भारतीय ज्ञान का खजाना – 5

भारत का उन्नत नौकायन शास्त्र

विश्वप्रसिद्ध पर्यटन स्थल थाईलैंड के बैंकाक हवाई अड्डे का नाम है – सुवर्णभूमि विमानतल. इस हवाई अड्डे में प्रवेश करते ही सबसे पहले जो बात सभी का ध्यान आकर्षित करती है, वह है एक विशालकाय कलाकृति. यह कलाकृति है भारतीय पुराणों में वर्णित ‘समुद्र मंथन’ की. इस कलाकृति के चारों तरफ सेल्फी लेने वाले पर्यटकों का झुण्ड सदैव उमड़ा हुआ रहता है. इसी सुवर्णभूमि विमानतल पर थोड़ा आगे बढ़ते ही एक बड़ा सा नक्शा लगा हुआ है. लगभग एक हजार – डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के इस नक़्शे में ‘पुरुषपुर’ (पेशावर) से लेकर ‘पापुआ न्यू गिनी’ तक का भूभाग दर्शाया गया है, जिसके बीचों बीच बड़े और मोटे अक्षरों में लिखा है, ‘इण्डिया’. इसी नक़्शे में सयाम (थाईलैंड) को भी गाढ़े रंग से दर्शाया गया है. अर्थात् यह विशालकाय नक्शा ऊँचे स्वरों में दुनिया को बता रहा है कि – ‘किसी समय पर सयाम (अर्थात् थाईलैंड) समूचे विश्व में फैली हुई भारतीय संस्कृति का ही एक हिस्सा था, और हमें इस बात पर गर्व है..’.

दक्षिण-पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों में यह भावना तीव्रता से प्रतिबिंबित होती दिखाई देती है. अपने राष्ट्र ध्वज में पूरे गर्व के साथ हिन्दू मंदिर का चिन्ह लगाने वाला, पूरे विश्व का एकमात्र देश हैं – कम्बोडिया. इस क्षेत्र में एक इस्लामिक देश है, ब्रुनेई दारुस्सलाम. इस देश की राजधानी का नाम है – बन्दर सेरी भगवान. यह नाम ‘बन्दर श्री भगवान’ नामक संस्कृत शब्द का ही अपभ्रंश है. परन्तु इस्लामिक राष्ट्र की राजधानी के नाम में ‘श्री भगवान’ शब्द इस देश के निवासियों को खटकना तो दूर, बल्कि उन्हें इस पर अभिमान है, गर्व हैं.

जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, सयाम, यवद्वीप इत्यादि सभी तत्कालीन देश, जो वर्तमान में इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, कम्बोडिया, विएतनाम वगैरह नामों से जाने जाते हैं, इन सभी देशों पर हिन्दू संस्कृति की जबरदस्त छाप आज भी मौजूद है. दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के हिन्दू राजा इन प्रदेशों में गए थे. ऐसा कोई भी तथ्य नहीं मिलता कि भारत से गए राजाओं ने वहां भीषण युद्ध किया हो. इसकी बजाय शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी समृद्ध संस्कृति के बल पर समूचा दक्षिण-पूर्व एशिया धीरे-धीरे हिन्दू विचारों को अपना मानने लगा था.

अब एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब बड़े पैमाने पर हिन्दू राजा आंध्र, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गए, तो वे कैसे गए होंगे…? ज़ाहिर है कि समुद्री मार्ग से ही गए होंगे. अर्थात् उस कालखंड में भारत में नौकायन शास्त्र अत्यंत उन्नत स्थिति में मौजूद था. उस कालखंड की भारतीय नौकाओं एवं नाविकों के अनेक चित्र एवं मूर्तियाँ कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बाली जैसे स्थानों पर दिखाई देती हैं. उस काल में भी कम से कम पांच सौ यात्रियों को ले जाने की क्षमता वाली नौकाओं का निर्माण भारत में होता था.

