जो भी व्यक्ति इस संसार में आया है, उसकी मृत्यु होती ही है. मृत्यु के बाद अपने-अपने धर्म एवं परम्परा के अनुसार उसकी अंतिम क्रिया भी होती ही है. पर, मृत्यु के 48 साल बाद अपनी जन्मभूमि में किसी की अंत्येष्टि हो, यह सुनकर कुछ अजीब सा लगता है. लेकिन हिमाचल प्रदेश के एक वीर सैनिक कर्मचंद कटोच के साथ कुछ यही हुआ.
वर्ष 1962 में भारत और चीन के मध्य हुए युद्ध के समय हिमाचल प्रदेश के पालमपुर (जिला कांगड़ा) क्षेत्र के पास अगोजर गांव का 21 वर्षीय नवयुवक कर्मचंद सेना में कार्यरत था. हिमाचल के अधिकांश क्षेत्रों में वहां के हर घर से प्रायः कोई न कोई व्यक्ति सेना में होता ही है. इसी परम्परा का पालन करते हुए 19 वर्ष की अवस्था में कर्मचंद थलसेना में भर्ती हो गया था. प्रशिक्षण के बाद उसे चौथी डोगरा रेजिमेण्ट में नियुक्ति मिली. कुछ ही समय बाद धूर्त चीन ने भारत पर हमला कर दिया. हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में डूबे प्रधानमंत्री नेहरू के होश आक्रमण का समाचार सुनकर उड़ गये. उस समय भारतीय जवानों के पास न समुचित हथियार थे और न ही सर्दियों में पहनने लायक कपड़े और जूते. फिर भी मातृभूमि के मतवाले सैनिक सीमाओं पर जाकर चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करने लगे.
युद्ध शुरू होने के दौरान कर्मचंद के विवाह की बात चल रही थी. मातृभूमि के आह्वान को सुनकर उसने अपनी भाभी को कहा कि मैं तो युद्ध में जा रहा हूं. पता नहीं वापस लौटूंगा या नहीं. तुम लड़की देख लो, पर जल्दबाजी नहीं करना. कर्मचंद को डोगरा रेजिमेण्ट के साथ अरुणाचल की पहाड़ी सीमा पर भेजा गया. युद्ध के दौरान 16 नवम्बर, 1962 को कर्मचंद कहीं खो गया. काफी ढूंढने पर भी न वह जीवित अवस्था में मिला और न ही उसका शव. ऐसा मान लिया गया कि या तो वह शहीद हो गया है या चीन में युद्धबन्दी है. युद्ध समाप्ति के बाद भी काफी समय तक जब उसका कुछ पता नहीं लगा, तो उसके घर वालों ने उसे मृतक मानकर गांव में उसकी याद में एक मंदिर बना दिया.
लेकिन पांच जुलाई, 2010 को अरुणाचल की सीमा पर एक ग्लेशियर के पास सीमा सड़क संगठन के सैन्य कर्मियों को एक शव दिखाई दिया. पास जाने पर वहां सेना का बैज, 303 राइफल, 47 कारतूस, एक पेन और वेतन पुस्तिका भी मिले. साथ की चीजों के आधार पर जांच करने पर पता लगा कि वह भारत-चीन युद्ध में बलिदान हुए कर्मचंद कटोच का शव है. गांव में उसके चित्र और अन्य दस्तावेजों से इसकी पुष्टि भी हो गयी. इस समय तक गांव में कर्मचंद की मां गायत्री देवी, पिता कश्मीर चंद कटोच और बड़े भाई जनकचंद भी मर चुके थे. उसकी बड़ी भाभी और भतीजे जसवंत सिंह को जब यह पता लगा, तो उन्होंने कर्मचंद की अंत्येष्टि गांव में करने की इच्छा व्यक्त की. सेना के अधिकारियों को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. सेना ने पूरे सम्मान के साथ शहीद का शव पहले पालमपुर की होल्टा छावनी में रखा. वहां वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों ने उसे श्रद्धासुमन अर्पित किये. इसके बाद 15 जुलाई, 2010 को शव को अगोजर गांव में लाया गया.
तब तक यह समाचार चारों ओर फैल चुका था. अतः हजारों लोगों ने वहां आकर अपने क्षेत्र के लाडले सपूत के दर्शन किये. इसके बाद गांव के श्मशान घाट में कर्मचंद के भतीजे जसवंत सिंह ने उन्हें मुखाग्नि दी. सेना के जवानों ने गोलियां दागकर शहीद को सलामी दी. बड़ी संख्या में सैन्य अधिकारी तथा शासन-प्रशासन के लोग वहां उपस्थित हुए थे. इस प्रकार 48 वर्ष बाद भारत मां का वीर पुत्र अपनी जन्मभूमि में ही सदा के लिए सो गया.