अंतिम श्वास तक ‘अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता’ की चिंता

डॉक्टर हेडगेवारसंघ और स्वतंत्रता संग्राम – 13

भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए चल रहे सभी आंदोलनों/संघर्षों पर डॉक्टर हेडगेवार की दृष्टि टिकी हुई थी, यही वजह रही कि डॉक्टर हेडगेवार ने अस्वस्थ रहते हुए भी अपनी पूरी ताकत संघ की शाखाओं में लाखों की संख्या में स्वयंसेवकों अर्थात स्वतंत्रता सेनानियों के निर्माण कार्य में झोंक दी। भविष्य में होने वाले द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद की होने वाली पतली हालत को उन्होंने भांप लिया था। द्वितीय महायुद्ध के समय सतह पर उभरने वाली संभावित परिस्थितियों को डॉक्टर हेडगेवार एक ईश्वरी वरदान के रूप में देख रहे थे। उनके अनुसार इसी समय भारत में ब्रिटिश राज्य पर एक जोरदार आघात करके अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

न केवल डॉक्टर हेडगेवार अपितु अनुशीलन समिति के त्रयलोक्यनाथ चक्रवर्ती, अभिनव भारत के संस्थापक वीर सावरकर, भावी आजाद हिंद फौज के सेनापति सुभाष चंद्र बोस, हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुकर्जी जैसे राष्ट्रवादी एवं दूरदर्शी राष्ट्र नेताओं को भी यही प्रतीत होता था कि अंग्रेजों की लाचारी का फायदा उठाकर देश को स्वतंत्र करवाने का यह एक स्वर्ण अवसर है। तेजी से बदल रही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का गहराई से अध्ययन करते हुए डॉक्टर हेडगेवार का ध्यान इस ओर भी केन्द्रित था कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का स्वरूप क्या हो। महायुद्ध की ओर तेजी से बढ़ रहे विश्व को देखकर वे कहते थे ‘‘इस अवसर को हाथ से निकाल देना मूर्खता ही होगी। भविष्यदृष्टा डॉक्टर जी के दूरगामी चिंतन के मुताबिक यदि इस समय अंग्रेजो पर देशव्यापि तगड़ा प्रहार न किया गया तो वे बहुत ताकतवर हो जाएंगे और भारत को दो उपनिवेशों में बांटकर ही यहां से जाएंगे। इसलिए देश के विभाजन को रोकने के लिए भी अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की समयोचित आवश्यकता है। एक बार देशभर में क्रांति की मशाल जल उठने के बाद सेना में भर्ती हमारे जवान अपने हथियार उठाकर अंग्रेजों के विरुद्ध इस संभावित क्रांति में शामिल हो जाएंगे’’।

इतिहास साक्षी है कि कालांतर में डॉक्टर हेडगेवार की भविष्यवाणी और चेतावनी दोनों ही सत्य साबित हुईं। भारतीय सेना के तीनों अंगों में न्यूनाधिक विद्रोह भी हुआ, सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन करके ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर सैनिक प्रहार भी कर दिया और अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में पूरे देश की जनता ने एक साथ भागीदारी भी की। दूसरी ओर डॉक्टर जी की यह चेतावनी भी सत्य निकली कि यदि पूरे भारत में एक प्रचंड हिन्दू शक्ति तैयार नहीं हुई तो मुस्लिम लीग, कांग्रेस और अंग्रेजों की मिलीभगत की वजह से सदियों पुराने राष्ट्र का विभाजन भी हो जाएगा।

उधर वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस और त्रयलोक्यनाथ चक्रवर्ती जैसे स्वतंत्रता सेनानी भी डॉक्टर जी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध पूरे देश में एक न थमने वाली सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने में व्यस्त थे। यहां यह जानना भी जरूरी है कि डॉक्टर जी और सुभाष चंद्र बोस के विचार लगभग एक जैसे ही थे। यह दोनों महापुरुष उपनिवेश दर्जे के सख्त विरोधी थे। अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता से कम पर कोई भी तैयार नहीं था। अपने इस ध्येय की प्राप्ति के लिए हिंसा अथवा अहिंसा किसी भी समयोचित तथा यथासम्भव मार्ग को वे तुरंत अख्तियार करने के पक्ष में थे। दोनों ही नेता भारत के विभाजन के सख्त खिलाफ थे। अतः डॉक्टर हेडगेवार तथा सुभाष दोनों ही विश्वयुद्ध के समय पर अंग्रेजों को उखाड़ फैंकने के अवसर की प्रतीक्षा में थे। आखिर वह अवसर सामने दिखाई देने लगा।