उस काल में समुद्री यात्राओं की स्थिति को देखते हुए, यह निश्चित कहा जा सकता है कि भारतीयों के पास उत्तम दिशाज्ञान एवं समुद्री वातावरण की पूरी समझ थी, अन्यथा उस समय उफनते समुद्र में, आज जैसे आधुनिक मौसम यंत्र एवं यात्राओं संबंधी विभिन्न साधनों के नहीं होने के बावजूद, इतनी दूर के देशों तक पहुंचना, उन देशों से सम्बन्ध बनाना, वहां पर व्यापार करना, भारत जैसे देश के ‘एक्सटेंशन’ की तरह उन देशों से संपर्क लगातार बनाए रखना… इससे सिद्ध होता है कि भारतीयों का नौकायन शास्त्र उन दिनों अत्यधिक उन्नत रहा ही होगा.

1955 और १1961 में गुजरात के ‘लोथल’ में पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन किया गया था. लोथल भले ही एकदम समुद्र के किनारे पर स्थित नहीं है, परन्तु समुद्र की एक छोटी पट्टी लोथल तक आई हुई है. पुरातत्व विभाग के उत्खनन में यह सामने आया कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले लोथल एक वैभवशाली बंदरगाह था. इस स्थान पर अत्यंत उन्नत एवं साफ़-सुथरी उत्तम नगर संरचना स्थित थी. परन्तु उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह निकलकर आई कि लोथल में जहाज़ों के निर्माण का कारखाना था. लोथल से अरब देशों एवं इजिप्त देश में बड़े पैमाने पर व्यापारिक गतिविधियों के भी प्रमाण मिले.

लगभग सन् 1955 तक लोथल अथवा पश्चिमी भारत के नौकायन शास्त्र सम्बन्धित अधिक तथ्य हमारे पास नहीं थे. परन्तु लोथल में किए उत्खनन के कारण इस ज्ञान के दरवाजे दुनिया के सामने खुल गए. इस खुदाई से पता चला कि समुद्र किनारे पर स्थित नहीं होने के बावजूद लोथल में नौकायन विज्ञान इतना समृद्ध था, और वहां नौकायन से सम्बन्धित इतनी गतिविधियां लगातार चलती रहती थीं, तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल जैसे दूसरे पश्चिमी राज्यों के समुद्र किनारों पर, इस बंदरगाह से भी अधिक कितनी ही सरस एवं समृद्ध संरचनाएं रही होंगी.

आज हम जिसे मुंबई में ‘नालासोपारा’ कहते हैं, वहां पर लगभग हजार /डेढ़ हजार वर्ष पहले ‘शुर्पारक’ नामक वैभवशाली बंदरगाह था. इस स्थान पर भारत के जहाज़ों के अलावा अनेक देशों के जहाज व्यापार करने आते थे. इसी प्रकार दाभोल.. इसी प्रकार सूरत…

आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य स्थापित होने के बाद उस राज्य ने दक्षिण भारत में अनेक विशाल और सुन्दर बंदरगाहों का निर्माण किया तथा पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही दिशाओं में व्यापार आरम्भ किया.

मैक्सिको के उत्तर-पश्चिम किनारे पर, अर्थात् ‘दक्षिण अमेरिका’ के उत्तरी छोर पर जहां समुद्र आकर मिलता है, वहां पर मैक्सिको का युकातान नामक प्रांत है. इस राज्य में पुरातन ‘माया’ संस्कृति के अनेक अवशेष आज भी बड़े पैमाने पर संरक्षित करके रखे गए हैं. इसी युकातान प्रांत में जवाकेतू नामक स्थान पर एक अति-प्राचीन सूर्यमंदिर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं. इस सूर्यमंदिर में संस्कृत में लिखा हुआ एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें शक संवत 885 में ‘भारतीय महानाविक’ वोसूलीन के आगमन की सूचना खुदी हुई है.

