मानवतावादी कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ -’-8 दिसम्बर/जन्म-दिवस
कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म 8 दिसम्बर, 1897 को ग्राम म्याना (शाजापुर, म.प्र.) में एक धर्मप्रेमी परिवार में हुआ था। इनके जन्म के समय उनके पिता प्रसिद्ध तीर्थस्थल नाथद्वारा में रह रहे थे। शाजापुर से मिडिल और उज्जैन से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ये उच्च शिक्षा के लिए कानपुर आ गये, जहाँ गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ से इनकी घनिष्ठता हो गयी।
छात्र जीवन में ही नवीन जी देश की स्वतन्त्रता के बारे में सोचने लगे थे। गणेशशंकर विद्यार्थी के साथ इन्होंने ‘प्रताप’ समाचार पत्र में सह सम्पादक का काम किया। लोकमान्य तिलक के आग्रह पर ये राजनीति में सक्रिय हुए। स्वतन्त्रता आन्दोलन की जेल यात्राओं में इनका सम्पर्क जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, रफी अहमद किदवई जैसे नेताओं से हुआ। गांधी जी और विनोबा भावे के प्रति भी उनके मन में अत्यधिक आदर का भाव था।
नवीन जी ने 1916 में लखनऊ में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लिया। वहाँ इनका सम्पर्क राजनेताओं के साथ-साथ माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और रायकृष्ण दास जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से भी हुआ, जो लगातार बना रहा। 1918 में साहित्यिक अभिरुचि बढ़ने पर इन्होंने ‘नवीन’ उपनाम अपनाया और अपनी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में भेजने लगे। उस समय की प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उनकी कहानियाँ और ‘प्रताप’ में क्रान्तिकारी आलेख प्रकाशित होने लगे।
भारत के स्वतन्त्र होने तक नवीन जी नौ बार जेल गये और कुल मिलाकर अपनी युवावस्था के 12 वर्ष उन्होंने कारागृह के सीखचों के पीछे बिताए; पर जेल जीवन का वे साहित्य सृजन में उपयोग करते थे। उनके साहित्य का बड़ा भाग जेल में ही रचा गया है। 1923 में पिताजी के देहांत के बाद से भी इनका मनोबल कम नहीं हुआ और इन्होंने आन्दोलनों में सहभागिता जारी रखी। 1956 में इन्हें सांसद के रूप में राज्यसभा में भेजा गया। हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा के कारण इन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर उर्दू को संविधान में नहीं घुसने दिया।
राजनीतिक यात्रा के इन पड़ावों के साथ इनकी साहित्य यात्रा भी चलती रही। रश्मिरेखा (1951), अपलक (1952), विनोबा स्तवन (1953) और उर्मिला 1957 में प्रकाशन हुई। 1953 में ये राजभाषा आयोग के उपाध्यक्ष बने तथा 1960 में इन्हें ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया। ‘नवीन’ जी की कृतियों में राष्ट्र, प्रकृति, दर्शन और मानव प्रेम के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उन्होंने तत्कालीन परम्पराओं से हटकर साहित्य रचा और अपने ‘नवीन’ उपनाम को सार्थक किया। उन्होंने अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद को भी अपने काव्य का विषय बनाया। वे सदा अपने सहयोगियों को प्रोत्साहन देते थे।
एक बार ‘उर्मिला’ पुस्तक को ‘साहित्य अकादमी’ का पुरस्कार मिलने वाला था। अनेक साहित्यकार इस पर सहमत थे; पर नवीन जी ने कहा कि मेरे अनुजों को यह पुरस्कार मिले, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी। इसी प्रकार एक बार नवीन जी और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषण प्रतियोगिता के निर्णायक थे। वरिष्ठ होने के नाते नवीन जी को निर्णय की घोषणा करनी थी; पर उन्होंने इसके लिए दिनकर जी को आगे कर दिया।
लम्बी बीमारी के बाद 29 अपै्रल, 1960 को उनका देहान्त हुआ। उनके देहावसान के बाद भी ‘प्राणार्पण’ खण्ड काव्य और ‘हम विषपायी जनम के’ नामक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ।