अयोध्या मामला : कितनी ही बार अदालत में झूठे साबित हुए वामपंथी बुद्धिजीवी

जब सच से सामना होता है तो झूठ के पैर कांपने लगते हैं.वामपंथी बुद्धिजीवी न जाने कितनी बार अदालत में झूठे साबित हुए फिर भी वे वहां राम मंदिर न होने का दावा करते रहे

अयोध्या मामले में हिंदू पक्ष को झूठा साबित करने की कोशिश करने वाले वामपंथी अदालत में बार-बार झूठे साबित हुए. जब वास्तव में सबूतों की धार पर रखे गए तो उनकी बोलती बंद होती गई. अदालत उन्हें बार-बार फटकार लगाती गई. इनके फर्जी सबूतों की धज्जियां उड़ती गईं. अदालत में उनके साथ क्या हुआ ये विस्तार से जानना जरुरी है, क्योंकि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और वक्फ बोर्ड की तरफ से तथाकथित सबूत पेश करने वाले यही लोग रहे हैं.
 
खोखला दंभ
जब पुरातत्व विभाग ने कोर्ट के कहने पर जन्मस्थल की खुदाई प्रारंभ की और मंदिर के प्रमाण सामने आने लगे तो इन लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ‘ पुरातत्व विभाग तो एक सरकारी विभाग है, उसकी क्षमता का क्या भरोसा. वैसे भी उसमें सारे हिंदू इतिहासकार भरे हुए हैं. वो कैसे निष्पक्ष रिपोर्ट दे सकते हैं.’ इरफ़ान हबीब और डीएन झा अयोध्या राम की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाने लगे. जो पुरातात्विक या दस्तावेजी सबूत सामने थे उन्हें नकारा, और अपने दावों को सिद्ध करने के लिए अजीबोगरीब दलीलें प्रस्तुत करते गए. जैसे डीएन झा ने एक ब्रिटिश फौज के चिकित्सक फ्रांसिस बुकनन का सन्दर्भ पेश किया, जिसने 1810 में लिखा था कि अयोध्या में मंदिर को तोड़कर मस्जिद नहीं बनाई गई. अब बुकनन की योग्यता थी जीवशास्त्र और वनस्पति शास्त्र में , लेकिन उसको इतिहासकार के रूप में पेश किया जबकि भारत के पेशेवर पुरातत्वविदों को नकार दिया. ब्रिटिश फौज के चिकित्सक ने कहा कि ऐसा नहीं हुआ तो वो पत्थर की लकीर हो गया, और जब सरकारी ब्रिटिश दस्तावेज इस ओर इशारा करते हैं कि मंदिर को तोड़कर बाबर ने ‘मस्जिद’ बनाई, तो उसे अंग्रेजों की चाल करार दे दिया गया. वो विशेष वैचारिक झुकाव रखने वाले ‘इंडोलॉजिस्ट’ को उद्धृत करते हैं, कि भारत में मुस्लिम शासकों ने मंदिर नहीं तोड़े, लेकिन भारत के पिछले पांच सौ वर्षों के साहित्य में बिखरे विवरणों को चर्चा करने योग्य भी नहीं समझते.
हैरान थी अदालत ये ‘बुद्धिजीविता’ देखकर
साल 2010. इलाहबाद उच्च न्यायालय में रामजन्मभूमि मामले की सुनवाई हो रही थी. ऐसी लचर दलीलें लेकर जब ये लोग न्यायालय पहुंचे, तो इनके कुतर्क तो हवा में उड़ ही गए, इनकी योग्यता और विशेषज्ञता का मुलम्मा भी उतर गया. सुवीरा जायसवाल मंदिर न होने की अपनी थ्योरी के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे सकीं. सख्ती से पूछा तो जवाब मिला कि ‘मैंने इस संबंध में इतिहास का अध्ययन नहीं किया है.” जब उनसे पूछा गया कि डॉ. अजीज अहमद की किताब जो अदालत में पेश की गई है, वो तो आपके निष्कर्ष के विरुद्ध है? तो सुवीरा ने जवाब दिया कि वो उस किताब से असहमत हैं. अदालत ने जब किताब के बारे में विस्तार से पूछताछ करने शुरू कर दी तो सुवीरा का जवाब आया कि “मैंने ये किताब पढ़ी नहीं हैं.”
