‘सो चादर…दास कबीरा जतन कर ओढी ज्यों की त्यों धर दीनी…’

thज्येष्ठ पूर्णिमा—कबीर जयंती पर विशेष

कबीर वास्तव में श्रेष्ठ कवि, प्रखर समाज सुधारक एवं सामाजिक समरसता के सच्चे समर्थक थे। उनका जन्म सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट लहराता नामक स्थान पर हुआ। कहते है कि उस दिन नीमा नीरू संग ब्याह कर डोली में बनारस जा रही थीं। बनारस के पास एक सरोवर तट पर विश्राम के लिये वो लोग रुके। अचानक नीमा को किसी बच्चे के रोने की आवाज आई। देखने पर एक बालक कमल—पुष्प में लिपटा रो रहा था। नीरू की सहमति से निमा बच्चे को घर ले गई। बच्चे का बडे प्यारे से लालन—पालन किया गया और नामकरण हुआ कबीर। कई लोगों को इस नाम पर एतराज था। उनका कहना था कि कबीर का मतलब महान् होता है और एक जुलाहे का बेटा महान् कैसे हो सकता है? नीरू पर इसका कोई असर न हुआ और बच्चे का नाम कबीर ही रहने दिया गया। अनजाने में ही सही बचपन में दिया नाम बालक के बङे. होने पर सार्थक हो गया।

कबीर को साधु संगति बहुत प्रिय थी लेकिन कबीर सांसारिक जिम्मेदारियों से कभी दूर नहीं हुए। वे पारिवारिक रिश्तों को भी भलीभाँति निभाए। कपङा बुनने का पैतृक व्यवसाय वो आजीवन करते रहे। कबीर जाँति-पाँति और ऊँच-नीच के बंधनो से परे फक्कङ, अलमस्त और क्रांतिदर्शी थे। उन्होने रमता जोगी और बहता पानी की कल्पना को साकार किया। कबीर का व्यक्तित्व अनुकरणीय है। वे हर तरह की कुरीतियों का विरोध करते थे। उन्होंने साधु-संतो की संगत तो की लेकिन बाहरी आडंबर करनेवालों से दूर रहे। उन्होंने दोहों और भजनों के माध्यम से जात—पात के बंधनों को ढीला करने का प्रयास किया। कबीर दास जी का अवसान भी जन्म की तरह रहस्यवादी है। आजीवन काशी में रहने के बावजूद अन्त समय सन् 1518 के करीब मगहर चले गये थे। कबीर ने वेदाग जीवन जीते हुए भजन की निम्नलिखित पंक्तियों को साकार किया—
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ।
इंगला पिङ्गला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया ॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व, गुन तीनी चदरिया ।
साँई को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया ।
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥

कबीर के कुछ दोहें
(1)
—माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(2)
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
(3)
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
(4)
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
(5)
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(6)
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
(7)
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
(8)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(9)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
(10)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(11)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

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