पेरिस से प्रकाशित होने वाला व्यंग्य-साप्ताहिक शार्लि एब्दो 7 जन. के आतंकी हमले के बाद पूरी दुनिया में चर्चित हो गया है। इस पत्रिका के साथ ही पेरिस में एक यहूदी सुपर-स्टोर पर भी आतंक की कलुषित छाया पड़ी। इन घटनाओं में सत्रह लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। इस हमले के बाद यूरोप के प्रमुख शहरों में आतंक के विरोध में शांति मार्च निकले गये। इनमें चालीस देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ तीस लाख यूरोपवासी भी शामिल हुए।
यूरोप में शांति मार्च तो निकले ही, वहाँ की सरकारों ने आतंकियों की छान-बीन भी शुरू कर दी। बेल्जियम, जर्मनी, फ़्रांस आदि देशों में संदिग्ध आतंकियों की धर पकड़ होने लगी। कुछ लोग पुलिस की छापे-मारी में मारे भी गये। इसी के साथ मध्य-पूर्व एशिया के इस्लामी राष्ट्र भी सक्रिय हो गये। 14 जन. को शार्लि एब्दो का नया संस्करण इसका बहाना बन गया। कुछ हजार छपने वाली इस साप्ताहिक की तीस लाख प्रतियाँ बिकीं और इनमें मुख पृष्ठ पर आँखों में आंसू लिये हजरत मोहम्मद का चित्र छपा था।
जोर्डन की राजधानी अम्मान सहित कई शहरों में प्रदर्शन हुए। कतार, बहरीन, सऊदी अरब, फिलस्तीन आदि में कट्टरपंथी शार्लि एब्दो के विरोध में सड़कों पर उतर आये। पाकिस्तान की संसद में शार्लि एब्दो की निंदा का प्रस्ताव पारित किया। कराची आदि कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए जिनमें कई हताहत हुए। ध्यान रहे कि पत्रिका पर हमले और पत्रकारों की हत्या की निंदा इनमें से एक भी इस्लामी राष्ट्र ने नहीं की थी।
उधर यूरोप के लगभग सभी समाचार-पत्रों ने शार्लि एब्दो में छपे कार्टूनों को फिर से अपने अख़बारों में प्रकाशित किया। इसके जवाब में नाइजीरिया में कई गिरिजाघरों पर हमले किये गये और ‘बोको हरम’ नाम के आतंकी गिरोह ने दसियों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। अर्थात कलम का जवाब सभी इस्लामी देशों में हिंसा से दिया गया।
प्रश्न उठता है कि क्या इस्लाम और ईसाइयत फिर आमने-सामने हो रहे हैं। भारत में तो दोनों एक हैं, इनके साथ सेकुलर जमात भी है और ये सब हिन्दू-समाज को मिटा देने की भरपूर कोशिश में लगे हैं। लेकिन यूरोप में इस्लाम और ईसाइयत में संघर्ष पहले भी हो चुका है। ईस्वी सन 1005 में चर्च ने तुर्कों के खिलाफ पहला क्रूसेड (पांथिक युद्ध) छेड़ा। इसके बाद तीन सौ सालों में दस बार ईसाई फौजों ने मध्य पूर्व एशिया के तुर्कों पर धावे बोले। ईसा मसीह के जन्म-स्थान जेरूशलम (पवित्र-भूमि) को मुस्लिम अधिपत्य के छुड़ाने के नाम पर ये मजहबी संग्राम हुए। इनमें भयंकर रक्तपात हुआ। दोनों पक्षों की हार-जीत होती रहती थी, लेकिन निर्णायक सफलता किसी को नहीं मिली। पवित्र भूमि पर मुस्लिम अधिकार बना रहा। यह 1948 में इजरायल के अस्तित्व में आने पर टूटा। पर इससे ईसाइयत और इस्लाम में शांति पैदा नहीं हुई। इसके विपरीत तनाव और बढ़ गया।
शांति हो भी नहीं सकती क्योंकि ये दोनों ही सेमेटिक मजहब हैं। ईसाई यह मानते हैं कि जो ईसा की पूजा करता है, उद्धार उसी का होगा। यही इस्लाम का मानना है। इस्लाम तो गैर-मुसलमानों को जीने का अधिकार भी नहीं देता। दुनिया को दारुल इस्लाम बनाना याने पुरे जगत को इस्लामी झंडे के नीचे लाना इसका लक्ष्य है। उधर ईसाइयत भी दुनिया को ईसाई मत में दीक्षित देखना चाहती है, हालांकि पश्चिमी देशों में ही ईसा को मानने वाले तेजी से कम हो रहे हैं। इसलिये इस्लाम और ईसाइयत देर-सवेर आमने-सामने होने ही हैं।
लेकिन यह नहीं होना चाहिये। सभी मजहबों को सम्मान देने का भाव उत्पन्न होना ही चाहिये। सत्य एक है, पर उस तक पहुँचने के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं, यह समझना और समझाना आवश्यक है। और यह केवल भारत ही कर सकता है। इसलिये कि भारत में हजारों सालों में कई रिलीजन (पंथ, संप्रदाय, मजहब) पनपे और सभी को सम्मान के साथ रहने का सूत्र भारतीय या कि हिन्दू जीवन-दर्शन, धर्म और संस्कृति ने दिया।
(लेखक पाथेय कण पाक्षिक पत्रिका के संपादक हैं।)