एक युवा सन्यासी का आध्यात्मिक एजेंडा – दरिद्र देवो भवः (भाग – 2)

12 जनवरी / जन्मदिवस, स्वामी विवेकानन्द

अनैतिक सामाजिक व्यवस्थाओं और धार्मिक संस्थाओं के कुप्रबंधन के कारण समाज द्वारा प्रताड़ित किए जा रहे दरिद्र और साधनहीन लोगों के प्रति हमदर्दी स्वामी जी में अकस्मात ही जागृत नहीं हुई थी. बचपन से ही उनका स्वभाव दयालू था. घर-घर जाकर मांगने वाले भिखारियों की दशा देखकर उनकी आंखों में आंसुओं की झड़ी लग जाती थी. इस तरह के गरीब लोगों को वे अपने कपड़े तक उतारकर दे दिया करते थे. अपने घर की रसोई से रोटी इत्यादि लाकर भूखे भिखारियों को खिलाना उनके स्वभाव का विशेष हिस्सा था.

विशेषतया किसी त्यौहार के अवसर पर तो बालक नरेन्द्रनाथ अपने और अपने परिवार वालों के कपड़े उठाकर जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे. ऐसे ही एक अवसर पर उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने इस नटखट परन्तु दयालू बेटे को घर की ऊपर की मंजिल में भेजकर नीचे ताला लगा दिया. तभी ठंड से ठिठुरते हुए एक भिखारी की आवाज आई – ‘सर्दी लग रही है कपड़ा दे दो’ इस करुणाजनक प्रार्थना से बालक नरेन्द्र का हृदय द्रवित हो गया और उसने ऊपर के कमरे में पड़े नये कम्बल को खिड़की के रास्ते से भिखारी के ऊपर फेंक दिया.

गरीबों के प्रति स्वामी विवेकानन्द की मानसिक अंतर्वेदना का अनुमान कलकत्ता में पड़े अकाल के समय उनकी छटपटाहट से लगाया जा सकता है. स्वामी जी ने अपने गुरु भाई स्वामी अखंडानन्द को पत्र लिख कर निर्देश दिया – ‘भिन्न-भिन्न स्थानों में जाओ, धन इकट्ठा करो और उसे जनसेवा में लगाओ. धर्म का प्रचार इसके साथ अपने आप हो जाएगा. यदि भूखों को भोजन का ग्रास देने में सब कुछ नष्ट हो जाए, तब भी हम भाग्यशाली हैं, अत्यंत भाग्यवान हो तुम. हृदय ही विजय प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं. पुस्तकें, विद्या, योग, ध्यान और ज्ञान सब सेवा की तुलना में धूली के समान हैं. प्रेम ही शक्ति है, भक्ति है और यही मुक्ति की ओर ले जाता है. प्रेम और मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची उपासना है’.

स्वामी जी अलमोड़ा के अपने सभी कार्यक्रमों को छोड़कर तुरन्त प्लेग पीड़ित कलकत्ता में जा पहुंचे. रोगियों की सेवा करते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया – ‘पीड़ितों की सेवा के लिए आवश्यकता पड़ने पर हम अपने मठ की भूमि तक भी बेच देंगे. हजारों असहाय नर नारी हमारे नेत्रों के सामने कष्ट भोगते रहें और हम मठ में रहें, यह असम्भव है. हम सन्यासी हैं, वृक्षों के नीचे निवास करेंगे और भिक्षा मांगकर जीवित रह लेंगे’. कलकत्ता महानगर में फैले प्लेग से प्रभावित होने वाले मेहतरों, डोमों और अन्य गरीब व मेहनतकश लोगों की दिन रात सहायता करते समय स्वामी जी अपने शिष्यों एवं गुरु भाइयों को समझाया करते थे – ‘यदि आप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हो तो इन पीड़ितों की सेवा में जुट जाओ, इससे बड़ा धर्म और कोई भी नहीं हो सकता’.

