इतिहास साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं. भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगत सिंह का नाम प्रमुख है. उस वीर की माता थीं, वीर माता विद्यावती कौर.
भगत सिंह पर उज्जैन के विख्यात लेखक श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा. नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिए माता जी जब उज्जैन आईं, तो उनके स्वागत के लिए सारा नगर उमड़ पड़ा. उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया. सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये. इतना ही नहीं, तो छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे.
पुस्तक के विमोचन के बाद सरल जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया. माता जी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया. उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए. माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालाएँ और राशि भेंट की. इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये. समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये. जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई. सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माता जी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगतसिंह जैसे वीर बन सकें.
स्वतंत्रता के पश्चात गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधाएँ मिलीं, पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गए. उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे. माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं. वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहाँ तकिये के नीचे रख देती थीं.
इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में एक जून, 1975 को अंतिम साँस ली. उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगतसिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिए समाप्त हो रही है.