जब कभी भी महाभारत के युद्ध का जिक्र होता है तो हमारे मन मष्तिष्क में पांडवों, कौरवों तथा भगवान श्री कृष्ण का ख्याल उभर आता है या फिर अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, दुर्योधन, कर्ण, भीष्म आदि योद्धाओं का नाम ध्यान में आता है।
बाबा खाटू श्याम मंदिर का इतिहास
परन्तु महाभारत में कुछ ऐसे योद्धा भी थे जो यदि युद्ध में भाग लेते तो युद्ध का नक्शा कुछ और ही होता, इनमें से एक योद्धा का नाम था बर्बरीक। ये एक ऐसे योद्धा थे जिनके पास एक तीर से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य था।
बर्बरीक महाबली भीम के पौत्र तथा उनके पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या अहिलावती के पुत्र थे। परन्तु कुछ जगह इनकी माता का नाम मुर दैत्य पुत्री कामकंटकटा भी बताया जाता है। वास्तविक रूप से ये एक यक्ष थे, जिनका पुनर्जन्म एक इंसान के रूप में हुआ था। जन्म से ही इनके केश बर्बराकार घुंघराले होने की वजह से इनका नाम बर्बरीक पड़ गया। ये बहुत वीर तथा महान योद्धा थे तथा बचपन से ही इन्होंने अपनी माता से यही ज्ञान प्राप्त किया था कि हमेशा निर्बल तथा पराजित पक्ष की सहायता करना चाहिए।
भगवान शिव की कठोर तपस्या करने पर उन्होंने प्रसन्न होकर इन्हें तीन अभेद्य बाण दिए जिस वजह से इन्हें ‘तीन बाणधारी’ नाम से भी जाना जाता है। अग्निदेव ने भी प्रसन्न होकर इन्हें एक ऐसा धनुष प्रदान किया जिसकी वजह से ये तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर सकते थे।
जब महाभारत के युद्ध के सम्बन्ध में बर्बरीक को पता चला तो उनके मन में भी इस युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे इस कार्य हेतु अपनी माता से आशीर्वाद लेने गए तो उनकी माता ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि वह युद्ध में निर्बल पक्ष की तरफ से युद्ध करे। बर्बरीक ने अपनी माता को उनकी आज्ञा का पालन करने का वचन दिया तथा नीले घोड़े पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि के लिए प्रस्थान किया।
रणभूमि में जाकर बर्बरीक दोनों खेमों के बीच स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि वो उस पक्ष की तरफ से युद्ध करेंगे जो पक्ष पराजित हो रहा होगा। जब भगवान कृष्ण को यह पता चला तो वे अर्जुन के साथ उनकी वीरता को परखने के लिए उनके पास गए। उन्होंने बर्बरीक को कहा कि वह मात्र तीन बाणों से इन महाबलियों के साथ युद्ध कैसे लड़ पाएगा। तब बर्बरीक ने उनसे कहा कि उसके बाण अजेय है तथा ये पूरी शत्रु सेना का अंत कर अपने स्थान पर पुनः लौट आते हैं।
कृष्ण ने बर्बरीक की वीरता को परखने के लिए चुनौती देते हुए कहा कि अगर वो इस पीपल के वृक्ष के सभी पत्तों को एक ही बाण से छेद दे तो वे उसकी वीरता को स्वीकार कर लेंगे। बर्बरीक ने इस चुनौती को स्वीकार कर ईश्वर का स्मरण करते हुए वृक्ष के पत्तों की ओर तीर चला दिया। जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर गया जिसे श्रीकृष्ण ने अपने पैर के नीचे छुपा लिया। परन्तु तीर सभी पत्तों को छेदने के पश्चात श्री कृष्ण के पैरों की तरफ आकर रुक गया। बर्बरीक ने कहा कि आपके पैर के नीचे पत्ता दबा हुआ है अतः आप अपना पैर उस पर से हटा लीजिए वरना ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा।
बर्बरीक की इस चमत्कारिक वीरता से श्रीकृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए परन्तु फिर चिंतित हो गए। भगवान श्री कृष्ण तो सर्वज्ञाता थे तथा वे यह भी जानते थे कि युद्ध में विजय पाण्डवों की ही होगी और माता को दिए हुए वचन के अनुसार अगर बर्बरीक ने हारते हुए कौरवों की तरफ से युद्ध किया तो अधर्म की विजय हो जाएगी अतः उन्होंने बर्बरीक को युद्ध से हटाने का निश्चय किया।
