10 मई, 1857 विशेष: प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े अनकहे तथ्य और भ्रांतियों की पड़ताल

1857 का वो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

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साल 1850 के आते आते ईस्ट इंडिया कंपनी का देश के बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था। जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे भारतीय जनता के बीच ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष फैलता गया। प्लासी के युद्ध के एक सौ साल बाद ब्रिटिश राज के दमनकारी और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ असंतोष एक क्रांति के रूप में भड़कने लगा, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में कई घटनाएं घट चुकी थीं। जैसे कि 18वीं सदी के अंत में उत्तरी बंगाल में संन्यासी आंदोलन और बिहार एवं बंगाल में चुनार आंदोलन हो चुका था। 19वीं सदी के मध्य में कई किसान आंदोलन भी हुए।

पूरे भारत पर 1857 की जनक्रांति का प्रभाव

इतिहासकार और इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कपिल कुमार के अनुसार 1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश के रिकॉर्ड में अंग्रेजों के खिलाफ 235 क्रांतियां-आंदोलन हुए, जिनका परिपक्व रूप हमें 1857 में दिखाई देता है। 1770 में बंगाल का संन्यासी आन्दोलन, जहां से वंदे मातरम निकल कर आया। 150 संन्यासियों को अंग्रेजों की सेना गोली मार देती है। जहां से मोहन गिरी, देवी चौधरानी, धीरज नारायण, किसान, संन्यासी, कुछ फकीर, ये सभी मिलकर क्रांति में खड़े हुए जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किया था और इसी क्रांति को दबाने में अंग्रेजों को तीस बरस लग गये। जहां से भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी नींव पड़ी, 1857 से पहले किसानों, जनजातियों तथा आम लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन रहा है।

18वीं सदी के पहले 5 दशकों में कई जनजातियों की स्थानीय क्रांतियां भी हुईं जैसे मध्य प्रदेश में भीलों का, बिहार में संथालों और ओडिशा में गोंड्स एवं खोंड्स जनजातियों के आंदोलन अहम थे, लेकिन इन सभी आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित था यानी ये स्थानीय प्रकृति के थे। अंग्रेजों के खिलाफ जो संगठित पहली महाक्रांति हुई वो साल 1857 था। शुरू में इस क्रांति को सिपाहियों ने आगे बढाया लेकिन बाद में ये जनव्यापी क्रांति बन गया। इस क्रांति की शुरुआत 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुई, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों से होती हुई पूरे देश में फैल गई और जनक्रांति का रूप ले लिया। ये जनक्रांति पूरी तरह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध थी, इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया।

1857 का महासमर एवं भ्रांतियाँ

एक सुनियोजित साजिश के तहत ये भ्रम फैलाया गया कि ये महा संग्राम केवल उत्तर भारत का था। वास्तव में पूरे भारत ने स्वतन्त्रता की यह लड़ाई लड़ी थी। पूरा देश अग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया। पूरा देश अग्रेंजों से लड़ा। अग्रेजों के खिलाफ हर वर्ग के लोग उतर आए। सैनिक, सामंत, किसान, मजदूर, दलित, महिला, बुद्धिजीवी सभी वर्ग के लोग लड़े थे। जस्टिस मैकार्थी ने हिस्ट्री ऑफ अवर ओन टाइम्स में लिखा है-‘वास्तविकता यह है कि हिंदुस्तान के उत्तर एवं उत्तर पश्चिम के सम्पूर्ण भूभाग की जनता द्वारा अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया गया था।’

भ्रम: 1857 का स्वतन्र्ता संग्राम सत्ता पर बैठे राजाओं और कुछ सैनिकों की सनक मात्र था।

सही तथ्य: यह पूरे भारत और हर वर्ग के समर्थन की महाक्रांति थी। वह प्रयास असफल भले ही हुआ हो पर भविष्य के लिए परिणामकारी रहा। सारी पाशविकता के बावजूद अंग्रेज हिंदुस्तानी जनता की स्वतंत्रता प्राप्ति की इच्छा को दबा नहीं सके थे।

भ्रम: यह केवल उत्तर भारत का विद्रोह था।

सही तथ्य: ये विद्रोह नहीं प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था और यह देशव्यापी जनसमर्थन युक्त समर था।

भ्रम: अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी जनता की स्वतंत्रता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा को बुरी तरह से कुचल दिया था, ऐसा कहा जाता है।

सही तथ्य: वास्तविकता यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के संयुक्त प्रयासों की यह शुरुआत थी। अंग्रेजों का जुए को कंधे से उतार फैंकने की जो शुरुआत हुई थी, वह न केवल जारी रही अपितु भविष्य के भारत को व्यापक रूप से प्रभावित किया।

