सांस्कृतिक प्रेरणा पुरुष लालचन्द प्रार्थी – 3 अप्रैल जन्म-दिवस
हिमाचल प्रदेश के गौरव श्री लालचन्द ‘प्रार्थी’ उन साहित्यकारों में थे, जो हिन्दी साहित्याकाश में आज भी ‘चाँद कुल्लुवी’ के नाम से चमक रहे हैं। कुल्लू से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र में उनके दो स्तम्भ ‘लूहरी से लिंघटी तक’ तथा ‘प्रार्थी के खड़प्के’ छपते थे। ये स्तम्भ पाठकों में अत्यधिक लोकप्रिय थे। दुर्भाग्यवश संग्रह न होने के कारण वे खड़प्के आज उपलब्ध नहीं हैं। प्रार्थी जी का जन्म कुल्लू जिले के नग्गर गाँव में 3 अप्रैल, 1916 को हुआ था। वे उच्च कोटि के साहित्यकार, राजनेता, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के प्रकांड विद्वान थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था और अपने धाराप्रवाह भाषण से श्रोताओं को घंटों तक बाँधे रखते थे।
वे एक प्रामाणिक विधायक और मन्त्री रहे। मैट्रिक की शिक्षा अपने क्षेत्र से पाकर वे लाहौर चले गये और वहाँ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। लाहौर में रहते हुए वे ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिखने लगेे। इसके साथ ही उन्होंने अपने विद्यालय के छात्रों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये। 1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। इसे गाते हुए बच्चे और बड़े गली-कूचों में घूमते थे। इसी समय उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक भी लिखी। यह गीत उस पुस्तक में ही छपा था। लेखन के साथ ही उनकी प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। वे पाँव में घुँघरू बाँधकर हारमोनियम बजाते हुए महफिलों में समाँ बाँध देते थे। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था।
लाहौर में निर्मित फिल्म ‘कारवाँ’ में उन्होंने अभिनय भी किया था। इसके अतिरिक्त भी उनमें अनेक गुण थे, जिनका वर्णन देवप्रस्थ साहित्य संगम, कुल्लू द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रार्थी के बिखरे फूल’ में विस्तार से किया गया है। लालचन्द प्रार्थी ने हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। एक समय ऐसा भी था, जब हिमाचल के लोगों में अपनी भाषा, बोली और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना पैदा हो गयी थी। वे विदेशी और विधर्मी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगे थे। ऐसे समय में प्रार्थी जी ने सांस्कृतिक रूप से प्रदेश का नेतृत्व किया। इससे युवाओं का पलायन रुका और लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना जाग्रत हुई।
हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना, कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित करना तथा कुल्लू में मुक्ताकाश कला केन्द्र की स्थापना उनके ही प्रयास से हुई। प्रार्थी जी ने अनेक भाषाओं में साहित्य रचा; पर उनकी पहचान मुख्यतः उर्दू शायरी से बनी। उनके काव्य को ‘वजूद ओ अदम’ नाम से उनके देहान्त के बाद 1983 में भाषा, कला और संस्कृति अकादमी ने प्रकाशित किया।
उन्होंने एक बार अपनी कविता में कहा था –
खुश्क धरती की दरारों ने किया याद अगर
उनकी आशाओं का बादल हूँ, बरस जाऊँगा।
कौन समझेगा कि फिर शोर में तनहाई के
अपनी आवाज भी सुनने को तरस जाऊँगा।।
11 दिसम्बर, 1982 को हिमाचल का यह चाँद छिप गया और लोग सचमुच उनकी आवाज सुनने को तरस गये।