02 जुलाई / जन्मदिवस – सत्रावसान की तिथि याद रही

downloadसरस्वती शिशु मंदिर योजना का जैसा विस्तार आज देश भर में हुआ है, उसके पीछे जिन महानुभावों की तपस्या छिपी है. उनमें से ही एक थे ….. दो जुलाई, 1929 को मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) के जागीर गांव में जन्मे राणा प्रताप सिंह जी. उनके पिता रामगुलाम सक्सेना जी मैनपुरी जिला न्यायालय में प्रतिष्ठित वकील थे.

उन्होंने अपने चारों पुत्रों और एक पुत्री को अच्छी शिक्षा दिलाई. राणा जी ने भी 1947 में आगरा से बीएससी की शिक्षा पूरी की. उसके बाद उनका चयन चिकित्सा सेवा (एमबीबीएस) के लिए हो गया, पर तब तक उन्हें संघ की धुन सवार हो चुकी थी. अतः वे सब छोड़कर प्रचारक बन गये. प्रचारक जीवन में वे उत्तर प्रदेश के इटावा, औरैया, फिरोजाबाद आदि में रहे. इसके बाद गृहस्थ जीवन अपनाकर वे औरैया के इंटर कॉलेज में पढ़ाने लगे. वर्ष 1952 में उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर सरस्वती शिशु मंदिर प्रारम्भ हुए. तत्कालीन प्रांत प्रचारक भाऊराव देशमुख जी तथा नानाजी देशमुख योजना के सूत्रधार थे. वर्ष 1958 में इन विद्यालयों के व्यवस्थित संचालन के लिए ‘शिशु शिक्षा प्रबंध समिति, उ.प्र.’ का गठन कर राणा जी को उसका मंत्री बनाया गया. अब तो वे तन-मन से शिुश मंदिर योजना से एकरूप हो गये.

राणा जी ने जहां पूरे प्रदेश में व्यापक प्रवास कर सैकड़ों नये विद्यालयों की स्थापना कराई, वहीं दूसरी ओर शिशु मंदिर के अनेक प्रशासनिक तथा शैक्षिक विषयों को एक सुदृढ़ आधार दिया. पाठ्यक्रम एवं पुस्तकों का निर्माण, वेतनक्रम, आचार्य नियमावली, आय-व्यय एवं शुल्क पंजी, आचार्य कल्याण कोष, आचार्य प्रशिक्षण आदि का जो व्यवस्थित ढांचा आज बना है, उसके पीछे राणा जी का परिश्रम और अनुभव ही छिपा है. इसी प्रकार शिशु मंदिर योजना का प्रतीक चिन्ह (शेर के दांत गिनते हुए भरत), वंदना (हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी) तथा वंदना के समय प्राणायाम आदि को भी उन्होंने एक निश्चित स्वरूप दिया. वे वाणी के धनी तो थे ही, पर एक अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें इतिहास गा रहा है, स्वामी विवेकानंद – प्रेरक जीवन प्रसंग, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, महर्षि व्यास की कथाएं, भगिनी निवेदिता, क्रांतिकारियों की गौरव गाथा, भारतीय जीवन के आधारभूत तत्व, भारतीयता के आराधक हम, सरस्वती शिशु मंदिर योजना : एक परिचय, बाल विकास, बाल रामायण, बाल महाभारत आदि प्रमुख हैं.

उनके अनुभव को देखते हुए कुछ समय के लिए उन्हें बिहार और उड़ीसा का काम दिया गया. इसके बाद लखनऊ में भारतीय शिक्षा शोध संस्थान की स्थापना होने पर उन्हें उसका सचिव तथा विद्या भारती प्रदीपिका का सम्पादक बनाया गया. विद्या भारती की सेवा से अवकाश लेने के बाद भी वे संघ तथा विद्या भारती के कार्यक्रमों से जुड़े रहे, पर दुर्भाग्यवश उन्हें स्मृतिलोप के रोग ने घेर लिया. वे बार-बार एक ही बात को दोहराते रहते थे. इस कारण धीरे-धीरे वे सबसे दूर अपने घर में ही बंद होकर रह गये. उनका पुत्र मर्चेंट नेवी में अभियंता था. दुर्भाग्यवश विदेश में ही एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी. जब उसका शव घर लाया गया, तो राणा जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की. उनकी स्मृति पूरी तरह लोप हो चुकी थी. जब कोई उनसे मिलने जाता, तो वे उसे पहचानते तक नहीं थे. इसी प्रकार उन्होंने जीवन के अंतिम 10-12 साल बड़े कष्ट में बिताये. उनकी पत्नी तथा बरेली में विवाहित पुत्री ने उनकी भरपूर सेवा की.

विद्या भारती के विद्यालयों में 20 मई को सत्रावसान होता है. सादा जीवन और उच्च विचार के धनी राणा जी के जीवन का वर्ष 2008 में इसी दिन सदा के लिए सत्रावसान हो गया.

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