।
(3) यदि किसी ऐसी महिला के ऐसे संबंधी नहीं हैं, तो वक्फ बोर्ड गुजारा भत्ता देगा।
अजीब बात है, वक्फ बोर्ड स्वयं का ही गुजारा करने में सक्षम नहीं तो इन बेचारी महिलाओं का क्या भला करेगा?
इस अधिनियम ने मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में उनके पतियों को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। राजीव गांधी सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटे जाने के विरुद्ध आरिफ मोहम्मद खान ने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया तथा समान नागरिक संहिता की मांग की जिससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो।
उन्होंने वैयक्तिक मामलों में मुस्लिम लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के संरक्षण के उद्देश्य से 1973 में गठित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस आधार पर भंग करने की मांग की कि इसके कई आदेश, विशेष रूप से महिला अधिकारों के सन्दर्भ में, प्रतिगामी हैं। पर राजीव सरकार ने संख्याबल के दम पर न्यायालय के आदेश का गला घोंट दिया तथा साथ में लाखों तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भविष्य का भी।
यदि मानवाधिकारों पर चर्चा हो तो क्या कोई भी पंथ-आधारित व्यवस्था मूल मानवीय न्याय से ऊपर हो सकती है? क्या इस प्रकार के रूढि़वादी कानून का चलन अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की छवि को धूमिल नहीं करता, विशेषकर जब 60 से अधिक मुस्लिम देशों ने भी ऐसे कानून पर विराम लगा दिया हो?
यदि विवाह की न्यूनतम आयु सभी पंथों के अनुयायियों के लिए समान हो सकती है तो तलाक जैसे संवेदनशील विषय पर समान संहिता क्यों नहीं? जब इस्लाम में ही तीन तलाक की अनुमति नहीं है तो मजहब की दुकान चलाने वाले मौलवियों पर लगाम कब लगेगी? यदि राजनैतिक दृष्टि से भी बात हो तो मुस्लिम समाज का 50 प्रतिशत हिस्सा (महिलाएं) उसी को वोट देगा जो उनके मानवाधिकारों की रक्षा हेतु समान नागरिक संहिता लागू कराने का ऐतिहासिक कदम उठाएगा।
राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ अध्यक्षा फरहा फैज के अनुसार ”कुरान में तीन तलाक का उल्लेख नहीं है। तीन तलाक के कारण मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन होता रहा है। इसे समाप्त किया जाना चाहिए। शादी, तलाक तथा गुजारा भत्ते हेतु कोई सही नियम न होने के कारण मुस्लिम महिलाएं लिंग भेद का शिकार हो रही हैं।”
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