दूसरे इतिहासकार थे सुरेश चंद्र मिश्रा, जो भारतीय पुरातव विभाग की योग्यता को चुनौती दे रहे थे. वो दो बार गवाही देने आए. पहली पेशी में कहा कि बाबरी ढांचे में फारसी में एक शिलालेख लगा हुआ था. दूसरी पेशी में बोले कि ढांचे में अरबी में एक शिलालेख लगा हुआ था. अब अदालत ने पूछा कि अरबी में था या फारसी में ? तो अचकचा गए, फिर थोड़ी देर में मान लिया कि उन्हें न तो अरबी आती है, और न फारसी. और “मैंने किसी पत्रिका में इसके बारे पढ़ा था.” ये इतिहासकार महोदय जितना बोलते गए, उतना फंसते गए. बोले कि “मैं विवादित ढांचे में बाबरनामा पुस्तक लेकर गया था, उस पुस्तक से शिलालेख का मिलान किया था.” जब और बारीकी से जिरह हुई तो उन्होंने कहा कि वो पुस्तक अंदर लेकर नहीं गए थे, बाहर ही छोड़ गए थे.
एक अन्य प्राध्यापक सुशील श्रीवास्तव भी बाबरी के पक्ष में गवाही देने अदालत में पेश हुए. थोड़ी ही देर में उन्होंने मान लिया कि उन्हें इतिहास की कोई ख़ास जानकारी नहीं है, और उन्हें न तो अरबी-फारसी आती है और न ही संस्कृत. फिर जब अदालत ने उनसे पूछा कि वो इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे कि बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने मंदिर को तोड़कर बाबरी ढांचा खड़ा नहीं किया था. तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके ससुर ऐसा मानते हैं. जब ससुर साहब की विशेषज्ञता के बारे में पूछताछ हुई तो पता चला कि श्रीवास्तव जी इस्लाम अपना चुके हैं, उनका नया नाम सज्जाद है, और उन्होंने इस्लाम अपनाया ताकि मेहर अफसान फारुखी से निकाह कर सकें. सुशील श्रीवास्तव उर्फ सज्जाद साहब ने अयोध्या पर एक किताब भी लिखी थी.
भटकाते और अटकाते रहे…
वामपंथी इतिहासकार भारत के आमजन से कोसों दूर रहे लेकिन एक छोटे लेकिन प्रभावशाली दायरे के अंदर उनकी चर्चा और रूतबा हमेशा बना रहा, जिसके बल पर वो तीस सालों तक अयोध्या मामले को भटकाते और अटकाते रहे. इनके पोषण केंद्र बने मीडिया संस्थान , जेएनयू जैसे कुछ बड़े शिक्षा संस्थान, कला संस्थान, सत्ता की कृपा से मिलने वाली अकादमिक कुर्सियां और विदेशों, ख़ास तौर पर यूरोप के कुछ ऐसे विश्वविद्यालय जहाँ समाजवादी या वामपंथी विचार के लोग प्रभाव में हैं. चीन और रूस की कम्युनिस्ट सत्ता से मार्गदर्शन तो वो लेते ही रहे और इसलिए वहाँ से भी इन्हें उभारने, सँवारने और प्रचारित-प्रक्षेपित करने के योजनाबद्ध काम होते रहे. वामपंथी बुद्धिजीवियों ने तो पाकिस्तान में भी ऐसी दोस्तियां गांठकर रखीं कि वहाँ की गोष्ठियों में उन्हें भारत और हिंदू संस्कृति को कोसने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा. इसलिए वो धारा 370 बनाने रखने की वकालत करते रहे, सेना को खलनायक और अलगाववादियों को नायक बताते रहे. जब अयोध्या आंदोलन प्रारंभ हुआ तो उपरोक्त सभी साधनों और मंचों का उपयोग राम मंदिर की मांग को हिंसक और असहिष्णु लोगों के षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिए किया गया. मीडिया में इसी आशय के लेख और रपट छपते. उक्त आशय के विचार प्रकट करने वाले लोगों के साक्षात्कार प्रकाशित होते. कला और नाट्य जगत में भी इसका खासा असर था. और ये सिलसिला चलता रहा.

प्रशांत बाजपई

साभार – पाञ्चजन्य

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