बर्बरीक महान योद्धा होने के साथ-साथ उच्च कोटि के दानवीर भी थे। वे अपने द्वार से याचक को खाली हाथ नहीं जाने देते थे। भगवान कृष्ण को यह बात पता थी अतः अगले दिन उन्होंने ब्राह्मण का भेष धरकर बर्बरीक के शिविर में पहुँचकर उनसे दान देने का वचन माँगा। बर्बरीक ने जब वचन दिया तब श्रीकृष्ण ने उनसे उनका शीश दान स्वरुप माँग लिया। बर्बरीक समझ गए कि ऐसा दान माँगने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। तब उन्होंने ब्राह्मण से उनका वास्तविक परिचय पूछा जिस पर श्रीकृष्ण ने अपना वास्तविक परिचय दिया।
सच जानने के पश्चात भी बर्बरीक ने अपना सिर दान में देना स्वीकार कर लिया परन्तु उन्होंने सम्पूर्ण महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा जताई जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार कर लिया। फाल्गुन माह की द्वादशी को बर्बरीक ने अपना शीश दान कर दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप एक ऊँची पहाड़ी पर सुशोभित किया गया जहाँ से महाभारत का संपूर्ण युद्ध देखा जा सकता था।
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में घमंड स्वरुप यह विवाद होने लगा कि विजय में किसका योगदान अधिक है तब श्री कृष्ण ने इसका निर्णय बर्बरीक पर यह कहते हुए छोड़ा कि इन्होंने सम्पूर्ण युद्ध को देखा है अतः इसका निर्णय बर्बरीक ही करेंगे।
इस बात के जवाब में बर्बरीक ने कहा कि इस युद्ध में सबसे बड़ी भूमिका श्री कृष्ण की ही रही है। उन्होंने सम्पूर्ण युद्ध में सुदर्शन चक्र को ही घूमते देखा है तथा हर तरफ श्रीकृष्ण ही युद्ध कर रहे थे और वे ही सेना का संहार कर रहे थे।
बर्बरीक के बलिदान से भगवान कृष्ण ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वो कलियुग में श्याम के नाम से पहचाने जाएँगे तथा यह नाम सब तरफ से हारे हुए लोगों का एकमात्र सहारा होगा। जनश्रुतियों के मुताबिक बर्बरीक का शीश सीकर जिले के खाटू गाँव में दफनाया गया था। कहते हैं कि एक बार उस स्थान पर एक गाय के स्तनों से स्वतः ही दूध की धारा बहने लग गई तथा बाद में जब उस स्थान की खुदाई करवाई गई तो वह शीश प्रकट हुआ।
तत्पश्चात उस स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण करवाया गया और उस शीश को कार्तिक माह की एकादशी को मन्दिर में सुशोभित किया गया। तब से प्रतिवर्ष इस दिन को ‘बाबा श्याम’ के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। आज इन्हें बाबा श्याम या फिर खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है तथा खाटू नगरी को खाटू धाम के रूप में माना जाता है।
यहॉं कार्तिक मास की एकादशी को बाबा श्याम का जन्मोत्सव मनाया जाता है, जिसमें फूलों से मंदिर की सजावट कर अनुपम झांकियां सजाई जाती हैं और भजनों की प्रस्तुतियाँ दी जाती हैं।
फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की दौज तिथि को बाबा श्याम की रथ यात्रा निकाली जाती है जिसमें बाबा की आलौकिक झांकी सजाकर नगर-भ्रमण करवाया जाता है। जगह-जगह पुष्प वर्षा से रथ यात्रा का स्वागत होता है। विशाल लक्खी मेले का आयोजन होता है जिसमें देशभर के भक्तगण पदयात्रा लेकर निशान चढाने आते हैं।
श्रावण मास की ग्यारस को त्रिवेणी धाम से बाबा की निशान पदयात्रा निकाली जाती है। इसके अलावा हर माह की ग्यारस तिथि को भजन संध्या होती है। इन प्रमुख आयोजनों के अलावा बाकी दिनों में भी भक्तगण बाबा दर्शन के लिए आते रहते हैं।