रॉबर्ट बेरोन वोन हेन गेल्डर्न (१८८५-१९६८), इस लंबे चौड़े नाम वाले एक जाने-माने ऑस्ट्रियन एंथ्रोपोलॉजिस्ट हुए हैं. इनकी शिक्षा-दीक्षा विएना विश्वविद्यालय में हुई. आगे चलकर 1910 में ये भारत और बर्मा देशों के दौरे पर आए. भारतीयों के उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति इनके मन में अत्यंत कौतूहल निर्माण हुआ और उन्होंने यहां पर अपना शोध आरम्भ किया. इस वैज्ञानिक ने दक्षिण-पूर्वी देशों में अच्छा-ख़ासा शोध कार्य किया. अपने शोध के अंत में रॉबर्ट ने मजबूती से इस बात को रेखांकित किया कि कोलंबस से कई वर्षों पूर्व बड़े-बड़े भारतीय जहाज मैक्सिको और पेरू देशों के दौरे किया करते थे. अब इससे अधिक और कौन सा सबूत चाहिए कि भारतीय नौकाओं / जहाज़ों का प्रवास पूरी दुनिया में सबसे पहले किया जाता रहा है. लेकिन फिर भी हमारे कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि अमेरिका की खोज कोलंबस ने और भारत की खोज(??) वास्को द गामा ने की..!

वास्तविकता ये है कि मूलतः वास्को द गामा स्वयं ही भारतीय जहाज़ों की सहायता से भारत तक पहुंचा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी जी ने डॉक्टर वाकणकर का सन्दर्भ देते हुए बहुत ही सटीक वर्णन किया है. डॉक्टर हरिभाऊ (विष्णु श्रीधर) वाकणकर, उज्जैन के एक प्रसिद्ध पुरातत्व विद्वान थे. भारत की सबसे प्राचीन नागरिक बस्ती के सबूत के रूप में जिन ‘भीमबेटका’ गुफाओं का उल्लेख किया जाता है, उन गुफाओं की खोज वाकणकर जी ने ही की हैं. अपने शोध के सन्दर्भ में डॉक्टर वाकणकर इंग्लैण्ड गए हुए थे. वहां पर एक संग्रहालय में उन्हें वास्को द गामा की हस्तलिखित डायरी दिखाई दी. उन्होंने वह डायरी देखी और उसका अनुवाद पढ़ा. उसमें वास्को द गामा ने स्वयं वर्णन किया है कि वह भारत में कैसे-कैसे पहुँचा.

उस डायरी के अनुसार जब वास्को द गामा का जहाज अफ्रीका के जंजीबार में पहुंचा, तब उसने वहां अपने जहाज से तीन गुना बड़े जहाज़ों को देखा, जो भारतीय थे. एक अफ्रीकी दुभाषिये की मदद से वास्को द गामा इन भारतीय जहाज़ों के मालिक से भेंट करने गया. ‘चन्दन’ नामक वह भारतीय व्यापारी अत्यंत सादे कपड़ों में खटिया पर बैठा हुआ था. जब वास्को द गामा ने उससे आग्रह किया कि उसे भी भारत आने की इच्छा है. तब उस व्यापारी ने सहजता से उत्तर दिया कि, ‘मैं कल ही वापस भारत जाने वाला हूं, तुम अपना जहाज मेरे पीछे-पीछे लेकर चले आओ…’. इस तरह वास्को द गामा भारत के समुद्र किनारे पर पहुंचा.

परन्तु दुर्भाग्य से आज भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता है कि वास्को द गामा ने भारत की खोज की…!!

मार्को पोलो (१२५४-१३२४) को एक अत्यंत साहसी समुद्री यात्री माना जाता है. इटली के इस व्यापारी ने भारत होते हुए चीन तक की समुद्री यात्राएं की थीं. यह तेरहवीं शताब्दी में भारत आया था. मार्को पोलो ने अपनी उस यात्रा के अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक लिखी है – मार्व्हल्स ऑफ द वर्ल्ड. इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. इस पुस्तक में मार्को पोलो ने भारतीय जहाज़ों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है. वह लिखता है कि, भारत में विशालतम जहाज़ों का निर्माण किया जाता है. लकड़ियों की दो परतों को जोड़कर उसमें लोहे की कीलों से उसे मजबूत किया जाता है. और बाद में कीलों के उन सभी छोटे-बड़े छेदों को बन्द करने के लिए एक विशेष पद्धति का गोंद उसमें भरा जाता है, जिससे पानी को पूर्णरूप से रोक दिया जाता है.

