हिन्दू संस्कृति : व्यष्टि से परमेष्ठी की अविरल यात्रा

अपने देश को छोड़कर शेष दुनिया में समाज जीवन को संचालित करने का आधार कानून है, जबकि हमारे यहां धर्म संचालित समाज जीवन है. सृष्टि संचालन के नियमों को समझने में असफल पश्चिम ने समाज व्यवस्था के लिए कानून का सहारा लिया, जो कृत्रिम व्यवस्था है. रवींद्र नाथ ठाकुर कहते थे कि अपने घर में प्रकाश करने के लिए यदि दीपक जलाना हो तो उसके लिए अनेक आयोजन करने होंगे. सरसों या अन्य तिलहन उगानी होगी, तेल निकालना होगा. तब उससे जो प्रकाश मिलेगा, वह सीमित एवं अल्पजीवी होगा. पश्चिम की कानून आधारित समाज व्यवस्था भी इतनी ही जटिल, अल्पजीवी एवं महंगी है. इसके विपरीत सूर्य का प्रकाश पाने के लिए हमें केवल आंखें खोलकर मात्र घर के दरवाजे खोलने हैं. रवींद्र नाथ ठाकुर कहते हैं कि भारत का धर्म प्रकाश के समान सहज-सरल और सर्वव्याप्त है.

धर्म यानी कर्तव्य. भारतीय व्यवस्था में अधिकार शब्द नहीं है. भारतीय समाज व्यवस्था की आधारशिला कर्तव्य है. उसके इस व्यवहार का मूलमन्त्र गीता का ‘ बीज माम सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम’ है. अर्थात मैं सब प्राणियों का सनातन बीज हूँ. मैं परमेष्ठी का अंश हूँ. स्वतन्त्र जन्मा नहीं, अपितु एक विशाल परिवार से परस्पर गुंथा, परस्परावलम्बी व्यवस्था का अंग हूँ. मैं अनेक दायित्व, ऋण लेकर जन्मा हूँ. मेरा जन्म व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए नहीं हुआ है. मेरे व्यक्तिगत उद्देश्य तो इसी व्यवस्था से पूरे होने वाले हैं. इसलिए मुझे अपने बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं और न ही मुझे इसके लिए कोई प्रयत्न करना है. इसी को हमारे यहाँ धर्म कहा गया है. धर्म रिलिजन नहीं. इसी में से पितृ, मातृ, समाज, देश, विश्व या सृष्टि धर्म उद्घाटित हुए हैं.

हमारे यहां कर्तव्य एवं अधिकारों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है. केवल सोचने के ढंग का अंतर है. एक दृष्टिकोण कहता है यह मेरा है, मैं इसे अपने अधिकार स्वरूप लूंगा. दूसरा दृष्टिकोण ‘ईशावास्यंइदम् सर्वम’ आधारित होने के कारण यह तुम्हारा है, मैं इसे अपने कर्तव्य स्वरूप दूंगा. इन भिन्न दृष्टिकोण के परिणाम भी भिन्न निकले. संघर्ष के लिए अधिकार और अधिकार के लिए संघर्ष. दूसरी ओर है कर्तव्य और कर्तव्य के लिए सहयोग – सामंजस्य एवं परस्परावलम्बित. ‘परस्परोपग्रहो जीवनाम’. धर्म एकांगी नहीं है. धर्म के पालन के लिए एक से अधिक होना आवश्यक है. पितृ धर्म के लिए पिता-पुत्र का, मातृ धर्म के लिए माता-पुत्र का, समाज धर्म के लिए व्यक्ति एवं समाज का होना आवश्यक है. समाज इसी समझ का विकसित रूप है. वह लोगों का झुंड मात्र नहीं है. समाज वह है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी अस्मिता अथवा स्वत्व को कायम रखते हुए सामूहिक हितों के निर्वहन के लिए व्यक्तिगत असुविधाओं को गौण मान सबकी भलाई के लिए सबके साथ जुड़ता है. पारस्परिकता के बिना मानव नहीं रह सकता. पारस्परिकता लुप्त होते ही संघर्ष का जन्म होता है और ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाले सिद्धांत पर समाज चल पड़ता है. ऐसी स्थिति में वह पशु समान मूर्खों का झुंड भर रह जाता है.

