फिल्म समीक्षा-पैडमैन

अक्सर प्रश्न उठाया जाता है कि भारतीय सिनेमा में भारत के दर्शन तो कहीं होते ही नहीं है। किन्तु अब समय बदल रहा है। भारत के गाँव-कस्बे से जुड़े सच और समस्याओं के चित्रण के लिए भी अब सिनेमा आगे आ रहा है। इसी क्रम में अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म पैडमैन बनायी गयी है।
भारत में प्रदर्शन के पाँच दिनों में 50 करोड़ से अधिक का कारोबार करने वाली फिल्म जल्दी ही 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो जायेगी।
यह फिल्म तमिलनाडू के सामाजिक कार्यकर्ता अरूणाचलम गुरूगाननथम के जीवन पर आधारित है। जिन्होंने कम लागत के सेनेटरी पैड उपलब्ध करवाए हैं। वे बहुत संघर्ष और अभावों से जूझने के बाद अन्ततः सस्ते सेनेटरी नेपकिन बनाने की कम कीमत वाली मशीन बनाने में कामयाब हुए हैं।
अक्षय कुमार की पिछली फिल्म ‘‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’’ के बाद यह पहली फिल्म है। फिल्म निर्माण ट्विंकल खन्ना का है। इस प्रकार यह अक्षय कुमार की होम प्रोडक्शन फिल्म है। फिल्म की पटकथा और निर्देशन आर बाल्की का है। अक्षय कुमार के अतिरिक्त राधिका आप्टे और सोनम कपूर का मुख्य रोल है।
हसीना पारकर जैसी घटिया फिल्म में मुख्य पात्र का रोल करने वाली सोनम कपूर के लिए सीखने का यह अच्छा अवसर है कि अच्छी पटकथा से ही अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है।
मासिक धर्म padman-poster-akshay-actingको लेकर महिलाओं की शर्म और उन दिनों के जीवन की परिस्थितियों को देखकर नायक समस्या का समाधान खोजने की ठान लेता है।
महिला हाईजीन जैसे वर्जित से विषय पर काम करने वाले व्यक्ति के प्रयासों में आने वाली बाधाओं का चित्रण फिल्म में किया गया है। छोटे शहरों और साधन विहीन व्यक्ति के संघर्ष का वास्तविक चित्रण है। नायक का यह जानना झटके से कम नहीं होता कि, पैड रूई का नहीं बल्कि सेल्यूलोज फाईबर का बना होता है।
फिल्म में अक्षय कुमार का संयुक्त राष्ट्र में भाषण का सीक्वेन्स बहुत मार्मिक और प्रभावशाली बन पड़ा है। भारत की विशाल जनसंख्या बोझ नहीं बल्कि शक्ति है, जिसका दोहन किया जाना चाहिए। व्यापार और लाभ के लिये ही नहीं, अपितु मनुष्य हित के लिए भी काम किये जाने चाहिये। नायक अंग्रेजी में कहता है, ‘‘माय नेम इज लक्ष्मीकान्ट, बट नाऊ इट इज लक्ष्मी कैन’’। यही फिल्म का संदेश है।
अन्त में नायक की इच्छा शक्ति और प्रयासों को सनक और पागलपन मानने वाले कस्बे और परिवार के लोग, उसके सफल होकर लौटने पर उसे सिर आँखों पर उठा लेते हैं। इस प्रकार यह एक फिल्म ही नहीं बल्कि मुहिम भी है। भारत की महिलाओं को जागरूक करने के लिए इस फिल्म को गांव-देहात की महिलाओं को दिखाया जाना चाहिए। इस फिल्म को देखकर गुजरात के दुग्ध आन्दोलन पर बनी फिल्म ‘‘मन्थन’’ याद आती है।
फिल्म में कुछ संवाद बहुत रूचिकर हैं जैसे, ‘‘बाप बनने का मजा तब आता है, जब बच्चे को माँ की तरह पालें और मर्द होने का मजा तब आता है, जब औरत की परिस्थिति को समझें।’’
खान बन्धुओं की फिल्मों को तुरन्त स्वीकार करने वाले देश पाकिस्तान ने पैडमैन फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी है। महिलाओं की समस्याओं और स्वास्थ्य पर बनी फिल्म को अनुमति नहीं देने के पीछे अन्य कोई नहीं अपितु राजनैतिक कारण ही जान पड़ते हैं।
महंगे मल्टीप्लेक्स के इस युग में फिल्म देखना मंहगा पड़ता है, अब तो पैडमैन की तरह ही सिनेमामैन का इन्तजार है, जो अच्छी-कम बजट की फिल्में भी सस्ते में दिखा सके।

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