मार्को पोलो ने भारत में लगभग तीन सौ नाविकों के जहाज़ों का अध्ययन किया. उसने लिखा है कि, ‘एक-एक जहाज में तीन से चार हजार बोरी का सामान रखा जा सकता है और इसमें नाविकों/यात्रियों के रहने के लिए कमरे भी होते हैं. लकड़ी का सबसे निचला हिस्सा खराब होने लगता हैं, तो तत्काल उस पर लकड़ी की दूसरी परत चढ़ाई जाती है.’ भारतीय जहाज़ों की गति इतनी बढ़िया थी कि ईरान से कोचीन तक की यात्रा केवल आठ दिनों में पूरी हो जाती थी.

आगे चलकर निकोली कांटी नामक एक और समुद्री यात्री पंद्रहवीं शताब्दी में भारत आया. इसने तो भारतीय जहाज़ों की भव्यता और विशालता के बारे में बहुत कुछ लिखा है. डॉक्टर राधा कुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘इन्डियन शिपिंग’ में तत्कालीन भारतीय जहाज़ों का सप्रमाण एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया हुआ है.

परन्तु यह तो काफी बाद की बात है… अर्थात् जब भारत पर इस्लामी आक्रमण शुरू हुए, उसके बाद की. इस कालखंड में यूरोप में भी अनेक साहसी समुद्री यात्राओं का दौर शुरू हुआ था. यूरोपियन खलासी और व्यापारी भी विश्व को जीतने के लिए निकल रहे थे. उस समय अमेरिका ठीक से बसा नहीं था. यह कालखंड यूरोप का रेनेसां कहलाता है. इसी कारण सभी प्रकार के इतिहास लेखन में, तथा विकीपीडिया जैसे माध्यमों में यूरोपियन नौकायन शास्त्र के बारे बहुत सारा साहित्य लिखा गया. परन्तु इन यूरोपियनों से डेढ़-दो हजार वर्ष पूर्व भारतीय नौकायन की प्रगति और उन्नति के तमाम तथ्य एवं सबूत अब मिल चुके हैं.

भारत में उत्तर दिशा से इस्लामिक आक्रमण आरम्भ होने के कालखंड में, अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी में मालवा के राजा भोज ने ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे, अथवा विद्वानों से लिखवाए. इन्हीं ग्रंथों में से एक प्रमुख ग्रन्थ है ‘युक्ति कल्पतरु’. यह ग्रन्थ जहाज निर्माण के सन्दर्भ में है. छोटी यात्राओं एवं लंबी यात्राओं के लिए छोटे और बड़े, अलग-अलग क्षमताओं वाले जहाज़ों का निर्माण कैसे किया जाता है, इसका वर्णन इस ग्रन्थ में है. जहाज निर्माण के विषय पर इस ग्रन्थ को प्रामाणिक माना जाता है. अलग-अलग प्रकार के जहाज़ों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की लकड़ियों का चयन कैसे किया जाए, इस से शुरुआत करते हुए विशिष्ट क्षमताओं वाले जहाज एवं उनका पूरा ढांचा कैसे निर्मित किया जाए, इसका पूरा गणित इस ग्रन्थ से प्राप्त होता है.

परन्तु इस ग्रन्थ के लिखे जाने से भी हजार-डेढ़ हजार वर्ष पहले ही भारतीय जहाज समूचे विश्व में भ्रमण कर रहे थे. अर्थात् यह ‘युक्ति कल्पतरु’ ग्रन्थ कुछ नया शोध नहीं करता, परन्तु जो ज्ञान पहले से भारतीयों के पास था, उसे लिपिबद्ध करता है. क्योंकि भारतीयों को नौकाशास्त्र का ज्ञान पुरातन काल से ही था.