डॉक्टर जी ने तो प्रथम विश्वयुद्ध के समय ही द्वितीय विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी कर दी थी। प्रथम विश्वयुद्ध में भी कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्य का साथ देकर एक भारी भूल कर डाली थी। उस समय डॉक्टर जी द्वारा निर्देशित ‘महाविप्लव’ भी इसी कारण से विफल हुआ था। अतः इस बार डॉक्टर जी सोच समझकर कदम रखने के पक्षधर थे। उधर जनवरी 1938 में सुभाष चंद्र बोस को भी इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के प्रवास के समय यूरोप के राजनीतिक माहौल में भावी युद्ध का आभास हो गया था। वे द्विमुखी रणनीति को अख्तियार करने के पक्ष में थे। एक ओर तो देश के भीतर एक उग्र आंदोलन प्रारम्भ हो और दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ब्रिटेन के शत्रु राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त कर लिया जाए। डॉक्टर हेडगेवार तथा वीर सावरकर भी इस रणनीति से सहमत थे। परन्तु इस विषय को लेकर गांधीवादी नेतृत्व और सुभाष चंद्र के बीच खाई गहरी हो गई। गांधी जी केवल अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहते थे। परन्तु सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि इसी समय प्रत्येक मार्ग (हिंसा अथवा अहिंसा) पर चलकर अंग्रेजों को एक संयुक्त प्रतिकार से ही परास्त किया जा सकता है।

29 अप्रैल 1939 को सुभाष चंद्र बोस को गांधीवादी नेताओं ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। अतः सुभाष चंद्र बोस ने 3 मई 1939 को कांग्रेस के भीतर अपने सहयोगियों की सहायता से ‘फारवर्ड ब्लॉक’ एक स्वतंत्र संगठन की स्थापना कर दी और कांग्रेस तथा कांग्रेस के बाहर सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को एकत्र करने की मुहिम छेड़ दी। इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह मुम्बई गए और हिन्दू महासभा के नेता तथा सशस्त्र क्रांति के अग्रणी विनायक दामोदर सावरकर से भेंट करके आगे की रणनीति पर विचार किया। सारी योजना बनाने के बाद उन्होंने दो प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता डॉक्टर सांझागिरी और बालाजी हुद्दार को डॉक्टर हेडगेवार से सलाह मशवरा करने नागपुर भेजा। इन दोनों नेताओं ने डॉक्टर जी से कहा कि ‘‘सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों का लाभ उठाकर ब्रिटिश राज्य के खिलाफ विद्रोह की तैयारी करना चाहते हैं’। डॉक्टर जी ने सहमति जताते हुए कहा ‘‘इस सम्भावित क्रांति के लिए देशव्यापी संगठित प्रयास प्रारम्भ कर देना चाहिए’’।

