स्वामी रामतीर्थ के जन्म दिवस पर विशेष/22 अक्टूबर
उनके श्वास-प्रश्वास में ‘ऊँ’ महामंत्र बस गया था। यही ‘ऊँ’ उनकी सर्वस्व था। इसी की अजस्र संगीत-लहरी उनके मुख से निरन्तर प्रवाहित होती रहती थी। कहते हैं उनके समीप स्थित जो भी व्यक्ति उस-संगीत लहरी को सुनता था, वह भी आत्मविभोर हो आध्यात्मिक राज्य में विचरण करने लगता था। स्वामी रामतीर्थ का जीवन परम आदर्श और अनुकरणीय रहा। उनका जन्म 22 अक्टूबर १८७३ में पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में हीरानन्द गोस्वामी के परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था।
कष्ठों भरा जीवन
विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली के बीच भी उन्होंने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया था। वे उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये। इसके लिए इन्हें ९० रुपये मासिक की छात्रवृत्ति भी मिली। अपने अत्यंत प्रिय विषय गणित में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे देते थे। इनका रहन-सहन बहुत ही साधारण था। लाहौर में ही उन्हें स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। उस समय वे पंजाब की सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे।
प्रो॰ तीर्थराम से रामतीर्थ
वर्ष १९०१ में प्रो॰ तीर्थराम ने लाहौर से अन्तिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया। अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहूँचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुँचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा। मध्यरात्रि में प्रो॰ तीर्थराम को आत्म-साक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम और संशय मिट गये। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वह प्रो॰ तीर्थराम से रामतीर्थ हो गये। उन्होंने द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूँछ आदि का त्यागकर सन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी व साथियों को वहाँ से वापस लौटा दिया। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी पुस्तक मन की लहर में ‘युवा सन्यासी’ शीर्षक से एक बड़ी ही मार्मिक कविता लिखी थी।
विदेश में भारतीय संस्कृति का उद्घोष
स्वामी रामतीर्थ ने सभी बन्धनों से मुक्त होकर एक सन्यासी के रूप में घोर तपस्या की। प्रवास के समय उनकी भेंट टिहरी रियासत के तत्कालीन नरेश कीर्तिशाह से हुई। टिहरी नरेश पहले घोर अनीश्वरवादी थे। स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर वे भी पूर्ण आस्तिक हो गये। महाराजा ने स्वामी रामतीर्थ के जापान में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था की। वे जापान से अमरीका तथा मिस्र भी गये। विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा विदेश से लौटकर भारत में भी अनेक स्थानों पर प्रवचन दिये। उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की।
स्वामी रामतीर्थ ने जापान में लगभग एक मास और अमेरिका में लगभग दो वर्ष तक प्रवास किया। वे जहाँ-जहाँ पहुँचे, लोगों ने उनका एक सन्त के रूप में स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व में चुम्बकीय आकर्षण था, जो भी उन्हें देखता वह अपने अन्दर एक शान्तिमूलक चेतना का अनुभव करता। दोनों देशों में राम ने एक ही संदेश दिया-“आप लोग देश और ज्ञान के लिये सहर्ष प्राणों का उत्सर्ग कर सकते हैं। यह वेदान्त के अनुकूल है। पर आप जिन सुख साधनों पर भरोसा करते हैं उसी अनुपात में इच्छाएँ बढ़ती हैं। शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आप को पहचानो, तुम स्वयं ईश्वर हो।”
‘सब सभा समाजें राम की’
सन् १९०४ में स्वदेश लौटने पर लोगों ने राम से अपना एक समाज खोलने का आग्रह किया। राम ने बाँहें फैलाकर कहा, भारत में जितनी सभा समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं; देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।
टिहरी (गढ़वाल) से उन्हें अगाध स्नेह था। वे पुन: यहाँ लौटकर आये। टिहरी उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी और वही उनकी मोक्षस्थली भी बनी। १९०६ की दीपावली के दिन उन्होंने गंगा में जलसमाधि ले ली।