हमारे पूर्वजों ने चंद्र, ग्रह-उपग्रह, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य सभी में ही ईश्वर के अंश के दर्शन किए. उन्होंने प्रकृति में परमात्मा की अभिव्यक्ति की अनुभूति की. हमारा यह दृष्टिकोण व्यक्ति, परिवार, समाज के चिंतन एवं व्यवहार में स्पष्ट दिखायी पड़ता है. इसके आधार पर ही हमने सबके साथ मातृ भाव, बंधुभाव से लेकर कुटुम्ब भाव तक सम्बन्ध स्थापित किए. इस विश्व बंधुत्व के सिद्धांत ने मंगल भूमि पुत्र, शनि सूर्य पुत्र, चन्द्र अश्विनी से रेवती तक सत्ताईस नक्षत्रों का पति, ध्रुव, अगस्त्य, शुक्र, वशिष्ठ जैसे अनेक ऋषियों के नामकरण द्वारा ग्रह-उपग्रह एवं नक्षत्र आदि से जीवंत सम्बन्ध स्थापित किए. हमने पीपल, तुलसी, विल्ब जैसी अनेक वनस्पतियों को पवित्र भाव से देखा. गाय, बिल्ली, मोर, सिंह, मूषक सभी को इसी दृष्टि से देखा. अपने किसी न किसी  इष्ट के साथ रख पूज्य की उच्च अवस्था तक ले गए. हम अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति करते समय इन सभी के साथ अपने उदात्त और अपनेपन के सम्बन्धों को स्मरण रखते हैं. भारतीय संस्कृति में पंच यज्ञों (ऋण) को गृहस्थ व्यक्ति के कर्तव्यों में समाहित किया गया है. देवयज्ञ द्वारा प्रकृति चक्र के सम्यक संचालन के प्रयत्न यानि अपने आसपास गांव-मुहल्ले के कुएं-तालाब को प्रदूषण मुक्त रखना, पेड़-पौधे और जीव-जंतुओं का संरक्षण-संवर्धन करना स्वाभाविक कर्तव्य. ऋषि ऋण के द्वारा ऋषियों की ज्ञान धारा का संवर्धन एवं प्रवाह बनाये रखना. पितृ यज्ञ द्वारा पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता. मनुष्य यज्ञ द्वारा अतिथि सत्कार एवं पशु यज्ञ द्वारा प्राणी सृष्टि का संरक्षण. ये पांच यज्ञ हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य हैं. इस प्रकार भारतीय चिंतन के दृष्टिकोण युक्त जीवन सहजता से परिवार, कुटुम्ब देश के साथ ही सृष्टि के समस्त प्राणि- वनस्पतियों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करता हुआ, क्रमशः वानप्रस्थ सन्यास की ओर बढ़ता हुआ ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होता जाता है.

उक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि आज दुनिया को अनेक प्रकार के संकटों का समाधान भारत की संस्कृति ही दे सकती है. आज विश्व में बढ़ रही आर्थिक विषमता, पर्यावरण-असंतुलन और आतंकवाद मानवता के लिए गंभीर चुनौती बन गए हैं. कानून के आधार पर इनका समाधान नहीं ढूंढा जा सकता है. दरअसल, इन समस्याओं का जन्म प्रकृति आधारित जीवनशैली से हटने के कारण हुआ है. जब तक मानव समाज को प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली की ओर नहीं ले जायेंगे, तब तक इन समस्याओं का हल निकालना संभव दिखाई नहीं देता. यह तो स्पष्ट है कि हिन्दू जीवनशैली प्रकृति के नियमों के अनुकूल है. हिन्दू जीवनशैली सह-अस्तित्व से आगे जाकर सबके उत्थान की बात कहती है. दुनिया के सामने भारत की संस्कृति ही एकमात्र विकल्प है. हिन्दू संस्कृति से ही दुनिया को समाधान प्राप्त हो सकते हैं. इसलिए आवश्यकता है कि हम भी अपनी संस्कृति को पुष्ट करें. अपने सामाजिक मूल्यों पर गर्व करें, उनकी स्थापना के लिए प्रयास करें. प्रकृति अनुकूल जीवनशैली की और लौटें और अपने स्वाभाविक धर्मों (कर्तव्यों) का पालन करें.

नरेंद्र जैन

भोपाल

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