जिस अवसर का इंतजार डॉक्टर जी गत 20 वर्षों से करते आ रहे थे, वह तो सम्मुख आकर खड़ा हो गया। परन्तु शरीर साथ नहीं दे रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य जिस तेज गति के साथ बढ़ रहा था, उससे भी कहीं ज्यादा गति के साथ डॉक्टर जी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। मानो बढ़ते कार्य और गिरते स्वास्थ्य में प्रतिस्पर्धा चल रही हो। 31 जनवरी 1940 को संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के आग्रह पर डॉक्टर जी बिहार प्रांत के राजगीर में उपचार हेतु गए। परन्तु वहां भी वे विचारों के झंझावत से निकल नहीं सके। एक दिन भोजन के पश्चात जब उनकी आंख लगी तो वह सोते-सोते ही बड़बड़ा उठे ‘‘यह देखो 1941 भी आ रहा है, आज भी हम परतंत्र हैं, परन्तु हम स्वतंत्र होकर रहेंगे’’ नींद में भी वे भारत को स्वतंत्र करने के विचारों में ही उलझे रहते थे। डॉक्टर साहब के अनुसार 1942 का वर्ष ही स्वतंत्रता प्राप्ति का वर्ष सिद्ध होने वाला है। उनकी यह भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई। 1942 के सितम्बर मास में आजाद हिंद फौज का गठन हो गया। गांधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के देशव्यापि आंदोलन का बिगुल बजा दिया। सेना में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का बीजारोपण कर दिया और संघ के स्वयंसेवक पूरी शक्ति के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। इन स्वयंसेवकों ने अपनी संघ पहचान को सामने न लाकर स्वतंत्रता आंदोलन में सभी भारतीयों की एकजुटता का परिचय दिया। इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के अनुसार, यूरोप में युद्ध का पासा मित्र राष्ट्रों के प्रतिकूल जा रहा था, 13 जून 1940 को हिटलर ने फ्रांस को पूरी तरह रौंद डाला, 16 जून को इटली का अधिनायक मुसोलिनी युद्ध में कूद पड़ा, ब्रिटिश फौजें बड़ी कठिनता से फ्रांस से अपनी जान बचाकर स्वदेश भागीं। सुभाष बाबू और डॉक्टर जी दोनों ही इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाने के लिए व्याकुल हो गए। सुभाष बाबू को गांधीवादी नेतृत्व और ब्रिटिश सरकार दोनों से जूझना पड़ रहा था। डॉक्टर हेडगेवार संघ कार्य की वृद्धि और सामने खड़ी मृत्यु के बीच गहरी चिंता में थे।

संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का आत्मनियंत्रण, मनोबल तथा संयम तो बहुत ही आश्चर्यजनक था। देहावसान से कुछ ही दिन पूर्व डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुकर्जी डॉक्टर जी से मिलने नागपुर आए थे। उन्हीं दिनों नागपुर में एक संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था, उसे देखने पहुंचे डॉक्टर मुकर्जी को जानकारी मिली कि डॉक्टर हेडगेवार बहुत अस्वस्थ चल रहे हैं। वह उनका हालचाल पूछने तथा बंगाल में हिन्दुओं पर हो रहे मुस्लिम हमलों पर चर्चा करने के लिए डॉक्टर जी के निवास पर पहुंचे। शिथिलता की हालत में भी उठकर डॉक्टर जी ने उनका गर्मजोशी की साथ स्वागत किया। इस समय डॉक्टर जी को 104 डिग्री बुखार था फिर भी उन्होंने लगभग आधे घंटे तक सभी विषयों पर विस्तृत बातचीत की, इसमें सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर द्वारा सशस्त्र क्रांति की योजना पर भी डॉक्टर जी ने अपनी सहमति जताई।

इसी तरह दिनांक 19 जून 1940 को जब सुभाष चंद्र बोस उनसे भावी क्रांति के सम्बन्ध में वार्ता करने के लिए आए, तब उसी समय डॉक्टर जी को हल्की नींद आ गई। इस झपकी को देखकर सुभाष बाबू ने उन्हें जगाना ठीक नहीं समझा, वे मातृ इतना कहकर चले गए ‘‘अभी इनके आराम में खलल डालना ठीक नहीं होगा, इन्हें सोने दीजिए, मैं जल्दी फिर लौटकर फिर किसी दिन आकर मिल लूंगा’, परन्तु जब डॉक्टर जी को सुभाष बाबू के आने की जानकारी मिली तो वे नाराज हुए और कहा ‘‘मुझे जगाया क्यों नहीं, इतना बड़ा राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी मुझसे मिलने आया और उसे यूं ही जाना पड़ा, यह ठीक नहीं हुआ, दौड़कर जाओ और सुभाष बाबू को वापस लाओ’’, परन्तु तब तक तो वे बहुत दूर निकल चुके थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हो जाने के पश्चात डॉक्टर जी की अंर्तव्यथा को दर्शाते हुए संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह ह.ब. कुलकर्णी से अपना प्रत्यक्ष अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किया था ‘‘एक दिन डॉक्टर जी ने मुझे अपने घर पर बुलाया, सभी के सो जाने के पश्चात डॉक्टर जी ने मुझसे कहा, ‘मुझे भय है कि कहीं इस महायुद्ध का स्वर्णावसर भी हम हाथ से न खो दें, इस युद्ध की पूर्व से ही कल्पना थी परन्तु इस खंडप्रायः देश के प्रत्येक ग्राम में एक-एक हेडगेवार का निर्माण होता तो मैं इसी जन्म में मेरे हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र देख पाता, परन्तु ईश्वर की इच्छा कुछ और ही प्रतीत होती है’ यह कहकर डॉक्टर जी का गला भर आया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। उनके अंतिम श्वासों में भी यही शब्द निकले ‘अखंड भारत’ और ‘पूर्ण स्वतंत्रता’।

