एक बार की बात है गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं के साथ विहार करते हुए शाल्यवन में एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्म चर्चा शुरू हुई और उसी क्रम में एक भिक्षु ने उनसे प्रश्न किया “प्रभु! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी मात देते हुए बड़े-बड़े कार्य कर जाते हैं, जबकि अच्छी स्थिति वाले साधन संपन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण हैं ? क्या पूर्वजन्मों के कर्म अवरोध बन कर खड़े हो जाते हैं इसलिए लोग साधन संपन्न होने भी कुछ नहीं कर पाते ?”
बुद्ध बोले ‘नहीं’ उन्होंने एक भिक्षुओं को एक प्रेरक कथा सुनाई – “विराट नगर के राजा सुकीर्ति के पास लौहशांग नामक एक हाथी था। राजा ने कई युद्धों में इस पर आरूढ़ होकर विजय प्राप्त की थी। बचपन से ही लौहशांग को इस तरह प्रशिक्षित किया था कि वह युद्ध कला में बड़ा प्रवीण हो गया था। सेना के आगे चलते हुए पर्वताकार लौहशांग जब अपनी प्रचण्ड हुंकार भरता हुआ जब शत्रु सेनाओं में घुसता था तो देखते ही देखते उन्हें रौंद डालता।
धीरे-धीरे समय से साथ जिस तरह जन्म के बाद सभी प्राणियों को युवा और जरावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी क्रम से लौहशांग भी वृद्ध होने लगा, उसकी चमड़ी झूल गई और युवावस्था वाला पराक्रम जाता रहा. अब वह हाथीशाला की शोभा मात्र बनकर रह गया। उपयोगिता और महत्व कम हो जाने के कारण उसकी ओर पहले जैसा ध्यान भी नहीं था। उसे दिए जाने वाले भोजन में कमी कर दी गई। एक बूढ़ा सेवक उसके भोजन पानी की व्यवस्था करता, वह भी कई बार चूक कर जाता और हाथी को भूखा प्यासा ही रहना पड़ता।
बहुत प्यासा होने और कई दिनों से पानी न मिलने के कारण एक बार लौहशांग हाथीशाला से निकल कर पुराने तालाब की ओर चल पड़ा, जहां उसे पहले कभी प्रायः ले जाया जाता था। उसने भरपेट पानी पीकर प्यास बुझाई और गहरे जल में स्नान के लिए चल पड़ा। उस तालाब में कीचड़ बहुत था दुर्भाग्य से वृद्ध हाथी उसमें फंस गया। जितना भी वह निकलने का प्रयास करता उतना ही फंसता जाता और आखिर गर्दन तक कीचड़ में फंस गया।
यह समाचार राजा सुकीर्ति तक पहुंचा, तो वे बड़े दुःखी हुए। हाथी को निकलवाने के कई प्रयास किए गए पर सभी निष्फल हो गए। उसे इस दयनीय दुर्दशा के साथ मृत्यु मुख में जाते देखकर सभी दुखी थे। जब सारे प्रयास असफल हो गये, तब एक चतुर मंत्री युक्ति सुझाई। इसके अनुसार सैनिकों को वहां बुलाया गया। युद्ध की रणभेरियां बजाने का आदेश दिया गया। युद्ध के नगाड़े बजाते हुए सैनिक तलाब की तरफ बढ़ने लगे मानो वह लौहशांग पर आक्रमण करने जा रहे हों।
लौहशांग ने जोर से चिघांड़ लगाई और अपनी ओर आते सैनिकों को शत्रु समझ पूरी ताकत से उनकी तरफ बढ़ा उसने जोर लगाया और तलाब से बाहर निकल गया। वह सैनिकों की तरफ उन्हें कुचलने के लिए दौड़ा बड़ी मुश्किल से उसे काबू किया गया।
यह कथा सुनाकर तथागत ने कहा – “भिक्षुओं! संसार में मनोबल ही प्रथम है। वह जाग उठे तो असहाय और विवश प्राणी भी असंभव होने वाले काम कर दिखाते हैं तथा मनुष्य अप्रत्याशित सफलताएं प्राप्त करते हैं।