वाल्मिकी करूण एवं संवेदनशील ह्दयवाले थे। देवर्षि नारद के उपदेश पाकर उन्होंने रामनाम का जाप किया। इसी बीच उनके शरीर पर वाल्मिक्य अर्थात् चीटियों ने घर बना लिया जिसके चलते उनका नाम वाल्मिकी पड गया।
तप के प्रभाव से वे महान् ऋषि हुए। कहते है कि एक बार तमसा नदी के तट पर उनके आश्रम के निकट एक बहेलिये ने क्रौंच पक्षी को मार दिया। वाल्मिकी को इससे बडा दु:ख हुआ और उनके मुख से उसी समय छंद रूप में बहेलिये के लिए श्राप निकला। छंद रूप में निकले इस श्राप को सुनकर ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने वाल्मिकी को वरदान दिया कि तू आदि कवि है। जैसा की हमें ज्ञात है कि आगे चलकर वाल्मिकी ने महाकाव्य रामायण की रचना की। भगवान राम ने जब लोकलाज के भय से सीता का परित्याग कर दिया था तब वाल्मिकी के आश्रम में ही उनके दोनों पुत्रों लव व कुश का लालन—पालन हुआ। रावण वध के बाद भगवान राम जब पु:न राजा बने तो अश्वमेध यज्ञ के समय छोडा गया सफेद घोडा सीता के इन्हीं दोनों पुत्रों ने वाल्मिकी आश्रम में रहते हुए ही पकड लिया था।