बाल्यकाल से लेकर जीवन की अंतिम श्वास तक अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जी जान से जूझने वाले स्वतंत्रता संग्राम के सेनापति डॉक्टर हेडगेवार की एकमात्र अंतिम इच्छा थी मातृभूमि को स्वतंत्र देखना, परन्तु उनकी यह पीड़ायुक्त प्रार्थना न शरीर ने मानी और न ही भगवान ने स्वीकार की। एक मराठी कवि ने मराठी भाषा में इस पीड़ा को व्यक्त किया था, जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है – ‘‘इस समय तुम लौट जाओ हे मृत्युदेव, मुझे अपनी आंखों से देख लेने दो मेरी मातृभूमि की स्वतंत्रता, फिर मैं अपने आप प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारे पास भागा चला आऊंगा’’।

इन्हीं दिनों सुभाष चंद्र बोस ने 20 जून 1944 को डॉक्टर जी के साथ भेंट करने का एक और प्रयास किया था, परन्तु दोनों का मिलन सम्भव नहीं हो सका। अगले दिन21 जून 1944 को डॉक्टर हेडगेवार ने अपना शरीर छोड़ दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार वे मृत्यु के पूर्व फूट-फूटकर रोए थे। यहां यह महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि अपनी सारी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक इच्छाओं को पूर्णतया भस्म कर देने वाला डॉक्टर जी जैसा लौहपुरुष जोर-जोर से क्यों रोया? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि उनकी चिरप्रतीक्षित अभिलाषा परमेश्वर ने उनके जीवनकाल में पूरी नहीं की। यही व्यथा उनकी आंखों से आंसुओं की बरसात बनकर बह रही थी।

अपना शरीर और संसार छोड़ने से पहले ही डॉक्टर जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भावी पथ प्रदर्शक अर्थात सरसंघचालक नियुक्त कर दिया। देह त्यागने से पूर्व अंतिम समय में वे पूरी तरह से आश्वस्त थे कि जिस व्यक्ति के हाथों में उन्होंने संगठन की पतवार सौंपी है वह, संगठन का संचालन बहुत ही कुशलतापूर्वक करेगा। डॉक्टर जी ने अपना उत्तराधिकारी श्री माधवराव सदाशिव गोलवलकर को नियुक्त कर दिया। अपने माता-पिता की एकमात्र संतान माधवराव बाल्यकाल से ही असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने प्राणीशास्त्र में एम.एस.सी की डिग्री प्रथम श्रेणी में पास की और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। इनके गुरुतुल्य व्यवहार से प्रभावित होकर वहां के छात्र इन्हें गुरुजी कहकर पुकारने लग गए। तभी से वे गुरुजी के नाम से पहचाने जाने लगे।

स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानंद द्वारा दीक्षित शिष्य, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणीशास्त्र विभाग में पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यात्म पुरुष श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने संगठन के सूत्र अपने सशक्त हाथों में थामते ही संघ शाखाओं के विस्तार, स्वयंसेवकों के निर्माण एवं पूर्णकालिक प्रचारकों की तैयारी में अपनी सारी शक्ति झोंक दी। वीर सावरकर, श्यामाप्रसाद मुकर्जी एवं डॉक्टर अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी नेताओं से सजीव संपर्क बना लिया। 1942 के ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ में संघ की भूमिका को स्पष्ट करते हुए स्वयंसेवकों को स्वातंत्र्य संग्राम में बढ़चढ़ कर भाग लेने की प्रेरणा दी।

…………………..शेष कल।

नरेन्द्र सहगल

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

5 × 3 =