चंद्रगुप्त मौर्य के कालखंड में भारत के जहाज विश्वप्रसिद्ध थे. इन जहाज़ों द्वारा विश्व भर में भारत का व्यापार चलता था. इस बारे में कई ताम्रपत्र और शिलालेख प्राप्त हुए हैं. बौद्ध प्रभाव वाले कालखंड में, बंगाल में सिंहबाहू नामक राजा के शासनकाल में सात सौ यात्रियों को लेकर एक जहाज श्रीलंका प्रवास पर जाने का उल्लेख मिलता है. कुषाण काल एवं हर्षवर्धन काल में भी समुद्री व्यापार की समृद्ध परंपरा का उल्लेख मिलता है. इस्लामी आक्रान्ताओं को भारतीय नाविक तकनीक बिना किसी मेहनत के बनी बनाई प्राप्त हो गई. इस कारण अकबर के समय नौकायन विभाग इतना समृद्ध हो गया था कि जहाज़ों की मरम्मत एवं उनसे कर वसूली के कार्य हेतु अकबर को एक अलग विभाग का निर्माण करना पड़ा.

परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी में जो नौकायन शास्त्र चरम पर था, वह धीरे-धीरे मद्धम पड़ता चला गया. मुगलों ने उन्हें मुफ्त में मिले जहाज़ों को ठीक से तो रखा, परन्तु उनमें कोई वृद्धि नहीं की. दो सौ वर्षों का विजयनगर साम्राज्य अपवाद रहा. उन्होंने जहाज निर्माण के कारखाने भारत के पूर्वी एवं पश्चिमी, दोनों समुद्र किनारों पर आरम्भ किये और अस्सी से अधिक बंदरगाहों को ऊर्जित अवस्था में बनाए रखा. आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी नौसेना स्थापित की और सरदार आंग्रे ने उसे मजबूत किया.

परन्तु फिर भी, ग्यारहवीं शताब्दी से पहले वाला वैभव भारतीय जहाज निर्माण में कभी भी प्राप्त नहीं हुआ. इसी कालखंड में स्पेन और पुर्तगाल ने जहाज निर्माण में बड़ी सफलताएं हासिल कीं और भारत पीछे रह गया.

अंग्रेजों के भारत आगमन से पहले तक भारत में जहाज निर्माण की प्राचीन विद्या जीवित थी. सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपियन देशों की अधिकतम क्षमता 600 टन जहाज के निर्माण की थी. जबकि उसी कालखंड में भारत में ‘गोधा’ (संभवतः इसका नाम ‘गोदा’ होगा, जो स्पेनिश अपभ्रंश के कारण गोधा कहलाया होगा) नामक जहाज का निर्माण किया गया, जो 1500 टन से भी अधिक बड़ा था. भारत में अपनी दुकानें खोलकर बैठी कंपनियों – अर्थात् डच, पुर्तगाली, अंग्रेजी, फ्रेंच इत्यादि ने भारतीय जहाज़ों का उपयोग करना शुरू कर दिया, लेकिन भारतीयों को खलासी के रूप में नौकरी पर रखा. सन् 1811 में ब्रिटिश अधिकारी कर्नल वॉकर लिखता है कि, ‘ब्रिटिश जहाज़ों को प्रत्येक दस-बारह वर्षों में बड़ी मरम्मत करनी पड़ती है, जबकि सागौन की लकड़ी से बने हुए भारतीय जहाज पिछले पचास वर्षों से बिना किसी रिपेयरिंग के उत्तम कार्य कर रहे हैं…’.

भारतीय जहाज़ों की इस गुणवत्ता को देखते हुए ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ ने ‘दरिया दौलत’ नामक एक भारतीय जहाज खरीदा था, जो 87 वर्ष तक लगातार बिना किसी मरम्मत के उत्तम काम करता रहा.

