अर्बन नक्सलियों में अटकी माओवादियों की जान

अगस्त 2008 में बिहार में भयानक बाढ़ आई थी. बताया गया था कि नेपाल का कुसहा बांध टूटने की वजह से यह बाढ़ आई है. यही वह साल था, जब पहली बार मेरा परिचय ‘अर्बन नक्सल’ यानि शहरी नक्सलवाद शब्द से हुआ था. बिहार में बाढ़ का पानी उतर चुका था. एक शाम ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र का फोन आया. टिकट भिजवा दिया है, पटना आना है. उनके आदेश के बाद पटना पहुंच गया. देश के एक दर्जन पत्रकारों के साथ बिहार की बाढ़ की त्रासदी को समझने के लिए पांच दिनों की यह एक यात्रा थी. इस फैक्ट फाइंडिंग टीम में कोलकाता से कॉमरेड संकर रॉय, दिल्ली से राकेश भट्ट और हिमांशु उपाध्याय, पुणे से अभिजीत घोडपड़े, मुम्बई से नितिन चन्द्रा जैसे कई फिल्मकार और पत्रकार शामिल हुए थे. इसी यात्रा में नेपाल की सीमा में प्रवेश करते ही एक व्यक्ति हमारी गाड़ी में आ चढ़ा. वह हमारे बीच नेपाल का प्रतिनिधि और पूरी यात्रा में मार्गदर्शक बना. यात्रा के दौरान उसने अपना परिचय खुद ही दिया कि वह माओवादी है. उन दिनों नेपाल के प्रधानमंत्री माओवादी नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड हुआ करते थे.

उससे बातचीत शुरू हुई तो लंबी चली. इस दौरान माओवाद और माओवादियों के कामकाज को समझने का अवसर भी मिला. माओवादी नेता ने बताया कि उनके यहां तीन स्तरीय व्यवस्था है. माओवादी सेना के लोग जंगल मे रहते हैं. वहां अभ्यास करते हैं और हमले की रणनीति बनाते हैं. उनके लिए धन लाना और तैयारी के संबंध में धन मुहैया कराने वालों तक जानकारी पहुंचाने का काम एक छोटा समूह करता है. जिसका जंगल और महानगर के बीच जाना-आना लगा रहता है. वह जंगल की खबर शहर तक और शहर की खबर जंगल तक पहुंचाता है.

उसने यह बात बड़बोलेपन में ही कही थी कि – ”जल्दी ही दिल्ली के लाल किले पर जब हमारा झंडा लहराएगा, उसके बाद तुम देखकर चौंक जाओगे कि कौन-कौन और कैसे-कैसे लोग हमारे साथ हैं?”

उस माओवादी की बात अर्बन नक्सलियों के नाम पर देश में हुई गिरफ्तारियों के बाद बार-बार याद आती है, ”चौंक पड़ोगे.” वास्तव में जिस तरह के नाम सामने आ रहे हैं, वह चौंकाने वाले ही हैं. और सच कहूं तो नहीं भी हैं. अपने आस-पास घट रही घटनाओं को लेकर जो चौकस हैं, वह बिल्कुल इन नामों को सुनकर नहीं चौंकेंगे क्योंकि जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई है, नक्सलियों से संबंध का उनका पुराना इतिहास रहा है.

मेरे ही सवाल के जवाब में एक और बात उस माओवादी नेता ने बताई थी, जिसका उल्लेख यहां महत्वपूर्ण जान पड़ता है. सवाल था, ”चीन आप लोगों को हथियार से मदद क्यों कर रहा है? क्या आप लोग चीन के उद्देश्य की पूर्ति भारत में कर रहे हैं?”

उस माओवादी ने स्वीकार किया कि वे चीन का हथियार इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उसका कहना था कि हथियार की खरीद वह सरकार से नहीं करता. उनके पास चीन का जो हथियार है, वह अवैध है और उस हथियार को वे पैसे देकर खरीदते हैं.

मेरा अगला सवाल था – ”हथियार खरीदने के लिए इतना पैसा कहां से आता है?”

उसने मुस्कुराते हुए, संक्षिप्त सा जवाब दिया – ”दिल्ली से.”

यह मेरा पहला परिचय माओवाद के महानगरीय रिश्ते से था. इसका मतलब स्पष्ट था कि कुछ ऐसे लोग दिल्ली में मौजूद थे जो राजधानी में बैठकर ना सिर्फ नेपाल के माओवादियों को धन मुहैया करा रहे थे, बल्कि वे नेपाल के जंगलों में चल रही माओवादी गतिविधियों में दखल भी रखते थे.

इस बात को अधिक बल मिला बस्तर, छत्तीसगढ़ के उस कांग्रेसी नेता से मिलकर जिसने नक्सलियों को जड़ से खत्म करने की योजना बना ली थी. वह थे महेन्द्र कर्मा.

सलवा जुडूम सफल भी हो रहा था, लेकिन नक्सलियों के अर्बन नेटवर्क की सक्रियता की वजह से ना सलवा जुडूम और ना ही महेन्द्र कर्मा अपना उद्देश्य हासिल कर पाए. सलवा जुडूम पर न्यायालय ने रोक लगा दी और महेन्द्र कर्मा को नक्सलियों ने गोलियों से छलनी कर दिया. महेन्द्र कर्मा ने बताया था, ”यदि आंदोलन में इतनी खामियां थीं तो हम जो शीर्ष नेतृत्व में थे, एक भी शिकायत, एक भी एफआईआर मेरे खिलाफ क्यों नहीं आई? हत्या, बलात्कार, लूट का आरोप सलवा जूडूम पर लगता रहा, हम तो आन्दोलन की अगली पंक्ति में थे, मुझ पर यह आरोप क्यों नहीं लगे?”