1857 की क्रांति और महान इतिहासकारों-क्रांतिकारियों का मत

हम जिन इतिहासकारों के शोधपरक तथ्यों और वक्तव्यों की बात कर रहे हैं उनका जिक्र हमारी पाठ्यपुस्तकों में कम ही मिलता है। इन इतिहासकारों के तथ्यों को एक साज़िश के तहत प्रकाश में ना लाने का काम भी किया गया है ताकि 1857 की क्रांति के बारे में गलत तथ्य प्रसारित और स्थापित किए जा सकें, जिसमें वो काफी हद तक कामयाब भी रहे। 1857 की क्रांति में आम जनमानस की तरह शामिल था, हम वीर सावरकर के इस कोट से समझ सकते हैं- “जिन लोगों में और कुछ करने का साहस अथवा सामर्थ्य नहीं था, पर अपने इष्ट देवता की पूजा करते समय इतनी प्रार्थना भर की हो कि ‘मेरी मातृभूमि स्वतन्त्र कर दो’, उनका भी स्वतन्त्रता प्राप्ति में स्थान है।” सरदार पणिकर ‘ए सर्वे ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में लिखते हैं-‘’सबका एक ही और समान उद्देश्य था-ब्रिटिशों को देश से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त करना। इस दृष्टि से उसे विद्रोह नहीं कह सकेंगे। वह एक महान राष्ट्रीय उत्थान था।” शिवपुरी छावनी में न्यायाधीश के सामने तात्या टोपे ने कहा ‘’ब्रिटिशों से संघर्ष के कारण मृत्यु के मुख की ओर जाना पड़ सकता है, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। मुझे न किसी न्यायालय की आवश्यकता है न ही मुकदमें में भाग लेना है।” महान क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के ने कहा-‘’हे हिन्दुस्तानवासियों ! मैं भी दधीचि के समान मृत्यु को स्वीकार क्यों न करूँ? अपने आत्म समर्पण से आपको गुलामी व दुःख से मुक्त करने का प्रयास क्यों न करूं ? आप सबको अंतिम प्रणाम करता हूँ।” अमृत बाजार पत्रिका ने नवम्बर 1879 में वसुदेव बलवंत फड़के के बारे में लिखा था –‘’उनमें वे सब महान विभूतियां थी जो संसार में महत्कार्य सिद्धि के लिए भेजी जाती हैं। वे देवदूत थे। उनके व्यक्त्वि की ऊंचाई सामान्य मानव के मुकाबले सतपुड़ा व हिमालय से तुलना जैसी अनुभव होगी।”

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1857 की क्रांति के बाद का भारत

इस महासमर के बाद ब्रिटिश हुकूमत घुटनों के बल पर आ गई। अग्रेंजी सरकार की नीव हिल गई। भारत में साम्राज्यवादी सत्ता को मजबूत करने के लिए कई प्रमुख कदम उठाए। मसलन निरंकुश हो चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का नाम बदल दिया गया। अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैंड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गई।1864-69 के दौरान वायसराय रहे जॉन लॉरेंस ने भारतीय सेना का फिर से गठन किया। अब रानी और ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों को आपस में मिला दिया गया। 1876 में डिसरायली (बेंजामिन डिसरायली, यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री) ने उस नीति की घोषणा कि जिसमें रानी को भारत की महारानी की संज्ञा दी गयी। इस तरह ब्रिटिश सरकार बदलाव करने के लिए मजबूर हुई।

बड़े शैक्षिक संस्थानों में 1857 की क्रांति पर क्यों नहीं हुआ शोध ?

हैरान करने वाली बात ये है कि जेएनयू के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में 1857 की क्रान्ति के ऊपर एक भी थीसिस जमा नहीं हुई। अलीगढ़ विश्वविद्यालय और हैदराबाद यूनिवर्सिटी में भी नहीं, जोकि अपने आप में रिसर्च के गढ़ माने जाते हैं, दिल्ली में एक दो बाद में थीसिस हुईं हैं वह भी तब हुईं, जब सरकार ने घोषित किया कि यह भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था।

References: George Macaulay Trevelyan, British History in the Nineteenth Century and After, Longmans: London, 1922, pp. 323-324)

सन्दर्भ : 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिसाद; लेखक – श्रीधर पराडकर

पुस्तक 1857 का स्वातन्त्र्य समर-लेखक वीर सावरकर

-बृजेश द्विवेदी

साभार
ऋतम्

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