स्वामी विवेकानंद के भाषणों में उनके हृदय का चीत्कार अनेक बार प्रस्फुटित हुआ. अपने एक सारगर्भित उद्बोधन में वह कहते हैं – ‘हमारे देहमंदिर में प्रतिष्ठित आत्मा ही एकमात्र भगवान है. समस्त प्राणियों की देह भी मंदिर ही है, परन्तु मानव की देह सर्वश्रेष्ठ मंदिर है. यदि मैं उसमें भगवान की पूजा न कर सकूं तो फिर अन्य कोई भी ईंट पत्थर का मंदिर काम का नहीं होगा. मानव की देह तो चलता फिरता और चैतन्यमय मंदिर है. जब भी कभी आपको अवसर मिले प्रभु की संतानों की सेवा करो. यह साक्षात भगवान की ही सेवा है. ऐसा करते समय अपने आपको कभी बड़ा न समझें. आप धन्य हैं कि यह अवसर आपको दिया गया है दूसरों को नहीं. सचमुच तुम धन्य हो कि साक्षात भगवतस्वरूप गरीब भिखारी तुम्हारे द्वार पर आया है, उसे पूजा की ही दृष्टि से देखो, दुखी और गरीब लोग तो हमारी ही मुक्ति के लिए हैं. ताकि रोगी, कोढ़ी, पापी और पागल के रूप में अपने सामने आने वाले प्रभु की हम सेवा पूजा कर सकें’.

अपनी चिरसमाधि का समय निकट आता देख स्वामी विवेकानन्द ने भारतवासियों, विशेषतया युवकों को दिए गए अपने अंतिम संदेश में कहा – ‘हे नवयुवकों गरीबों और पीड़ितों के लिए एक सहानुभूति और अथक प्रयत्नों को थाति के तौर पर आप को सौंपता हूं. इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में, जो गोकुल के दीन दरिद्र के सखा थे, जो गुहक चांडाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्ध अवतार में अमीरों का न्यौता अस्वीकार कर एक वारांगना का न्यौता स्वीकार किया और उसे उभारा, जाओ उनके पास जाकर शाष्टांग प्रणाम करो. उनके सामने अपने जीवन की आहुति दो. आप स्वयं अपना बलिदान उन दीन, पतित और सताए जा रहे लोगों के लिए दो जिनके लिए स्वयं भगवान युग-युग में अवतार लिया करते हैं और जिन्हें वे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं’.

स्वामी जी ने एक ऐसे भारतीय समाज की कल्पना की थी, जिसकी जीवन रचना समता और सौहार्द के मूल्यों पर आधारित हो. वेदांत आधारित भारतीय चिंतन जिसमें छोटे बड़े के भेद, जाति आधारित विभाजन, सार्वजनिक सम्पत्ति पर किसी विशेष वर्ग का एकाधिकार और गरीबजनों और वंचितों के एकतरफा शोषण के लिए कोई स्थान नहीं, स्वामी जी के आध्यात्मिक एजेंडे का आधार बन गया.

स्वामी जी की सारी विचार शक्ति भारत के कोने कोने में बिखरे हुए वंचित समाज के उत्थान की योजनाओं पर टिकी रहती थी. विदेश के अपने दूसरे प्रवास के बाद स्वदेश लौटने पर उन्होंने भारतवासियों से कहा था – ‘उठो, जागो और स्वयं जागकर औरों को जगाओ, अपने नर जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्ति न हो जाए’. भारत के नवनिर्माण के लिए उन्होंने दरिद्र नारायण, गरीब और किनारे पर बैठे हुए भारतीयों का पुरजोर आवाहन इन ऐतिहासिक शब्दों में किया – ‘नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूजे के झाड़ से, कारखाने से हाट से, बाजार से, निकल पड़े झौपड़ियों, जंगलों, पहाड़ों और पर्वतों से’. स्पष्ट है कि स्वामी जी का सारा चिंतन और गतिविधियां भविष्य के एक ऐसे देशव्यापी जनांदोलन की शुरुआत और शक्तिशाली संगठन के निर्माण की कल्पना पर केन्द्रित था.

नरेन्द्र सहगल

(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

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