मराठों को हराकर भारत की सत्ता हासिल करने से कुछ वर्ष पहले अर्थात् १८११ में एक फ्रांसीसी यात्री वाल्त्जर साल्विंस ने ‘ले हिन्दू’ नामक एक पुस्तक लिखी थी. उस पुस्तक में वह लिखते हैं, ‘..प्राचीन काल में नौकायन क्षेत्र में हिन्दू सबसे अग्रणी थे, और आज भी (१८११ में भी) इस क्षेत्र में वे यूरोपियन देशों को बहुत कुछ सिखा सकते हैं…’

अंग्रेजों द्वारा दिए गए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1733 से 1863 के बीच अकेले मुम्बई के एक कारखाने में लगभग 300 से अधिक जहाज़ों का निर्माण हुआ, जिनमें से अधिकांश जहाज ब्रिटेन की महारानी की शाही नौसेना में शामिल किए गए. इनमें से ‘एशिया’ नामक जहाज  2289 टन का था और यह जहाज 84 तोपों से सज्जित था. बंगाल में चटगांव, हुगली (कोलकाता), सिलहट और ढाका में भी जहाज बनाने के कारखाने थे. 1781 से लेकर 1881 तक, सौ वर्षों में अकेले हुगली कारखाने में 272 छोटे-बड़े जहाज तैयार किए गए थे. अर्थात् विचार करें कि जब भारतीय जहाज निर्माण के पतनकाल में भी यह परिस्थिति थी, तो ग्यारहवीं शताब्दी से पहले भारत का जहाज निर्माण उद्योग कितना समृद्ध होगा, इसका सामान्य अंदाज तो लग ही जाता है.

अलबत्ता ऐसे उत्तम गुणवत्ता वाले जहाज़ों को देखकर इंग्लैण्ड में, अंग्रेज, ईस्ट इण्डिया कंपनी पर दबाव बनाने लगे कि भारतीय जहाज न खरीदे जाएं, वर्ना वहां के जहाज उद्योग बर्बाद हो जाएंगे. सन् 1881 में कर्नल वॉकर ने बाकायदा आंकड़े देकर सिद्ध किया कि, ‘भारतीय जहाज़ों को अधिक देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती और उनका मेंटेनेंस भी कम खर्च में हो जाता है..’ (यह सभी पत्र ब्रिटिश संग्रहालय के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अभिलेखागार में उपलब्ध हैं).

परन्तु इंग्लैण्ड के जहाज निर्माता व्यापारियों को इस बात का बहुत बुरा लगा. इंग्लैंड के डॉक्टर टेलर लिखते हैं कि, भारतीय माल से लदा हुआ भारतीय जहाज जब इंग्लैण्ड के समुद्र किनारे पर पहुंचा, तब अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी अफरातफरी मची, मानो शत्रु ने आक्रमण कर दिया हो. लन्दन के बंदरगाह पर स्थित जहाज निर्माण करने वाले कारीगरों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी के डायरेक्टर बोर्ड को पत्र लिखा कि, ‘…यदि आप भारतीय जहाज़ों का ही उपयोग करने लगेंगे, तो हम पर भुखमरी और बेरोजगारी का खतरा मंडराने लगेगा… हमारी दशा बहुत विकट हो जाएगी…’

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उन कारीगरों तथा इंग्लैण्ड के व्यापारियों की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि भारतीय जहाज़ों का उपयोग करने में उनका व्यापारिक फायदा था. परन्तु 1857 की क्रान्ति के बाद जब भारत का पूरा शासन सीधे इंग्लैण्ड की रानी के हाथ में आ गया, तब रानी ने एक विशेष अध्यादेश निकालकर भारतीय जहाज़ों के निर्माण पर प्रतिबन्ध लगा दिया. वर्ष 1863 से यह प्रतिबन्ध लागू हुआ और एक अत्यंत वैभवशाली, समृद्ध एवं तकनीकी रूप से अत्यधिक उन्नत भारतीय नौकायन शास्त्र की मृत्यु हो गई.

इस सन्दर्भ में सर विलियम डिग्बी ने लिखा है कि, ‘पश्चिमी देशों की एक सामर्थ्यवान महारानी ने, सागर की महारानी का खून कर दिया…!’

और इस प्रकार दुनिया को ‘नेविगेशन’ जैसा शब्द देने से लेकर आधुनिक नौकायन शास्त्र सिखाने वाले भारतीय नाविक शास्त्र का एवं उन्नत-समृद्ध जहाज निर्माण उद्योग का असमय अंत हो गया…!

–  प्रशांत पोळ

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