नक्सलियों का अर्बन नेटवर्क सलवा जुडूम के समय अति सक्रिय हो गया था. यदि मनमोहन सिंह की सरकार उस समय अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय दे देती तो आज अर्बन नेटवर्क को लेकर पूरे देश में यह विमर्श ना खड़ा हुआ होता.

दिवंगत महेन्द्र कर्मा ने बताया था – ”नक्सलियों की ताकत बंदूक में नहीं है उनकी नेटवर्किंग में है. ये ज़माना नेटवर्किंग का है. जिस नेता की नेटवर्किंग जितनी अच्छी, वह उतना बड़ा नेता है. सफल नेता है. सलवा जुडूम के माध्यम से उनका नेटवर्क कमजोर हो रहा था. उनके नेटवर्क का आदमी उन्हें छोड़कर मुख्य धारा में आ रहा था. हम उनका नेटवर्क कमजोर करके ही उन्हें मार सकते थे. उन्होंने उस दौरान अपवादों को मीडिया में इस तरह उठाया जैसे पूरे बस्तर में यही हो रहा है. और वे सफल हुए.”

नक्सलियों को लेकर जैसे ही सरकार कोई एक्शन लेती है, दिल्ली में एक बड़ा वर्ग है जो सक्रिय हो जाता है. कॉन्स्टीट्यूशन क्लब से लेकर जन्तर मंतर पर चहल-पहल बढ़ जाती है. कई चेहरे तो ऐसे हैं, जो नक्सलियों के प्रति अपनी सहानुभूति को छुपाते तक नहीं. कई बार सार्वजनिक मंचों पर भी जाहिर कर देते हैं.

नक्सलियों से जुड़ी खबरों को लेकर यह बात अरूंधति राय, राहुल पंडिता, से लेकर आलोक पुतुल तक मानेंगे कि बस्तर की खबर आम खबरों की तरह बस्तर से रायपुर तक का सफर तय नहीं करती. बस्तर की खबर पहले किसी अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय अखबार-चैनल की खबर बनती है. उसके बाद रायपुर में उसका फॉलोअप छपता है. फिर सबसे अंत में जगदलपुर संस्करण में वह खबर पढ़ने को मिलती है.

क्या यह संभव है – बिना उस तार के जो महानगर में बैठे नक्सली को जंगल में बैठे नक्सली से जोड़ता हो. बात सिर्फ तार की नहीं है, हिस्सेदारी की भी है. जिस पर विस्तार से बात करते हैं बस्तर के पूर्व आईजी एसआरपी कल्लूरी. बकौल कल्लूरी – ”बस्तर से नक्सली सालाना 1100 करोड़ रूपए की वसूली करते हैं. यह पैसा उन माओवादियों को नहीं मिलता जो हथियार लेकर जंगल में आंधी-पानी और मलेरिया से जूझ रहा है. यह पैसा पहुंचता है नक्सलियों के अर्बन नेटवर्क के पास. ये एक छोटा सा वर्ग है जो गैर सरकारी संगठन के नाम पर, मानवाधिकार के नाम पर, अध्येता या शोधार्थी के नाम पर इस दावे के साथ बस्तर में मौजूद होता है कि हम वहां काम कर रहे हैं. इस शहरी नेटवर्क का काम वहां नक्सलियों के मामले पर न्यायालय में लड़ना. सुरक्षा बलों पर बलात्कार का मुकदमा करवाना भर है. स्थानीय लोगों के जीवन में उनकी मौजूदगी से कोई परिवर्तन आया हो, ऐसा प्रयास मैने बस्तर के अपने पूरे कॅरियर में इनकी तरफ से नहीं देखा.”

कल्लूरी यह भी कहते हैं – ”अर्बन नक्सली संख्या में बेहद कम हैं लेकिन शक्तिशाली हैं. वे अपने झूठ के दम पर पूरी दुनिया में बस्तर की एक छवि गढ़ने में कामयाब हुए हैं. इसलिए मैं बस्तर को इन अर्बन नक्सलियों की नजर से देखने की जगह बस्तर आकर देखने का ही सुझाव सभी को देता हूं.”

बहरहाल, नक्सली कहते हैं कि वे आदिवासी के हक के लिए लड़ते हैं और बस्तर में जिन लोगों की हत्या नक्सलियों ने की, उनमें 99 फीसदी आदिवासी ही थे. बस्तर के नक्सलियों के संबंध में यह जानना आवश्यक है कि वहां के नक्सली वास्तव में नक्सली नहीं हैं. वह पीड़ित हैं. उसका शोषण हैदराबाद और महाराष्ट्र के नक्सली कर रहे हैं. बस्तर के नक्सली जो जंगल में हथियार लेकर खड़े हैं वे मजदूरी करने के लिए और सीआरपीएफ की गोली खाने के लिए रखे गए हैं. उनको बस्तर की 1100 करोड़ की वसूली में कोई हिस्सेदारी नहीं मिलती क्योंकि उस पैसे का बड़ा हिस्सा नक्सलियों के शहरी नेटवर्क के पास पहुंच जाता है.

आशीष कुमार ‘अंशु’

 साभार – पाञ्चजन्य

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